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बहस तलब : घृणा व नफरत आधारित चारवर्णी साहित्य के बरक्स रचने होंगे अपने साहित्य

दुनिया को गुलाम बनानेवाले शोषक चाहे जितने भी निकृष्ट और पतित रहे हों लेकिन वे भारतीय शोषकों से बहुत ऊंचे थे। उन्होंने गुलामों से दूरी भले ही रखी हो, उन्हें मारा-पीटा हो, लेकिन उनके खिलाफ घृणा को स्थायी बनाने के लिए किताबें नहीं लिखी, ग्रंथ नहीं रचे। बहुजनों का साहित्य कैसा हो, बता रहे हैं रामजी यादव

आमतौर पर हमारे देश में स्वतः स्फूर्त संघर्षों और विद्रोहों का मूल्यांकन बहुत हिकारत और दुराग्रह से किया गया है। प्रायः उन्हें परिवर्तन के एक विशिष्ट चरण के रूप में नहीं देखा गया बल्कि उन्हें जाति के खांचे में फिट कर उनकी मूल तत्व व मूल भावना को खत्म कर दिया गया। व्यक्तियों, वस्तुओं और स्थितियों को देखने और उनका विश्लेषण करने की यह परंपरा आगे चलकर बहुत घातक परिणाम देने वाली साबित हुई। इसके अनेक परिणाम हुए जिनसे ये संघर्ष जनता से दूर होते गए और उनके प्रति रवैया बेईमानीपूर्ण होता गया। जनता के वास्तविक नायक बड़ी बेरहमी से इतिहास से गायब कर दिये गए और वर्ग संघर्ष की परंपरा कमजोर होते-होते खत्म होती गई। वही जनता यदि संसदीय राजनीति में वामपंथी पार्टियों को वोट दे तो वह क्रांतिकारी मानी जाने लगी और वही जनता अगर सत्ता में भागीदारी के लिए एकजुट होने लगे तो प्रतिक्रियावादी मानी जाने लगी। वही जनता अगर सामंतवादी-ब्राह्मणवादी गठजोड़ के उत्पीड़न को झेलती रहे तो वह जमीन को पाक रही होती है और वही जनता यदि विभिन्न रास्तों से इनको चुनौती देने लगे तो वह भटकाव का शिकार मान ली जाती है। भूमिकाओं और परिभाषाओं का यह घालमेल एक दिन जनता को अपने वास्तविक संघर्षों से विरत करने में कामयाब हो जाता है। 

इस प्रक्रिया में न वास्तविक इतिहास लिखा जाता है न वास्तविक साहित्य ही बन पाता है। एक ही इलाके में जमींदारी उत्पीड़न और दमन के विरुद्ध संघर्ष में मास्टर जगदीश महतो नायक बनाए जाते हैं और रामेश्वर अहीर डाकू बना दिये जाते हैं। उदाहरण सैकड़ों हैं। जिन लोगों के हाथ में कलम थी उन्होंने उसका मनमाना इस्तेमाल किया और आज हम जिसे बहुजन साहित्य के रूप में खोजना और स्थापित करना चाहते हैं उसके संदर्भों को उन्होंने गर्त में डाल दिया है। इसलिए हमारी लड़ाई हर उस छद्म से है जो हमारा भेस धरकर आता है और हमारा विनाश करके चला जाता है। 

कुछ बातों पर हमको निर्भ्रम होकर सोचना चाहिए और किसी प्रकार के मुलाहिजे से काम नहीं लेना चाहिए। मुलाहिजा कमजोरी की निशानी है और यह अंततः नैतिक पतन का कारण बनता है। बहुजनों को मान लेना चाहिए कि हमारा भारतीय समाज घृणा पर टिका हुआ है। सैकड़ों साल के इतिहास में घृणा का ऐसा बोलबाला है कि गैर-बराबरी के विरुद्ध बराबरी और न्याय का हर संघर्ष उसका शिकार होकर मंजिल के बहुत पहले ही दम तोड़ देता है। भागीदारी का हर प्रयास अपरिमित घृणा से ढंक कर गायब हो जाता है। जब भी कोई समूह या हिस्सा अपनी जगह को बदलता है तो जो चीज बौद्धिक रूप से सबसे अधिक हमारे चारों ओर फैलती है उसे घृणा कहते हैं। वह अनेक प्रकार की चाशनी में लपेटकर फैलाई जाती है, लेकिन वह बहुत ही विनाशकारी होती है। 

क्या घृणा और जाति-व्यवस्था वर्ग संघर्ष की शुरुआत है!

