समाजशास्त्रियों का मानना है कि महामारियां लोगों को एकजुट करती हैं। यदि ऐसा है तो महामारी के दौर में जातिवाद, वर्ग संघर्ष और नस्लवाद का असर कम होना चाहिए। परंतु कोविड-19 के दौर में पूरी दुनिया में ठीक इसके विपरीत हो रहा है। विशेषकर भारत में इस संकट की घड़ी में भी दलितों और आदिवासियों के खिलाफ अत्यचार की घटनाएं बढ़ी हैं। साथ ही हुकूमतों का जनविरोधी चेहरा भी खुलकर सामना आया। जैसे कोरोना वायरस श्वसन तंत्र को प्रभावित करता है उसी तरह जाति का वायरस द्विजों के दिमाग और दिल को भ्रष्ट करता है। हाल की कई घटनाओं को देख कर ऐसा लगता है मानों बहुजनों की जान लेने के लिए कोरोनो वायरस और जाति के वायरस एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हों।
बीते 25 मई, 2020 को अमेरिका के मिनियापोलिस में अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या एक श्वेत पुलिस अधिकारी डेरिक शॉविन ने कर दी। उसने दिनदहाड़े फ्लॉयड की गर्दन को अपने घुटने से आठ मिनट से अधिक समय तक दबाए रखा जिससे दम घुटने से फ्लॉयड की मौत हो गई। इस घटना के बाद अमेरिका सहित पूरी दुनिया में “ब्लैक लाईव्स मैटर्स” के नारे गूंज रहे हैं। टीवी व समाचारपत्रों आदि के माध्यम से रंगभेद के खिलाफ गंभीर वैचारिक और बौद्धिक विमर्श चल रहा है। लोग इसे रंगभेद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई मान रहे हैं। हालांकि इस पर अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी क्योंकि यह आंदोलन दुनिया के इतिहास में क्या बुनियादी परिवर्तन लाएगा, यह समय ही बताएगा। परंतु इतना तो कहा ही जा सकता है कि वैश्विक महामारी के काल में अश्वेत लोगों ने अपनी एकजुटता और धैर्य का प्रदर्शन किया है।
इसी दरमियान भारत में इससे भी भयानक घटनाएं प्रकाश में आयीं। देश में लॉकडाउन के दौरान जातिगत उत्पीड़न घटने की उम्मीद थी। लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत और समाजशास्त्रियों का भ्रम टूट गया। भारतीय समाज की नस–नस में फैला हुआ जातिवाद का जहर पहले से भी अधिक क्रूर स्वरूप में सामने आया। भेदभाव, जातिवाद और छुआछूत आदि के अलावा उत्पीड़न के नये स्वरूप भी सामने आए।
जातिगत द्वेष और नफरत के कारण दलितों के साथ मारपीट, हत्या और बलात्कार आदि की घटनाएं सामान्य हो चुकी हैं। लॉकडाउन के दौरान अपराधियों के नये तेवर सामने आए। भेदभाव, जैसे कि गांव में जाति आधारित टोला–मोहल्ला का सीमांकन व नामकरण, जातिसूचक गालियां, सिंचाई के लिए पानी पर पहला हक़, पेयजल स्रेातों जैसे कि चापाकल पर कब्ज़ा, तालाबों में नहाने के लिए अलग–अलग घाट, दलित महिलाओं के साथ छेड़खानी आदि “नॉर्मल” घटनाओं में शामिल हैं। ये वे घटनाएं हैं जिनसे दलित असहज महसूस नहीं करते हैं। वहीं यदि कोई व्यक्ति इन जातिगत अपराधों पर सवाल उठाता है तो उसे ही जातिवादी घोषित कर दिया जाता है।
