“ऐसा लगता है मानो एक यायावर भौतिक दुनिया से चला गया जो तालाबंदी के दौरान ज़्यूरिख़ की यात्रा में था। अब जिसकी सदेह यात्रा तालाबंदी न रोक सकी, उसकी शब्द-यात्रा कौन रोक सकता है।” यह कहना है चर्चित जनकवि मंगलेश डबराल के संबंध में दिल्ली की जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय में हिंदी की प्रोफेसर व चर्चित साहित्यकार हेमलता महिश्वर का।
पत्रकार और साहित्यकार मंगलेश डबराल
विदित है कि चर्चित जनकवि मंगलेश डबराल का निधन बीते 9 दिसंबर को दिल्ली के एम्स में हो गया। वे कोरोना से संक्रमित हो गए थे। 16 मई, 1948 को उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल ज़िले में एक छोटे से गांव काफलपानी में जन्मे मंगलेश डबराल की शिक्षा-दीक्षा देहरादून में हुई। शिक्षा पूरी करने के बाद वो दिल्ली आ गए जहां ‘हिंदी पेट्रियट’, ‘प्रतिपक्ष’ और ‘आसपास’ में काम किया। इसके बाद वो मध्य प्रदेश कला परिषद् से जुड़े।

वर्ष 1983 में वे ‘जनसत्ता’ में साहित्य संपादक बने। इसके अलावा कुछ दिन उन्होंने ‘अमृत प्रभावत’ और ‘सहारा समय’ में भी काम किया। आख़िर में वे नेशनल बुक ट्रस्ट से जुड़े। मंगलेश डबराल के 5 काव्य संग्रह ‘पहाड़ पर लालटेन’, ‘घर का रास्ता’, ‘हम जो देखते हैं’, ‘आवाज भी एक जगह है’ और ‘नये युग में शत्रु’ प्रकाशित हुए। मंगलेश डबराल के दो गद्य संग्रह, ‘लेखक की रोटी’ और ‘कवि का अकेलापन’ भी छपे। साथ ही उन्होंने एक यात्रावृत्त भी लिखा है जिसका शीर्षक था ‘एक बार आयोवा’।

उनका जाना हिंदी कविता जगत के लिए किसी आघात से कम नहीं हैं। लेकिन वो जो सहित्यिक बीज रोप कर गए हैं उसे वृक्ष बनने से भला कौन रोक सकता है। हेमलता महिश्वर के शब्दों में कहें तो, “यात्रा कभी ख़त्म नहीं होती है। व्यक्ति हो या न हो, तब भी यात्रा बस चलती रहती है। सशरीर यात्रा तो बस कुछ लोगों तक सीमित होती है पर शब्दों की यात्रा सार्वभौमिक और सार्वकालिक बनी रहती है।”
हमेशा याद किए जाएंगे मंगलेश : प्रेमकुमार मणि
शब्दों की यात्रा भले न रुके लेकिन किसी के देह छोड़ने का आघात तो होता ही है। अब अगर देह छोड़ने वाला मंगलेश डबराल जैसा व्यक्ति है तो आघात गहरा होना लाज़िमी है। बहुजन चिंतक, साहित्यकार और बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य प्रेमकुमार मणि कहते हैं कि “मंगलेश मज़दूरों की, कमज़ोरों की, वंचित तबक़ों की आवाज़ थे। आज कितने कवि ऐसे हैं जो इन मूल्यों की बात करते हैं। उनके बिना हिंदी कविता बहुत दिन तक उदास रहेगी। हाशिए पर पड़े लोग हों या साहित्य से जुड़े लोग, उनकी कमी महसूस करते रहेंगे।”

लेकिन देह त्यागने का मतलब ये तो क़तई नहीं है कि आवाज़ भी शांत हो जाए। हेमलता महिश्वर के मुताबिक़, “मंगलेश डबराल एक ऐसा ही रचनाकार है जो कब्र में रहकर भी बाहर मौजूद बना रहेगा। वह ‘शम्पा’ की सी चौंध हैं जो गद्य-पद्य दोनों को साधे बैठे थे। वे तो ‘पहाड़ पर लालटेन’ हैं जिससे ‘घर का रास्ता’ देखा जा सकता और फिर ‘हम जो देखते हैं’ तो पाते हैं कि ‘आवाज भी एक जगह है’।”
मंगलेश होने की अहमियत
मंगलेश होना आसान नहीं है। एक छोटे से पहाड़ी गांव से निकल दिल्ली की दौड़ती ज़िंदगी से सामंजस्य बैठाना और फिर ऐसी भागदौड़ में जनसरोकार से जुड़े रहना कितने लोग कर पहता हैं?
प्रेमकुमार मणि कहते हैं कि “मंगलेश न सिर्फ समकालीन हिंदी कविता के मिज़ाज को बदला है बल्कि वो रघुवीर सहाय की परंपरा के कवि हैं। मंगलेश जनता की धड़कन, उसकी पीड़ा को समझने वाला या उसकी लय के साथ चलने वाला कोई दूसरा कवि नहीं है हिंदी भाषा में।”
हेमलता महिश्वर प्रेमकुमार मणि की ही बात को आगे बढ़ाती हैं। वे कहती हैं कि “जब हिंदी के जन कट्टर राष्ट्रवादी हो गए तो उन्होंने स्वयं को ऐसी हिन्दी का आदमी मानने से इंकार कर दिया था। लोग बिछे रहे सत्ता के सम्मुख और मंगलेश जी तनकर खड़े हो गए। उनकी कविता में लोकतंत्र की बसावट है। नोटबंदी हो या तालाबंदी, मज़दूरों की घर वापसी का दर्दनाक मंज़र हो या किसान की बेक़द्री, मंगलेश जी की पक्षधरता आम जन के साथ बनी रही।”
मंगलेश के बाद …
प्रेमकुमार मणि कहते हैं कि “मंगलेश सेक्युलर विचार के थे, वो भारत को समझते थे और जानते थे भारत को कैसे रहना है। ऐसे समय में जबकि भारत तमाम चुनौतियों का सामना कर रहा है, जिस तरह हमारे सामने तमाम तरह के संवैधानिक संकट हैं, ऐसे में उनका जाना ऐसा लगता है मानो एक सांस्कृतिक प्रहरी चला गया है।
“आइडिया ऑफ इंडिया में यक़ीन रखने वाले अब कितने ही लोग बचे हैं? ज़ाहिर है जो बचे हैं उन तमाम लोगों की ज़िम्मेदारियां अब और बढ़ गई हैं। उन्हें अपनी आवाज़ और भारी करनी होगी। कितनी भारी? ज़ाहिर है इतनी कि हम उस स्वर की भरपाई कर सकें जो हमारे बीच नहीं है। जाने वाला कोई हलका-फुलका आदमी नहीं था। वो लोगों के बीच हलका बना ज़रूर रहता था।” हेमलता महिश्वर समझाती हैं कि “हल्के बने रहनेवाले लोग बहुत वज़नदार होते हैं। अब उतना ही वज़न हमें अपनी आवाज़ में जुटाना है ताकि ग़रीब, मज़लूम और हाशिए पर पड़े लोग अपनी आवाज़ को हलका न समझने लगें।”
(संपादन : नवल)
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