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एम. करुणानिधि : पेरियार के रास्ते के सच्चे पथिक

पेरियार का आत्मसम्मान आंदोलन, अनीश्वरवाद से अनुप्रेरित एक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन था। बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में पेरियार के उग्र जाति-विरोधी विचारों ने तमिलभाषी इलाकों में जबरदस्त राजनीतिक उबाल पैदा कर दिया था। यह आंदोलन जातिवाद और ब्राह्मणवादी पाखंडों का विरोधी था। एम. करुणानिधि जीवनपर्यंत इन विचारों के प्रतिबद्ध रहे। बता रहे हैं रामनरेश यादव

एम. करुणानिधि (3 जून, 1924 – 7 अगस्त, 2018) पर विशेष

भारत के समकालीन राजनीतिक इतिहास में एम. करुणानिधि का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। उनका नाम लेते ही एक ऐसे राजनेता की छवि उभरती है, जो अपनी दूरदर्शिता और कर्मठता से तमिल जनता के सामाजिक-आर्थिक जीवन में आमूलचूल परिवर्तन लाने में सफल रहे। वे एक सफल राजनेता के साथ-साथ पटकथा लेखक, पत्रकार, साहित्यकार, और महान समाजसुधारक भी थे। 

इस महान दूरद्रष्टा व्यक्तित्व का जन्म ब्रिटिश भारत के मद्रास प्रेसीडेंसी के अन्तर्गत एक छोटे से गांव तिरुक्कुवालाई में 3 जून, 1924 को हुआ। यह गांव नागपट्टिनम जिले में थिरुवरुर कस्बे के पास है। उनकी माता अंजुगम और पिता मुथुवेल थे। इनके बचपन का नाम दक्षिणामूर्ति था। पढ़ने में लगनशील और सीखने को हमेशा उद्यत रहने वाले बालक दक्षिणामूर्ति की शिक्षा-दीक्षा गांव की ही पाठशाला में हुई। बाद में वे निकटवर्ती कस्बे थिरुवरुर के बोर्ड हाईस्कूल में दाखिल हुए,जहां से उन्होंने आठवीं कक्षा उत्तीर्ण की। 

पिछड़ा वर्ग के ‘इसाइ वेल्लालर’ जाति से संबद्ध यह परिवार शैव मत का अनुयायी था। यहाँ इसाइ का अर्थ है संगीत और वेल्लालर का अर्थ है कृषक समुदाय। 

दक्षिणामूर्ति का परिवार अति विपन्न था। इनके पिताजी मंदिरों में नादस्वरम नामक वाद्ययंत्र बजाकर जीवनयापन करते थे। बालक दक्षिणामूर्ति की रूचि पढ़ाई से ज्यादा संगीत में थी। वाद्ययंत्र बजाना सीखने के उद्देश्य से दक्षिणामूर्ति बहुधा अपने पिताजी के साथ मंदिर जाया करते थे, जहां पहली बार उनके बाल मन को जाति-आधारित भेदभाव से दो-चार होना पड़ा। इसने उनके जीवन पर इतना गहरा असर डाला कि वे स्कूली शिक्षा और संगीत सीखने का मोह त्यागकर व्यावसायिक नाटकों में अपनी भूमिका तलाशने कोयंबटूर चले गए। विनम्र स्वभाव के इस बालक में नाटकों के प्रति इतना लगाव था कि वे इसके लिए भीख मांगने के लिए भी तैयार रहते थे। वे रंगमंच के पीछे संवाद लेखक की भूमिका में थे। कौन जानता था कि नाटकों के संवाद लेखक की भूमिका का सफलता से निर्वहन करने वाले इस किशोर के अंदर एक चेतना संपन्न राजनेता की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है! 