कार्ल मार्क्स आदिम कम्यून की बात करते हैं। क्या इस देश में कभी आदिम कम्यून रहा होगा रहा होगा तो कब रहा होगा? और नष्ट हुआ होगा तो कब नष्ट हुआ होगा? क्या उसके पीछे बुनियादी कारण वह घृणा ही है जो आज हमारे जीवन की भयावह सच्चाई है? वह पहला व्यक्ति कौन होगा जिसने इस समाज में घृणा फैलाई होगी? अगर कथित ज्ञात इतिहास के तौर पर हम भारत को देखें तो लगता है कि उसके पहले भारत के आदिम कम्यून में भाषा का विकास हो चुका था, गृहस्थियां बस चुकी थीं और निजी संपत्ति की स्थिति इतनी मजबूत थी कि पशुपालन और खेती का एक सामाजिक रूप विकसित हो चुका था। जल, जंगल और ज़मीन पर सामूहिक भागीदारी थी। जाति-व्यवस्था नहीं थी। लेकिन कालांतर में जाति-व्यवस्था अस्तित्व में आई और दरअसल नफरत की शुरुआत भी वहीं से हुई। 

दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जब नफरत शुरू हुई तो जाति व्यवस्था अस्तित्व में आई। यह आपसी सहमति से हुआ। कोई सामाजिक विभाजन था नहीं बल्कि जबरन बनाई गई सामाजिक श्रेणियों को लगातार बढ़ाने का सामाजिक संघर्ष था जहां धूर्त और घृणा करने वाला व्यक्ति और समुदाय आधारित वितरण व्यवस्था पर काबिज होता गया और इस प्रकार उत्पादक समुदाय क्रमशः अधिकारों से वंचित होता गया। 

जिस देश में घृणा ही स्थायी भाव रहा हो और घृणा को व्यक्त करने के लिए ग्रंथ लिखे गए; जहां काम करने वालों के प्रति घृणा इस कदर रही हो कि उन्हें हर तरह से वंचना का शिकार बनाना अभीष्ट रहा हो वहां यह जानना जरूरी है कि घृणा करनेवालों ने वास्तव में कितनी घृणा फैलाई है और घृणा सहनेवालों की पीढ़ियां यहां तक आते-आते कितनी गाफिल हो चुकी हैं। ऋग्वेद में यह घृणा इस प्रकार मिलती है – 

अध द्रप्सो अशुमत्या उपस्थे धारयत्तन्व तित्विषाण: ।
विशो अदेवीरभ्या चरंतीर्बृहस्पतिना युजेन्द्र ससाहे ॥15॥ 

इसका मतलब है कि इस द्रप्स अर्थात सोमरस में जब दूध, दही, घी और मधु आदि पदार्थ मिलाये गए तब उस रस का रूप तेजस्वी हो गया। उसे पीकर इंद्र में उत्साह पैदा हुआ तथा उसी उत्साह में उसने देवों की निंदा करनेवाले असुरों का वध किया। 

कहने की जरूरत नहीं है कि असुरों का खाद्य खाकर इंद्र उत्साह पाता है और फिर उन्हीं का वध करता है। मुहावरा है कि परजीवी जिसका खाते हैं उसका गाते हैं। लेकिन यहां तो मामला ही उल्टा है यानी जिसका खाया उसका विनाश किया। अब ऐसी घृणा को आप प्रेम से कैसे कमजोर कर पाएंगे? 