डॉ. आंबेडकर ने “जाति के विनाश” में ठीक ही कहा है कि “जाति एक धारणा है, यह मन की स्थिति है।” “जाति का विनाश” आंबेडकर का सर्वाधिक चर्चित ऐतिहासिक व्याख्यान है, जिसे उन्हें प्रस्तुत करने नहीं दिया गया। यह व्याख्यान उन्होंने 1936 में जातपात तोड़क मंडल, लाहौर के वार्षिक अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय संबोधन के लिए तैयार किया था परंतु आयोजकों से वैचारिक असहमति के कारण अधिवेशन ही निरस्त हो गया। यह व्याख्यान आज भी प्रासंगिक है क्योंकि आज भी जाति का सवाल भारतीय समाज का सबसे ज्वलंत प्रश्न बना हुआ है। डॉ. आंबेडकर पहले भारतीय समाजशास्त्री थे, जिन्होंने भारतीय समाज में जाति के उद्भव और विकास का वैज्ञानिक अध्ययन किया था।
कोरोना लॉकडाउन के दरमियान भारतीय सामाजिक व्यवस्था का असली, वीभत्स स्वरूप सामने आया। मीडिया में बहुसंख्यक समाज की हिस्सेदारी न होने व उनसे विषयों को केंद्र में न रखने की प्रवृति के कारण जातिगत अत्याचार की घटनाएं मीडिया के लिए महज खबरें होती हैं। उन पर कोई गंभीर विमर्श नहीं किया जाता।
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कुछ घटनाएं विचारणीय हैं। मसलन, बीते 27 मई को महाराष्ट्र के नागपुर में वंचित बहुजन अघाड़ी के कार्यकर्ता दलित युवक अरविंद बंसोड़ को जबरदस्ती कीटनाशक पिला दिया गया जिससे अगले दिन उसकी मौत हो गई। मिली जानकारी के अनुसार इस हत्या के पीछे सामंती प्रवृति के लोग थे। कुछ दिन पहले ही खबर आई थी कि उत्तराखंड के नैनीताल जिले के ओखलकांडा ब्लॉक के भुमका गांव में हिमाचल प्रदेश और हल्द्वानी से आए चाचा–भतीजे को स्कूल में बने क्वारंटाइन सेंटर में रखा गया था। सेंटर में भोजन बनाने की जिम्मेदारी स्कूल की
“भोजनमाता” को दी गई, जो एक दलित समुदाय की है। चाचा–भतीजे ने दलित महिला के हाथों से बना हुआ खाना खाने से इनकार कर दिया। उन्होंने महिला को अभद्र जातिसूचक गालियां देते हुए डेस्क को उसके पैरों पर गिरा दिया। इसके उपरांत दोनों ने अपने घर से खाना मंगवाया और खाया।
इस बीच इसी तरह की घटनाएं उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान में भी होती रहीं। मध्यप्रदेश में तो एक दलित दंपत्ति को शौचालय में क्वारेंटाइन कर दिया गया और भोजन भी वहीं दिया गया। खबर सामने आने के बाद उन्हें स्कूल भवन ले जाया गया। बिहार के बेगूसराय में सवर्ण लड़की से शादी करने वाले दलित विक्रम की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। उसकी मौत की जांच की मांग करने वाले संतोष की भी पीट-पीटकर हत्या कर दी गई।
समाचारपत्रों के मुताबिक, दक्षिण भारत के तमिलनाडु में कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान दलितों पर अत्याचार की घटनाओं की संख्या सामान्य से अधिक रही। आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा जिले के पहाड़ी इलाके के एक गांव के टोले में दलित समुदाय के करीब 57 परिवार निवासरत हैं। नीचे मैदानी इलाकों में रहने वाले ऊंची जातियों के लोगों ने उनके पहाड़ से उतरने पर रोक लगा रखी है। इन दबंग जातियों के अनुसार दलित समुदाय के लोग कचरा बीनते हैं, जिसकी वजह से गांव में बीमारी फैल सकती है। लॉकडाउन के बहाने उन पर ऐसी सख्तियां लगा दी गईं जो बाकी गांव वाले खुद पर लागू नहीं करते हैं। उन्हें कोई सामान तक लेने नहीं दिया गया। सामाजिक संगठनों के माध्यम से जब यह मामला उजागर हुआ तब सरकार ने लोगों को कुछ राहत उपलब्ध करवाई। कर्नाटक में भी भेदभाव और छुआछूत के अनेक मामले सामने आये हैं।