बालमन पर द्रविड़ आंदोलन का प्रभाव 

दक्षिणामूर्ति उत्साही बालक था। उनका किशोर मन उस कालखंड में ई.वी. रामासामी पेरियार के नेतृत्व में चल रहे आत्मसम्मान द्रविड़ आंदोलन से भला कैसे अछूता रह सकता था। जातीय भेदभाव की दीवारों को तोड़ने और सामाजिक बदलाव के लिए चलाये जा रहे इस आंदोलन से वे किशोरावस्था में ही जुड़ गए। आत्मसम्मान आंदोलन, अनीश्वरवाद से अनुप्रेरित एक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन था। बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में पेरियार के उग्र जाति-विरोधी विचारों ने तमिलभाषी इलाकों में जबरदस्त राजनीतिक उबाल पैदा कर दिया था। यह आंदोलन जातिवाद और ब्राह्मणवादी पाखंडों का विरोधी था। 

एक कार्यक्रम में करूणानिधि और पार्श्व में पेरियार, अन्नदुराई और करूणानिधि का बैनर (साभार : इंडियन एक्सप्रेस)

आत्मसम्मान आंदोलन

पेरियार के नेतृत्व में चल रहे आत्मसम्मान आंदोलन का उद्देश्य जाति, धर्म और पुरोहितवाद के विरुद्ध समाज में चेतना का विकास करना था। द्रविड़ जनता के मानसपटल को ब्राह्मणवाद से मुक्त करने के लिए, उनमें अपने अतीत के प्रति गौरव बोध और आत्मविश्वास भरना जरूरी था। इस आंदोलन का लक्ष्य आमजन को उन सभी धर्मग्रंथों, रीति-रिवाजों और परंपराओं से मुक्त करना था, जो ब्राह्मण वर्चस्व को अपरिहार्य ठहराते थे। सामाजिक और आर्थिक विषमता का अंत, भूमि और अन्य संसाधनों का उचित बंटवारा, लैंगिक भेदभाव की समाप्ति, वैज्ञानिक चेतना से संपन्न समाज का निर्माण व मानव और उसके श्रम की गरिमा की पुनर्स्थापना इस आंदोलन के प्रमुख उद्देश्य थे। आंदोलन की सैद्धांतिकी और विचार प्राचीन तमिल कवियों और सिद्धों से अनुप्रेरित थे। 

दक्षिणामूर्ति अपने संवाद लेखन के अनुभव और कौशल का इस्तेमाल आत्मसम्मान आंदोलन के प्रगतिशील विचारों का प्रचार-प्रसार करने के लिए करने लगे। नाटक, अखबार, लेख, पर्चे और भाषण उनके लिए जनजागरण के औजार थे। धर्म में आस्था रखने वाले परिवार में जन्मे दक्षिणामूर्ति, पेरियार के विचारों से प्रभावित होकर नास्तिक हो गए। उनका नया नाम था- मुथुवेल करुणानिधि। करुणानिधि यानि दयालुता का खजाना। आगे चलकर वे अपने नाम को अपनी योजनाओं के माध्यम से चरितार्थ करने वाले थे। 

राजनीति में प्रवेश

एम. करुणानिधि, जस्टिस पार्टी के नेता और पेरियार के सहयोगी रहे अलागिरी सामी के ओजस्वी भाषण से इतने प्रभावित हुए कि मात्र 14 वर्ष की अवस्था में ही सक्रिय राजनीति में आ गए। यह 1937 का वर्ष था और उस समय तमिलभाषी इलाकों में हिंदी थोपने के विरोध में आंदोलन चल रहा था। उन्होंने मात्र 17 वर्ष की आयु में तमिल स्टूडेंट्स फोरम नामक संगठन बनाया और “मनावर नेसन” नामक हस्तलिखित पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। इस पत्रिका के माध्यम से वे आत्मसम्मान आंदोलन के मुद्दों को तार्किक ढंग से पाठकों के समक्ष पेश करते थे। “मुरासोली” नामक पत्रिका के संपादन करते हुए भी उनका जनजागृति अभियान निर्बाध गति से चलता रहा। शीघ्र ही इनके लेखन शैली और बात रखने की असाधारण क्षमता से प्रभावित होकर पेरियार ने आत्मसम्मान आंदोलन के दौरान शुरू की गई पत्रिका “कुदियारासु” के उपसंपादक का कार्यभार उन्हें दे दिया। मात्र 20 वर्ष की आयु में वे ज्यूपिटर पिक्चर्स नामक फिल्म निर्माण कम्पनी से जुड़ गए थे। सन 1947 में रीलीज़ फिल्म “राजकुमारी” से उन्हें प्रसिद्धि मिली। 