क्या यह घृणा किसी एक जगह है? क्या यह घृणा किसी एक व्यक्ति या एक समुदाय के प्रति है? जी नहीं। यह सारे के सारे मेहनतकशों के लिए है। सारे के सारे उत्पादकों के लिए है। जरा मुलाहिजा फरमाइए – 

दश सूनासमं चक्रं दश चक्र समाध्वजः ।
दश ध्वज समो वेशो दश वेशमों नृप: ॥ 4-85 ॥ 

अर्थात दस वधिकों के बराबर एक तेली होता है, दस तेलियों के बराबर एक कलवार होता है, दस कलवारों के बराबर एक वेशोपजीवी होता है और दस वेशोपजीवियों के बराबर एक शूद्र राजा होता है। अब आप घृणा का स्तर देख लीजिये और आकलन कीजिये। सोचिए कि जब बिहार में पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था आती है तो क्यों उसे ‘कर्पूरिया की माँ बियाती’ की संज्ञा दी जाती है। जब देश में वी.पी. सिंह मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करते हैं तो क्यों वे देश के कलंक हो जाते हैं। क्यों बिहार में बेजुबानों को बोलने का साहस देनेवाले और अपने कार्यकाल में छः-छः विश्वविद्यालयों, अनेक मुसहर विद्यालयों और चरवाहा विद्यालयों को खुलवाने वाले लालू प्रसाद ललुआ और चारा चोर बताए जाते हैं?

यह भी पढ़ें – बहस-तलब : ‘धर्मयुद्ध’ बनाम दलित-बहुजनों की अपनी लड़ाई

भारत की धरती पर अपनी मेहनत और पसीने से रोटी कमाने वाली ऐसी कौन सी जाति है जिसके बारे में किताबें लिख-लिखकर घृणा नहीं व्यक्त की गई हो। एक स्थायी घृणा क्योंकि वे लोग अपने लिए एक स्थायी सम्मान की व्यवस्था बनाना चाहते थे। क्यों भारत में शूद्र एक घृणित समुदाय बनाया गया और क्यों आज तक उसके प्रति घृणा फैलाई जा रही है। क्यों उस घृणा को स्थायित्व देने के लिए पुस्तकें लिखी गईं और क्यों उन पुस्तकों को धार्मिक व्यवस्था का एक हिस्सा बनाया गया ? क्यों आज तक घृणा की शिकार क़ौमें गर्त में ही पड़ी हुई हैं। क्यों वे आज भी अपने से घृणा करनेवालों के राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक बनी हुई हैं? क्यों वे अपने उत्पीड़कों, अपने शोषकों और अपने से घृणा करने वालों के खिलाफ निर्णायक रूप से खड़ी नहीं हो पा रहीं हैं? इसके मूल कारणों की तरफ जाना पड़ेगा और वे कारण अब अदृश्य नहीं रह गए हैं। 

हमारे सामने रोम के गुलामों की कहानियां हैं। अफ्रीका और अमेरिका में नस्लवाद के शिकार कालों की कहानियां हैं। उन पर बरसाए जाते कोड़ों की कहानियां हैं । उनके खून के एक एक कतरे को चूस लेने वाले शोषकों की कहानियां हैं। रोम के विशाल चर्चों और महलों के लिए पत्थर ढोते और तराशते लोगों की कहानियां हैं। बेबीलोन, मिस्र, मेसोपोटामिया और यूनान के गुलामों की कहानियां हैं। इन सब ने जुल्म की इंतेहा झेली लेकिन बाद में सभ्यताएं भी मिटीं और गुलाम भी आज़ाद हुए लेकिन उसके मुक़ाबले भारत के मेहनतकश लगातार हजारों साल से चली आ रही घृणा का मुक़ाबला क्यों नहीं कर पाए। यहां समूची की समूची जातियां घृणा के लपेटे में हैं लेकिन उससे बाहर नहीं निकल पा रही हैं, इसके क्या कारण हो सकते हैं? बहुत ध्यान से देखिये। यूनान, मिस्र, रोम, मेसोपोटामिया, बेबीलोन, अमेरिका या अफ्रीका में कोड़ों की भयानक मार से खाल खींच लेनेवाले शोषकों ने भी उन गुलामों के खिलाफ ग्रंथ नहीं लिखे। उन्होने उन्हें जेलों में बंद करके नारकीय यातनाएं दीं, लेकिन उनके खिलाफ किसी मनुस्मृति की रचना नहीं की, जिसमें कहा गया हो कि शूद्र को बचा-खुचा जूठा भोजन और फटे हुए कपड़े ही देने चाहिए। 

उच्छिष्टमन्नं दातव्यं जिर्णानि वसनानि च। पुलाकाश्चैव धान्यनां जीर्णाश्चैव परिच्छदा: ॥ 

