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गुण और अवगुण दोनों के साथ हमेशा याद किए जाएंगे रामविलास पासवान

रामविलास पासवान के उत्तरकाल में दलित उनके लिए केवल वोट बन गए थे। वे उनके सवालों को लेकर खामोश ही रहे। फिर चाहे दलितों के खिलाफ कोर्ट से आए आदेश हों, संविधान पर हमला हो या ऊना में हुई लिंचिंग। बता रहे हैं बापू रावत

भारत में राजनीति को जानने-समझने वाला शायद ही ऐसा कोई  होगा जो रामविलास पासवान को न जानता हो। उन्होने अपने जीवन में सामाजिक और राजनीति की लंबी पारी खेली। बीते 8 अक्टूबर, 2020 को ऐन मान्यवर कांशीराम के महापरिनिर्वाण दिवस के दिन रामविलास पासवान का निधन हो गया। वे लंबे समय से बीमार चल रहे थे। भारत में सबसे ज्यादा करीब  4 लाख 24 हजार वोटों के अंतर से जीतनेवाले सांसद  (1977) का रिकार्ड उनके नाम पर है। इतना ही नहीं, 6 प्रधानमंत्रियों के साथ काम करने का अनूठा रिकार्ड भी उनके ही नाम है। 1970-90 के दशक में जिन नेताओं ने राजनीति के मुख्य प्रवाह में सामाजिक न्याय के एजेंडे को केंद्रीय एजेंडा बनाने का काम किया, उनमें रामविलास पासवान का नाम शामिल है। भूतपूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के मंत्रिमंडल के सबसे चर्चित चेहरे रामविलास पासवान ने ही मंडल आयोग संबंधी विधेयक को सदन में रखा। उन्होंने इसे लागू करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इसके अलावा अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति अत्याचार निरोधी  कानून के संबंध में उनके योगदान के कारण उन्हें सामाजिक न्याय का मसीहा भी कहा जाने लगा था।

    

समाजवादी आंदोलन से उभरे रामविलास पासवान बिहार के प्रमुख नेता के तौर पर उभरे और उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में अपनी विशेष जगह बना ली थी। वे वंचित वर्ग की आवाज बन गए थे। डॉ. राममनोहर लोहिया, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर और जोतीराव फुले के विचारों को अमल में लाने की बात उनके भाषणों में दिखाई देती थी। बाबासाहब के विचारों के चलते ही वे गांधी की हरिजन संबंधी मान्यताओं के विरोधी बन गए।  लेकिन क्या अपने इन आदर्शो पर पासवान अटल रहे? 

स्मृति शेष  : रामविलास पासवान (5 जुलाई, 1946 – 8 अक्टूबर, 2020)

पुरातनमतवाद, वर्णवाद, हिंदुत्व, जातिवाद समर्थक एवं सामंतीवादी विचारों की जननी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की विचारधारा को अमल में लाने वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ गंठजोड़ करना उनके अवसरवादी होने का परिचायक था। ऐसा कर क्या उन्होंने दलित आंदोलन की दिशा को मोड़ने की कोशिश नहीं की?  इस सवाल का जवाब यही है कि बेशक वे अवसरवादी बन गए थे। वे डॉ. आंबेडकर के “सेवक (गुलाम) नहीं, शासक बनो” की नीति विपरीत पूरे आंदोलन को हिन्दुत्व की भट्ठी में झोंक देना चाहते थे। उनके इस राजनीतिक व्यवहार को आंबेडकरवादी व्यवहार और उन्हें आंबेडकरवादी नेता कैसे कहा जा सकता है? यह सवाल केंद्रीय मंत्री रामदास आठवले के लिए भी है। मेरा मानना है कि बंद कमरे में रहकर राजनीति करनेवाले नेताओं पर भी सवाल उठाए जाने चाहिए। मुमकिन है कि स्वार्थपरक ताकतों को इसमें भी कुछ खास की प्राप्ति होती हो लेकिन सत्य तो यही है कि इन नेताओं के अवसरवादी बनने से पूरे समुदाय को नुकसान उठाना पड़ता है। यह करोड़ों दलितों के साथ किया गया धोखा है। उनका अवसरवाद उन्हे दलितों के अत्याचारों पर चुप (खामोश) रहना सिखाता है। दलितों की मांगें उन्हें अपनी नहीं लगतीं। संसद में वे दलितों के प्रतिनिधि के रूप में अन्याय के खिलाफ और उनके विकास पर सवाल करने के बजाय केवल बैठे रहते हैं। 

रामविलास पासवान का उत्तरकाल कुछ ऐसा ही था। उनके लिए आंबेडकर दलितों का वोट पाने का जरिया और दलित केवल वोट बन गए थे। वह दलितों के खिलाफ कोर्ट से आए आदेश हों, संविधान पर हमला हो या ऊना में हुई लिंचिंग हो – रामविलास पासवान खामोश रहे। वे कांशीरामजी के समकालीन रहे, सत्ता में सदा रहे, लेकिन आंबेड़करवादी होने की मान्यता प्राप्त नहीं कर सके। शायद, अपने लोगों के खिलाफ जाकर भी सत्ता में बने रहने की उनकी अवसरवादिता इसकी बड़ी वजह है।  लेकिन बिहार के खगड़िया जिले के सहरबन्नी गांव से शुरू हुई संघर्ष की उनकी जीवन यात्रा सत्य है। भारत के लोग उनके इस संघर्ष को उनके गुणों व अवगुणों के साथ हमेशा याद रखेंगे।  

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

बापू राउत

ब्लॉगर, लेखक तथा बहुजन विचारक बापू राउत विभिन्न मराठी व हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लिखते रहे हैं। बहुजन नायक कांशीराम, बहुजन मारेकरी (बहुजन हन्ता) और परिवर्तनाच्या वाटा (परिवर्तन के रास्ते) आदि उनकी प्रमुख मराठी पुस्तकें हैं।

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