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करुणानिधि के वक्तृत्व कौशल, पत्र-पत्रिकाओं में छपे उनके तार्किक लेखों और उनके द्वारा नाटकों और फिल्मों में डाले गए सार्थक संदेश से प्रभावित होकर पेरियार के करीबी सहयोगी रहे सी. एन. अन्नादुरई का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट हुआ। अन्नादुरई इस प्रतिभाशाली होनहार युवा से इतने प्रभावित हुए कि बिना देर किए उन्होंने करूणानिधि को द्रविड़ आंदोलन की मुख्यधारा से जोड़ लिया। पेरियार से मतभेद के बाद अन्नादुरई ने जस्टिस पार्टी से अलग होकर जब 1949 में एक नई पार्टी “द्रविड़ मुनेत्र कषगम” (डीएमके) की स्थापना की तब करूणानिधि इस पार्टी के कोषाध्यक्ष बनाए गए। वे राजनीति की सीढ़ी इतने तेजी से चढ़े कि मात्र 25 वर्ष की आयु में डीएमके की केन्द्रीय प्रचार समिति में शामिल कर लिए गए। ओजस्वी भाषण और संगठन कौशल के बदौलत जल्द ही वे द्रविड़ आंदोलन के प्रतीक पुरुष बन गए। 

फिल्मी पटकथा लेखक के चोले में समाज सुधारक

राजनीति के क्षेत्र में सक्रियता के साथ ही करुणानिधि पटकथा लेखन के माध्यम से भी जनता तक अपनी बात पहुंचा रहे थे। अपने अभिनय शैली और समर्पण के कारण बहुत ही कम उम्र में वे फिल्म पटकथा लेखन के उस्ताद बन गए थे। उन्होंने द्रविड़ आंदोलन के सामाजिक उद्देश्यों को जन-जन तक पहुँचाने के लिए सिनेमा का औजार के रूप में बखूबी इस्तेमाल किया। कोयंबटूर में रहकर व्यावसायिक नाटकों की पटकथा लेखन का उनका अनुभव उनके फिल्मी सफर में बड़े काम आया। 

1952 में द्रविड़ आंदोलन के आदर्शों से प्रेरित उनकी फिल्म “परासाक्षी” आई। फिल्म में कथा-पटकथा और संवाद के माध्यम से द्रविड़ अस्मिता को बुलंदी प्रदान की गयी। इस फिल्म के कथानक में गरीब नायक को साहुकारों, ब्राह्मणवादी नेताओं और असंवेदनशील सरकार के अत्याचारों का सामना करना पड़ता है। फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया गया। भारी जन-दबाव में जब प्रतिबंध वापस लिया गया तब फिल्म जबरदस्त हिट हुई और वे सर्वत्र चर्चा में आ गए। प्रगतिशील विचारों से लैस फिल्मों के निर्माण का सिलसिला चल पड़ा। 

नैसर्गिक प्रतिभा के धनी करुणानिधि ने फिल्मों में कई अभिनव प्रयोग किए। उनकी फिल्मों के विषय पर सामाजिक सरोकारों का जबरदस्त प्रभाव था। ब्राह्मणवाद का विरोध, समाजवादी आदर्श, सामाजिक सुधार, विधवा पुनर्विवाह, छुआछूत उन्मूलन, पाखंड उन्मूलन, जमींदारी उन्मूलन, वैज्ञानिक चेतना का विकास और बुद्धिवादी विमर्श उनके फिल्मों के अभिन्न विषय होते थे। 

उनके फिल्मी संवादों में सामाजिक न्याय और तरक्की पसंद बातें होती थी, वहीं पटकथा में अंधविश्वास, धार्मिक कट्टरता और रूढ़िवादी सामाजिक व्यवस्था पर सवाल उठाए जाते थे। उनके लिए फिल्में मनोरंजन का माध्यम नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन का वाहक थीं। 

चुनावी राजनीति का सफर

करुणानिधि ने 1957 में द्रविड़ मुनेत्र कषगम के चुनाव चिन्ह पर पहला चुनाव लड़ा और सफल रहे। तेरह विधायकों की जीत के साथ डीएमके को मिली शुरूआती सफलता, आगे चलकर तमिल राजनीति में नए आयाम रचने वाली थी। आक्रामक राजनीतिक तेवर के लिए प्रसिद्ध करुणानिधि का यह चुनावी सफर काफी लम्बा चलने वाला था। जब 1967 में सी. एन. अन्नादुरई के नेतृत्व में डीएमके की राज्य की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी तो वे परिवहन मंत्री बनाए गए। एक मंत्री के रूप में उनके समक्ष तमिल आकांक्षाओं और अपने नेता अन्नादुरई की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की चुनौती थी। परिवहन मंत्री के रूप में गांवों को यातायात नेटवर्क से जोड़ने के लिए उन्होंने निजी बसों का सरकारीकरण किया। 