दुनिया को गुलाम बनानेवाले शोषक चाहे जितने भी निकृष्ट और पतित रहे हों लेकिन वे भारतीय शोषकों से बहुत ऊंचे थे। उन्होंने गुलामों से दूरी भले ही रखी हो, भले ही उन्हें मारा-पीटा हो लेकिन उनके खिलाफ घृणा को स्थायी बनाने के लिए किताबें नहीं लिखी। और गुलामों ने इसीलिए उनके कोड़ों का मुक़ाबला कर लिया और उनकी व्यवस्था को उखाड़ फेंका क्योंकि कोड़े पीठ पर पड़ रहे थे। भारत में गुलामों के मन-मस्तिष्क पर कोड़े मारे गए। उनके दिमाग में घृणा का मवाद भर दिया गया और वे उसका आज तक मुक़ाबला नहीं कर पाए हैं। 

लेकिन उन्होंने लड़ने की जुगत नहीं छोड़ी है। उनके बीच से लगातार इस घृणा के खिलाफ लड़ने वाले योद्धा निकलते रहे हैं। उन्होंने अपने-अपने दौर में इसके खिलाफ लंबी लड़ाई छेड़ी बेशक उसमें पूरी तरह उन्हें सफलता नहीं मिली। इसलिए भी कि उनके समाजों ने उनका साथ नहीं दिया। साथ तो दूर की बात है अपने दुखों को दर्ज तक नहीं किया। लेकिन जिस दिन सब के सब ग्रन्थों और दिमागों में भरी घृणा के खिलाफ खड़े होंगे विजय उनकी होगी। उनके धूल-धूसरित नायक आकाश में चमकने लगेंगे। यह उनका वर्ग संघर्ष है क्योंकि वे तो गुलाम और बिना दाम के नौकर हैं, उत्पादक हैं, प्रहरी हैं, रक्षक हैं। जो लोग उनकी कमाई पर ऐश कर रहे हैं वे उनके शोषक वर्ग हैं। और हलकू, शंकर, होरी, गोबर, नेऊर को अपने शोषकों के पीठ पर ही नहीं दिमाग पर भी पड़े कोड़े का मुक़ाबला करना पड़ेगा। बालदास को गांधीवादी विनम्रता छोडनी पड़ेगी। ‘मलिकार की मार’ खाते डोमों को मालिकार की घृणा का मुक़ाबला करना पड़ेगा। 

मुझे लगता है कि कार्ल मार्क्स का महान सिद्धान्त ‘वर्ग संघर्ष’ सबसे ज्यादा भारत में परिलक्षित होता है और काम कर रहा है लेकिन भारत के अंधे मार्क्सवादियों ने इसे कभी देखने और समझने की जहमत नहीं उठाई। एक और बात अभी फरिया लेना चाहिए कि भारतीय मार्क्सवादी वास्तव में अंधे नहीं हैं बल्कि अंधे होने का ढोंग कर रहे हैं। जब कोई धूर्त और जंगरचोर व्यक्ति बिना मेहनत किए खाने की जुगत करता है तो वह लोगों के मन में अपनी स्थिति के लिए गहरी सहानुभूति पैदा करता है। इसमें अंधेपन का ढोंग करना भी एक तरीका होता है। लेकिन भारतीय मार्क्सवादी इससे भिन्न प्रकार की अंधता का विनिर्माण करते हैं। वे वर्ग विभाजन की सबसे बड़ी भारतीय विशेषता जाति-व्यवस्था को न तो समझना चाहते हैं और ना ही उसे नष्ट करने की निर्णायक लड़ाई ही छेड़ना चाहते हैं बल्कि अपनी सारी की सारी बौद्धिक क्षमता लगाकर अधिक से अधिक इस दुर्दमनीय व्यवस्था को खरबोट लेना चाहते हैं। खरबोटना बिल्ली या लोमड़ी प्रजाति की प्राणियों का ऐसा गुण है जिससे वे अपने शत्रुओं को धमकाती हैं। कुछ मनुष्यों में भी खरबोटने का गुण होता है। लेकिन जाति-व्यवस्था खरबोटने की वस्तु नहीं है बल्कि हथौड़ा, सब्बल और गैंता के बेरहम प्रहार से नष्ट किए जाने की चीज है। खरबोटने का परिणाम यह होगा कि जाति-व्यवस्था कभी न कभी खरबोटने वाले पर मरणान्तक प्रहार करेगी। इसलिए उसे घायल सांप की तरह छोड़ना नहीं चाहिए। पिछले कई वर्षों से हमारे बहुजन विद्यार्थी मित्रों ने अपने ऐसे अनुभव सुनाये जो उनके मार्क्सवादी गुरुजनों को जाति को लेकर दोहरे रवैये को लेकर थे। पठन-पाठन से लेकर तरफदारी की उनकी कोशिशें स्वजातीय विद्यार्थियों को लेकर अलग और परजातीय विद्यार्थियों को लेकर अलग होती थी। वे भारतीय शास्त्रों और लोक में प्रचलित मुहावरों के वशीभूत होकर परजातीय विद्यार्थियों के प्रति अपनी नफरत को उड़ेलते रहते हैं। 

