‘गुलामगिरी’ के प्रकाशन की वर्षगांठ (1 जून, 1873) पर विशेष
जहां न्याय की अवमानना होती है, जहां जहालत और गरीबी है, जहां कोई भी समुदाय यह महसूस करे कि समाज सिवाय उसके दमन, लूट तथा अवमानना के संगठित षड्यंत्र के कुछ नहीं है — वहां न तो मनुष्य सुरक्षित रह सकते हैं, न ही संपत्ति। – फ्रैड्रिक डगलस
गुणीजन कहते आए हैं, जवाब से सवाल ज्यादा मुश्किल होता है। सवाल समझ में आ जाए तो जवाब खोजने में देर नहीं लगती। दो सौ साल पहले बहुजनों का सांस्कृतिक-सामाजिक शोषण आज के मुकाबले कहीं अधिक था। किंतु उसके विरोध में न कोई चेतना थी, न आवाज और ना ही उनके हालात को लेकर कोई सवाल उनके दिमाग में उठते थे। वे शोषण-उत्पीड़न के साथ जीना सीख चुके दीन, दलित, सर्वहारा थे। वे मानते थे कि वे वैसे ही हैं, जैसा उन्हें होना चाहिए था। उन्हें समाज से कोई शिकायत न थी। शिकायत थी तो ब्राह्मणों द्वारा थोपे गए ईश्वर से, जिसे वे भ्रमवश अपना मान बैठे थे। जीवन की तमाम हताशाओं के बीच ईश्वर नामक काल्पनिक सत्ता ही उनकी एकमात्र उम्मीद थी। वे इस बात से अनजान थे कि धर्म और ईश्वर उन्हें गुलाम बनाए रखने का षड्यंत्र हैं।