तमिल अस्मिता को स्थायित्व देने के लिए अन्नादुरई के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा जनता के अपेक्षानुरूप “मद्रास” प्रांत का नामकरण “तमिलनाडु” कर दिया गया। विद्यालयों में धार्मिक प्रार्थना को हटाकर पंथनिरपेक्ष राज्यगीत गाना अनिवार्य किया गया। वे अन्नादुरई के नेतृत्व में जनाकांक्षाओं को पूरा करने के महती कार्य में अहर्निश लगे ही हुए थे कि सहसा वज्रपात सा हुआ। मुख्यमंत्री अन्नादुरई की 1969 में मृत्यु हो गई। वे अन्नादुरई के उत्तराधिकारी के रूप में डीएमके के अध्यक्ष बनाए गए और उन्हें मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी दी गई। उन्हें आगे चलकर यह पद कई बार संभालना था और तमिल जनता की सेवा में ताउम्र जिंदगी बितानी थी। एक दशक बीतते-बीतते वे तमिलनाडु की राजनीति में एक बड़ा नाम बन चुके थे। 

वे बारह बार विधायक, एक बार विधानपरिषद् सदस्य और पांच बार (1969-71, 1971-76, 1989-91, 1996-2001, और 2006-2011) तमिलनाडु के मुख्यमंत्री चुने गए। चुनावी राजनीति में 60 वर्ष से भी लम्बी अवधि में वे कोई चुनाव नहीं हारे। 

योगदान और उपलब्धियाँ

तमिलनाडु को सामाजिक और आर्थिक रूप से तरक्की पसंद राज्य बनाने के लिए जिन राजनेताओं का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा, उनमें करुणानिधि का स्थान हमेशा शीर्ष पर रहेगा। पेरियार के विचारों से अनुप्रेरित उनकी सोच और कार्यप्रणाली हमेशा शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, सिंचाई और आवास जैसी मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं तथा सामाजिक न्याय के इर्दगिर्द घूमता रही। उनके द्वारा लागू की गई जनकल्याणकारी योजनाओं की लम्बी फेहरिस्त है। आइए कुछ पर विहंगम दृष्टि डालते हैं। 

  1. करुणानिधि के प्रथम मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल (1969-71) में ही सभी के लिए मुफ्त शिक्षा, सभी गांवों के लिए बिजली की पहुंच सुनिश्चित करना , प्रत्येक 1500 आबादी वाले गांव के लिए पक्की सड़क, मुफ्त नेत्र जाँच शिविर, भिखारियों का पुनर्वास, खेतीहर मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी निर्धारण, हाथ रिक्शा उन्मूलन, एससी/एसटी वर्ग के लिए पक्का आवास, ओबीसी, एससी, एसटी के कल्याण के लिए अलग मंत्रालय, पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन, पिछड़ा वर्ग की आरक्षण सीमा में वृद्धि (25% से  31%), अनुसूचित जाति की आरक्षण सीमा में वृद्धि (16% से 18%), जैसे महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए। 
  2. दूसरे मुख्यमंत्रित्व काल (1971-76) में जमींदारी उन्मूलन के तहत 15 एकड़ जमीन की हदबंदी तय कर दी गई। कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना, लघु उद्योग विकास निगम की स्थापना, हरित क्रांति के लिए आवश्यक उपाय, मछुआरों के लिए हाऊसिंग स्कीम तथा उर्दू भाषी मुसलमानों को पिछड़े वर्ग में शामिल करने जैसे महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए। 
  3. तीसरे मुख्यमंत्रित्व काल(1989-91) में लिए गए निर्णयों में अत्यंत पिछड़ा वर्ग के लिए अलग से 20% आरक्षण कोटा का निर्धारण, वंचित वर्ग के बच्चों के लिए डिग्री स्तर तक की मुफ्त शिक्षा, भारत में पहली बार किसानों के लिए मुफ्त बिजली, सरकारी सेवाओं में सभी वर्गों की महिलाओं के लिए 30% आरक्षण, विधवा विवाह और अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहित करने के लिए प्रोत्साहन राशि का प्रावधान उल्लेखनीय है।
  4. चौथे मुख्यमंत्रित्व काल (1996-2001) के लोकप्रिय निर्णयों में स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर 24 घंटे देखभाल की सुविधा, भारत में पहली बार विधायक क्षेत्र विकास निधि का प्रावधान, व्यावसायिक कोर्सेज में ग्रामीण छात्रों के लिए 15% आरक्षण इत्यादि प्रमुख रहे।
  5. उनके पांचवें मुख्यमंत्रित्व काल (2006-11) की उपलब्धियों की सूची में जिन निर्णयों को क्रांति का संवाहक माना जा सकता है, उनमें पहला है, कानून बनाकर लिंग और जाति से परे सभी के लिए पुजारी बनने का रास्ता प्रशस्त करना और दूसरा है, ‘समाथुवापुरम’ नामक हाऊसिंग स्कीम। इस स्कीम के तहत दलितों और ऊंची जाति के गरीबों को एक ही कालोनी में इस शर्त पर घर दिए गए कि वे जाति बंधन से मुक्त होकर साथ-साथ रहेंगे। पारिवारिक संपत्तियों में बेटियों की बराबर की हिस्सेदारी लैगिक असमानता दूर करने की दिशा में उनके द्वारा लिया गया क्रांतिकारी फैसला माना जाएगा। 