मूल बात यह है कि भारत में जातिगत विद्वेष और नफरत मूल और स्थायी भाव है। जो लोग जातिगत विद्वेष और नफरत का भाव रखते हैं उनके विरुद्ध इसके शिकार लोगों ने सतत संघर्ष किया है। जातियों के बीच विद्वेष और नफरत की भावना के विरुद्ध भी संघर्ष होता रहा है। और यह केवल अवधारणात्मक और परिकल्पनात्मक संघर्ष नहीं रहा है बल्कि इसमें आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक विशेषाधिकारों के विरुद्ध वास्तविक संघर्ष शामिल रहा है। यह सब वास्तव में वर्चस्वशाली वर्गों के विरुद्ध वर्ग संघर्ष ही था लेकिन इसे वर्ग संघर्ष क्यों नहीं माना गया यह सबसे बड़ा सवाल है। जबकि स्वयं कार्ल मार्क्स ने भारत संबंधी अपने लेखों में इसे अत्यधिक जड़ और संगठित समाज कहा है जिसकी संरचना को क्षतिग्रस्त किए बिना यहां क्रांति की कोई संभावना नहीं है। मार्क्स और एंगेल्स ने क्लासिकल मार्क्सवाद की अवधारणाओं अपने ही जीवन में उन जगहों पर फ्लॉप होते देखा जहां उन्हें भरोसा था कि औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप विशाल संख्या में सर्वहारा पैदा हो रहे हैं और उनका वर्ग बन रहा है। लेकिन बाद का इतिहास साबित करता है कि कॉमरेड लेनिन, माओ त्से तुंग और हो ची मिन्ह ने अपने देश की सामाजिक संरचना के आधार पर लडाई के तरीके विकसित किये और विजय पाई। माओ त्से तुंग का प्रसिद्ध लेख ‘मौजूदा चीन में वर्गों की स्थिति’ इसका अविस्मरणीय उदाहरण है कि कोई भी बड़ा संघर्ष शुरू करने से पहले उसके नायक स्थितियों का आकलन करते हैं। किसी ने कहा है कि जनता निर्णायक रूप मैदान में उतरने से पहले सारी लड़ाइयों को कागज़ पर लड़ती है। 