हैदराबाद के एक तेलुगू गीतकार ने कोरोना लॉकडाउन के दौरान जाति व्यवस्था को सही ठहराते हुए एक गीत लिखा और उसे सोशल मीडिया में प्रसारित किया। इस गीत में न केवल जाति व्यवस्था का गुणगान था बल्कि छुआछूत और जाति आधारित विवेचना का जयजयकार भी था। इसी बीच 14 अप्रैल, 2020 को ऐन डॉ. आंबेडकर की जयंती के दिन दलित लेखक एवं बुद्धिजीवी आनंद तेलतुंबडे की गिरफ़्तारी हुई। दलितों के लिए यह विपत्ति पूर्ण अनुभव एक दर्पण है खासकर जाति व्यवस्था के पहलुओं के संदर्भ में जिसे भुलाकर वे एक नई शुरुआत करना चाहते हैं। यानी जिन पहलुओं को वे पीछे छोड़कर आगे बढ़ना चाहते है, कोरोनाकाल ने उन्हें उसका वृहद स्वरुप दिखाया।
यह सत्य है कि संकट काल में व्यक्ति, समाज और देश के सामाजिक और राजनीतिक विरोधाभास उभरकर सामने आते हैं और इस दौरान पहले से मौजूद दरारें और चौड़ी हो जाती हैं।
भारत में जातीय भेदभाव का आधार ब्राह्मणवाद है। वैसे दलितों का सामाजिक बहिष्कार, दलितों को गांव से निकालना, उनकी बस्तियां जलाना, उनकी महिलाओं व लड़कियों के साथ बलात्कार, दलित दुल्हे को घोड़े पर सवार होने से रोकना आदि घटनाएं घटती रहती हैं। यह स्थिति तब है जब देश का संविधान किसी भी आधार पर भेदभाव का निषेध करता है। वैसे सवर्ण जातियां हमेशा से ही दलित, आदिवासी और पिछड़ों के साथ नफरत और भेदभाव करती रही है। यह विडंबना ही है कि देश में जब किसी दलित या आदिवासी समुदाय का उत्पीड़न होता है तो इन वर्गों के अन्य समुदाय या तो चुप रहते हैं या फिर उत्पीडन करने वाली जातियों के सुर में सुर मिलाते हैं। अगर उत्पीड़न किसी मुसलमान का हुआ, तो क्या दलित, क्या पिछड़ा और क्या सवर्ण; फिर तो सभी हिंदू एक हो जाते हैं। अनेकता में एकता का सर्वोच्च मिसाल स्थापित भी कर देते हैं। इसी कारण भारत में असमानता के खिलाफ निर्णायक लड़ाई नहीं हो सकी है और ना ही उस तरह का आन्दोलन खड़ा हो सका जैसा कि आज अमेरिका और पूरे विश्व में रंगभेद के खिलाफ खड़ा हुआ है।
डॉ आंबेडकर ने कहा था कि जाति का जहर इंसानों को इतना घिनौना बना देता है कि वे स्वनिर्मित गुलामगिरी के भंवर में फंस जाते हैं जहां से निकलना असंभव होता है। स्वतंत्र भारत में संवैधानिक संरक्षण के बावजूद दलित समुदाय के लोग आज तक स्वयं को एक संपूर्ण, स्वतंत्र और समतामूलक नागरिक के रूप में न तो देख पाए और ना ही स्थापित कर पाए। यही वजह है कि कोरोनाकाल में भी मेरिका में जार्ज फ्लॉयड की हत्या से कहीं अधिक गंभीर घटनाएं हमारे देश में होने के बावजूद “ब्लैक लाईव्स मैटर्स” की तर्ज़ पर “दलित लाईव्स मैटर्स” की आवाज़ यहाँ नहीं गूंजी।
(संपादन : नवल/अमरीश)
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