साहित्यिक- सांस्कृतिक अवदान

करुणानिधि ने अपने जीवनकाल में विभिन्न विषयों पर लगभग 150 पुस्तकों की रचना की। इक्कीस नाटक और 69 फिल्मों में पटकथा लेखन करने वाले इस महान नेता के घर में लगभग 10 हजार से भी ज्यादा पुस्तकों से संपन्न लाइब्रेरी थी। वे चौतरफा कामयाबी वाले ऐसे राजनेता रहे, जिन्होंने गीत लेखन के क्षेत्र में भी हाथ आज़माया। उन्होंने कुआलालंपुर में आयोजित विश्व शास्त्रीय तमिल सम्मेलन का आधिकारिक थीम गीत लिखा जिसे प्रसिद्ध संगीतकार ए.आर. रहमान ने संगीतबद्ध किया था। उन्हें बुद्धिवादी और सामाजिक आदर्शों को बढ़ावा देने वाली कहानियों के शिल्पकार के रूप में भी जाना जाता है। तमिल सिनेमा के पटकथा लेखन में उनके योगदान के लिए उन्हें “कलाईनार” (कला के विद्वान) के नाम से संबोधित किया जाता है। अद्वितीय भाषण कला के लिए विख्यात करुणानिधि को “द ग्रेट कम्यूनिकेटर” के उपनाम से भी नवाजा गया। 

बहरहाल, करुणानिधि की राजनीति में पंथनिरपेक्षता और मानवतावादी विचारों का गहरा असर था। वे हमेशा वंचितों और शोषितों के बुलंद आवाज बने रहे। सत्ता के विकेन्द्रीकरण और राज्यों की स्वायत्तता के वे जबरदस्त हिमायती थे। उनके चाहने वालों ने इस महान नास्तिक को इस हद तक सम्मान दिया कि वे जिंदा भगवान समझे जाने लगे। कावेरी अस्पताल, चेन्नई में 94 वर्ष की अवस्था में 7 अगस्त, 2018 को जब उनकी मृत्यु हुई तब तमिलनाडु सहित पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई। उनके निधन से तमिलनाडु की सियासत में एक युग का अंत हो गया। उनकी इच्छानुसार तिरुवरुर स्थित उनके पैतृक घर को म्यूजियम में तथा चेन्नई स्थित घर को अस्पताल में बदल दिया गया है। करुणानिधि ने जनपक्षीय राजनीति के क्षेत्र में जो बड़ी लकीर खींची है, शायद ही उससे बड़ी लकीर खींचना संभव हो।

(संपादन : नवल/अनिल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

रामनरेश यादव

लेखक बिहार के मधुबनी जिले के फुलपरास नामक सुदूर प्रखंड के एक गांव में शिक्षक हैं तथा सामाजिक न्याय व इसकी अवधाराणा आदि विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं

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