इसलिए हमारे सामने क्या कार्यभार है? जो दुनिया हमें मिली वह हमें क्या सिखाती है? दरअसल उसने मनुष्य के रूप में हमें विराट मानवता का अनमोल हिस्सा नहीं होने का अहसास नहीं दिलाया बल्कि किसी एक जाति का व्यक्ति होने का एहसास कराया है। जाने-अनजाने उसने हमें उस घृणा का शिकार बनाया जो एक परंपरा के रूप में चली आ रही थी। हो सकता है कभी-कभार वह उपरी व्यवहारों की मुलायमियत में छिप गई हो लेकिन जैसे ही मनुष्य को इतनी आज़ादी की जरूरत महसूस हुई कि वह खुलकर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करे और नयी उपलब्धियां हासिल करे वैसे ही छिपी हुई घृणा बहकर बाहर आ गई। सारा संघर्ष यहीं है। आप किसी तरह की गतिविधि में शामिल होइए लेकिन पहले से बनी-बनाई व्यवस्था को चुनौती मत दीजिये। उस व्यवस्था में शामिल लोगों के विशेषाधिकारों पर उंगली मत उठाइए क्योंकि वे लोग अब तक इसीलिए आपको अपना शत्रु नहीं मान रहे थे, क्योंकि आपने अपने आपको उनके लिए खतरनाक नहीं साबित किया था लेकिन अब मामला पलट गया। आपने उन्हें असुरक्षाबोध करा दिया। वे बुरी तरह डर गए और अब आपसे लड़ने का उनके पास सबसे कारगर हथियार घृणा है। चाकू-छुरे, गोली-बंदूक तो बाद में काम आएंगे और हो सकता है वह आपके भी पास हों लेकिन ये सब चला तो वही सकेगा जिसके दिल-दिमाग में घृणा भरी हो। और घृणा आप खरीदकर नहीं ला सकते। यह विरासत में मिलती है। जिनके अग्रज-पूर्वज अपनी सत्ता और ताकत बचाने के लिए आजन्म घृणा करते रहे वे ही वास्तव में घृणा कर भी सकते हैं। उनका भोथरा चाकू भी आपका पेट चीर सकता है और आपकी बारह बोर की बंदूक बेकार साबित हो सकती है क्योंकि आपने घृणा का शिकार होना सीखा है। आपने घृणा का दंश झेला है लेकिन घृणा को हथियार बनाना नहीं सीखा है। जैसे आपके विरोधी ने अपने अस्तित्व और वर्चस्व के लिए घृणा का विध्वंसक उपयोग करना सीखा ठीक वैसे ही आपने घृणा का रचनात्मक उपयोग करना नहीं सीखा। और यही आपकी सबसे बड़ी पराजय है। 

और इस दृश्य को प्रेम से नहीं बदला जा सकता। यहां प्रेम वह असहयोग आंदोलन साबित होगा कि जिसमें भ्रम आगे जाने का होगा लेकिन वस्तुतः मामला पीछे जाता है। सबसे पहले तो यह बताना जरूरी है कि तुमने मेरे लिए जो सुभाषित लिखकर प्रचारित किये, हमें उसकी पूरी जानकारी है। तुम कैसा देश बनाए हुये हो यह भी हमें पता है और अब वास्तव में हम जान गये हैं कि तुमने हर प्रकार की घृणा से हमें नियंत्रित किया है। तुम जब देश कहते हो तो इसका मतलब तुम्हारा कुनबा होता है। तुम आज़ादी का आलाप लेते हो तो हम समझ जाते हैं कि तुम हमारी न्याय की मांग को कुचलने के लिए षड्यंत्र शुरू करने जा रहे हो। जब तुम समरसता की बात करते हो तो हमें पता चल जाता है कि तुम हमें विखंडित और कमजोर करने का काम तेजी से कर रहे हो। 

असल में इस घृणा को सही ढंग से चिन्हित करके अपने समाजों के गर्त में धकेले जाने की सारी बहुरेखीय कहानियों को लिखने का समय अब आया है। इस पूरे इतिहास में से बक़ौल गालिब ‘खाक में पिनहाँ सूरतों’ को निकालने का समय आज है। अहीर, गड़ेरिया, कुनबी, कोइरी, डोम, धरकार, नाई, पासी, खटीक, कलवार, राजभर, दुसाध, धोबी, कहार, धुनिया, कोली, दर्जी, ताँती और बुनकर जैसे सैकड़ों समाजों के भीतर यह सवाल उठने लगे हैं कि उनको दबाने में कितनी घृणा इस्तेमाल की गई है, तब सबसे पहले तो वे अपनी वास्तविक हैसियत का आकलन कर सकेंगे और दूसरे वे अपने उन पूर्वजों को भी रेखांकित कर सकेंगे जिन्हें बोलने की भी आज़ादी नहीं थी। जिनके बारे में कबीर कहते थे कि इनकी ‘अति की चुप’ इस समाज का भला नहीं कर सकती। इसे बोलना पड़ेगा। लेकिन चुप्पी इतनी भयानक थी कि डरावनी हो गई थी। लगता था मानो सारी ज़बानें काटकर एक जगह फेंक दी गई हो। मानो उन मूक लोगों की ज़बानों का एक विशाल घूरा इकट्ठा हो गया हो। उनकी वर्तमान पीढ़ियों को उन ज़बानों को उठा-उठाकर देखने और जांचने की जरूरत है कि इनमें से क्या आवाज निकली होगी। किस भाषा में निकली होगी? क्या मुद्दा रहा होगा? और मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि बेमिसाल कहानियों का दौर आएगा। घृणा करने वालों और घृणा का शिकार होनेवालों का लोमहर्षक संघर्ष यानी जुल्म और प्रतिरोध के कई अविस्मरणीय उपन्यासों की शक्ल लेने लगेगा। यथार्थ बिखरा है और भाषा भी वातावरण में घुली मिली है। बस हाथ बढ़ाने और छू लेने की जरूरत है । 

