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समतावादी थी भारत लेनिन जगदेव प्रसाद की राष्ट्र संंबंधी अवधाराणा

डॉ. भीमराव आंबेडकर का कहना सही था कि भारत एक राष्ट्र न होकर कई राष्ट्र हैं। भारत की एक राष्ट्रीयता इसकी दूसरी राष्ट्रीयता को हेय दृष्टि से देखता है, उसे दूसरे दर्जे का नागरिक समझती है, या उसे नागरिक ही नहीं समझती। उसे इन्सान ही मानने को तैयार नहीं है। जगदेव प्रसाद ने द्विजों के इन्हीं राष्ट्रीयता की चुनौती दी थी। बता रहे हैं अनिल कुमार

जगदेव प्रसाद (2 फ़रवरी, 1922 – 5 सितम्बर, 1974) पर विशेष

शिक्षा सिर्फ पढ़ने-लिखने की काबिलियत ही नहीं देती, बल्कि वह सोचने-समझने की क्षमता भी बढ़ती है। शिक्षित आदमी समाज को नयी दृष्टि से देखता है, समाज की वास्तविक समस्याओं को समझता है और उनके समाधान भी सुझाता है। फिर इसी से  समतावादी समाज की अवधारणा का निर्माण होता है। हमारे देश को औपनिवेशिक गुलामी से आजाद हुए बेशक सात दशक से अधिक समय बीत चुका है लेकिन अभी भी शासन और प्रशासन में दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों की भागीदारी समानुपातिक नहीं है। असली समस्या यह है कि बहुजनों के पास चिन्तकों की कमी है. और जो हैं उन्हें यह समाज अपने पिछड़ेपन की वजह से नहीं पहचान पाता और तवज्जो नहीं देता। इसका मूल कारण एक ही है – शिक्षा से वंचित होना। और वंचित करने वाला इस देश का ब्राह्मण और सवर्ण समाज है। इसकी वजह यह कि वंचित तबकों में राजनेता जरूर हुए लेकिन सबकी अपनी सीमा रही। परंतु, भारत के लेनिन जगदेव प्रसाद इसके अपवाद थे। डॉ. आंबेडकर के बाद वे ऐसे चिंतक के रूप में सामने आए जिन्होंने राजनीतिक सत्ता से अधिक सामाजिक और सांस्कृतिक सत्ता पर अधिकार की बात कही।

भारत लेनिन जगदेव प्रसाद (2 फ़रवरी, 1922 – 5 सितम्बर, 1974) का व्यक्तित्व क्रन्तिकारी था। वैचारिक रूप से वे इतने संपन्न थे कि वे केवल बिहार तक सीमित नहीं रहे। दूसरे राज्यों के आन्दोलनरत साथी उनको अपने कार्यक्रमों में बुलाते, उनसे विचार-विमर्श करते और उनसे आवश्यक दिशा-निर्देश प्राप्त करते थे। उनका प्रभाव पूरे उत्तर भारत में था। यह उनके क्रन्तिकारी विचारों का ही प्रभाव था कि अमेरिकी और रुसी इतिहासकारों और पत्रकारों ने उनके साक्षात्कार अपने देशों में छापे और बताया कि भारत के सवर्ण समुदाय भारत को जैसा दिखाते और बतातें हैं, वैसा नहीं है। 

भारत लेनिन जगदेव प्रसाद भारत को सच्चे अर्थो में सर्वहारा की दृष्टि से देखते थे। उनका आरोप था कि मार्क्सवाद में कोई समस्या नहीं है बल्कि समस्या भारतीय मार्क्सवाद में है, जिसकी जड़ें सवर्णवाद और ब्राह्मणवाद में है, क्योंकि इन्हीं लोगों ने इस पर अपना कब्ज़ा जमा लिया है। शोषित, वंचित, पिछड़े और बेसहारो की वह प्रमुख आवाज थे। यही कारण था कि बिहार के सामंतों ने उनकी हत्या उस समय कर दी जब वह एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे।

दीवारों पर लिखी इबारत : जगदेव प्रसाद (2 फ़रवरी, 1922 – 5 सितम्बर, 1974)

जगदेव प्रसाद सबसे अधिक जोर शिक्षा पर देते थे। उनका कहना था कि शिक्षा पर सबका बराबर का अधिकार है चाहे वह स्टूडेंट्स के रूप में हो या शिक्षक के रूप में। उनका सपना शिक्षा का सर्वव्यापीकरण और जनतंत्रीकरण था। उनके इस विचार के पीछे फुले दंपत्ति द्वारा 19वीं सदी में जलाई गई मशाल की रोशनी थी। यह अकारण नहीं था कि जब राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फुले स्कूल पढ़ाने जाती थी तब द्विज/ सवर्ण समाज उन पर गोबर और कीचड़ फेंकता था और यह भी अकारण नहीं था कि जब अंग्रेजों ने शिक्षा को सार्वभौमिक करने की कोशिश की तब द्विज/ सवर्ण समाज ने उसका विरोध किया (फंडामेंटल्स ऑफ तिलक नेशनलिज्म डिस्क्रिमिनेशन, एडुकेशन एंड हिदुत्व, प्रो. परिमाला वी राव, ओरियेंट ब्लैकस्वान, 2020)

यह भी पढ़ें : मुझे सवर्णों की राजनीतिक हलवाही नहीं करनी है : जगदेव प्रसाद

जगदेव प्रसाद कहतें हैं कि “राष्ट्रीयता और देशभक्ति का पहला तकाजा है कि कल का भारत नब्बे प्रतिशत शोषितों का भारत बन जाए।” (बोकारो, अक्टूबर 31, 1969, देखें ‘जगदेव प्रसाद वांग्मय’ द्वारा डा. राजेंद्र प्रसाद और शशिकला, सम्यक प्रकाशन, 2011). उनकी यह मांग सिर्फ सरकारी नौकरियों तक ही सीमित नहीं थी। उनकी मांग थी कि “सामाजिक न्याय, स्वतंत्रता और निष्पक्ष प्रशासन के लिए सरकारी, अर्द्ध सरकारी और गैर-सरकारी नौकरियों में कम-से-कम 90 फीसदी जगह शोषितों के लिए सुरक्षित कर दी जाय।” (बिहार विधानसभा, अप्रैल 02, 1970) साथ ही “राजनीति में (भी) विशेष अवसर सिद्धांत लागू हो।” (रुसी इतिहासकार पाल गार्ड लेबिन से साक्षात्कार, फ़रवरी 24, 1969)

डॉ. भीमराव आंबेडकर का कहना सही था कि भारत एक राष्ट्र न होकर कई राष्ट्र हैं। भारत की एक राष्ट्रीयता इसकी दूसरी राष्ट्रीयता को हेय दृष्टी से देखती है, उसे दूसरे दर्जे का नागरिक समझती है, या उसे नागरिक ही नहीं समझती। उसे इन्सान ही मानने को तैयार नहीं है। जगदेव प्रसाद ने द्विजों की इसी राष्ट्रीयता की चुनौती दी थी।

(संपादन : नवल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

अनिल कुमार

अनिल कुमार ने जेएनयू, नई दिल्ली से ‘पहचान की राजनीति’ में पीएचडी की उपाधि हासिल की है।

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