घृणा करनेवाले इतने कमजोर होते हैं कि वे इस बात से डरते हैं कि अब आप उनको पहचान रहे हैं। वे इस बात से खौफ खाते हैं कि आप उनकी घृणा को पहचानने लगे हैं। उनके लिए यह असहज करने वाली स्थिति है कि आप भी उनको वही लौटाने जा रहे हैं जो उन्होंने सदियों से आप पर लादा। आप न केवल अपने दिल-दिमाग से वह बोझ उतारकर फेंकने जा रहे हैं बल्कि अपने वातावरण से इस कूड़े को बटोरकर उनकी पीठ पर लादने जा रहे रहे हैं जैसे कोई गदहलद अपने गधों की पीठ पर मिट्टी लादता है। और आपकी ऐसी मंशा भर भांपकर वे मारे घबराहट के प्रेम की कहानियां सुनाने लगते हैं। वे ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की दुहाई देने लगते हैं, लेकिन आपको याद रखना है कि उस वसुधा पर आप एक नीच कमीन भर थे जो न जाने कब से उनकी घृणा का शिकार होते हुये उनको अपनी मेहनत की कमाई से पालपोस रहा था। वे उसी वसुधा को बचाने का गुहार लगा रहे हैं, लेकिन आपको झांसे में नहीं आना है। आपको उनकी हरामखोरी और शातिर दिमाग से घृणा करना है। यही आपका वर्ग संघर्ष है क्योंकि आप तो हैं ही उत्पादक। आपने अपने परिश्रम से बनाई ही है यह समृद्ध दुनिया। यह भरा-पूरा देश। लेकिन आप विनम्र थे और वे आपसे इसीलिए घृणा कर रहे थे। लेकिन अब आप जान गए हैं। 

वे आपके संघर्ष की कहानियों से डरते हैं। वे आज तक आपके दर्द, आपके अभाव और आपकी त्रासदियों को नियति का परिणाम बताते रहे हैं। आपकी गरीबी और दरिद्रता को पूर्वजन्म से जोड़ते रहे हैं लेकिन जब आप कहने पर उतर जाएंगे कि मैं यह सब बिलकुल नहीं मानता। वे अब तक हवा में नकली कहानियां फैलाये हुये थे। वे उनसे ही अपना सौंदर्यशास्त्र गढ़े हुये थे, लेकिन अब जब आप कहना शुरू करेंगे तो वह सौंदर्यशास्त्र ढह जाएगा। 

बस आप कहना शुरू तो कीजिये। दुनिया भर के कथानक आपका इंतज़ार कर रहे हैं!

(संपादन : नवल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

रामजी यादव

रामजी यादव एक राजनितिक कार्यकर्ता के रूप में विभिन्न संगठनों में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने कानपुर के मिल मज़दूरों और रेलवे कर्मचारियों को संगठित करने में भी भूमिका निभाई। उन्होंने 100 से अधिक वृत्तचित्रों का निर्माण और निर्देशन भी किया है। उनके प्रमुख वृत्तचित्र हैं 'गाँव का आदमी', 'पैर अभी थके नहीं', 'एक औरत की अपनी कसम', 'यादें', 'समय की शिला पर', 'कालनदी को पार करते हुए', 'विकल्प की खोज', 'वह समाज जो जनता का है', 'जलसत्ता', 'द कास्ट मैटर्स', और 'इस शहर में एक नदी थी' आदि। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं, 'अम्बेडकर होटल', 'खेलने के दिन', 'भारतीय लोकतंत्र' और 'दलित सवाल', 'भारतेंदु', 'ज्योतिबा फुले', 'गिजुभाई', 'रामचंद्र शुक्ल', 'आंबेडकर संचयन'। इन दिनों वे ‘गांव के लोग’ त्रैमासिक का संपादक कर रहे हैं।

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