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आदिवासी विकास का नहीं, आदमखोर, धरतीखोर, मुनाफाखोर विकास का विरोधी है : महादेव टोप्पो

अकेला आदिवासी समुदाय ही ऐसा है जो देश, दुनिया में हर प्रकार के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, भाषिक, आध्यात्मिक, जातीय शोषण, अत्याचार और भेदभाव से पीड़ित है। अपनी देह बचाने से लेकर जल, जमीन, जंगल, जीवन, जड़ें, जुबान व जमीर बचाने की लड़ाई अकेला वही लड़ता दिखता है। आदिवासी साहित्यकार महादेव टोप्पो से कार्तिक चौधरी की खास बातचीत

साक्षात्कार

[वर्ष 1954 में बिहार (अब झारखंड) के रांची में एक उरांव आदिवासी परिवार में जन्मे महादेव टोप्पो की पहचान अग्रणी साहित्यकार के रूप में है। उन्होंने हिन्दी और अपनी मातृभाषा कुरूख में कविताएं, कहानियां, लघु कहानियां व नाटकों की रचना की है। लेखन के अलावा उन्होंने नागपुरिया फिल्म ‘बाहा’, कुरूख भाषा में बनी लघु फिल्म ‘पहाडा’ और ‘एडपा काना’ (घर जाते हुए) में अभिनेता के रूप में भी हाथ आजमाया। उनकी प्रकाशित रचनाओं में ‘जंगल पहाड़ के पथ’ (काव्य संग्रह) उल्लेखनीय रहे हैं। उनकी कविताओं का जर्मन, असमी, संस्कृत और तेलुगू में अनुवाद हुआ है। महादेव टोप्पो से कार्तिक चौधरी ने विस्तार से बातचीत की है। प्रस्तुत है बातचीत का संपादित अंश]

आपको साहित्य लेखन की प्रेरणा कहां से मिली?

बचपन में चौथी कक्षा से ही कुछ-कुछ पढ़ने की आदत लग गई। एक दिन कहीं पढ़ा कि एक विदेशी विद्वान फादर कामिल बुल्के रांची में रहते हैं। ये हिन्दी के बहुत बड़े विद्वान हैं। बाद में हाईस्कूल जाने लगा तो फादर कामिल बुल्के के निवास के करीब से गुजरता था। उन्हें किताबों से भरे  रैक के निकट काम करते देख संभवतः यह प्रेरणा मिली हो। लेकिन, मेरी निरक्षर मां को मुझे पढ़ते देख ख़ुशी होती थी। उसे खुश देखने के लिए भी पढ़ता था। यह भी प्रेरक तत्व रहा।

आपके प्रिय साहित्यकार कौन हैं?

हमारे समय यानी 70-80 के दशक में सारिका, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कहानी आदि पत्रिकाएं मिल जाती थीं तो कुछ पढ़ लेता था। वैसे प्रिय कहने से प्रेमचंद, इलाचंद्र जोशी, कमलेश्वर, मोहन राकेश, भीष्म साहनी, राजेन्द्र यादव, मृदुला गर्ग, जितेन्द्र भाटिया, रेणु, प्रभु जोशी, मिथिलेश्वर, शैवाल, मालती जोशी, मेहन्निसा परवेज, हिमांशु जोशी, मनोहर श्याम जोशी, संजीव, राजेन्द्र अवस्थी, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, मंगलेश डबराल, चन्द्रकांत देवताले, अरुण कमल, रामविलास शर्मा तक को जो पढ़ने को मिला पढ़ा। साथ ही हिन्दी में उपलब्ध बांग्ला, पंजाबी, मराठी, कन्नड़, ओड़िया, असमिया, राजस्थानी, डोगरी, तमिल, तेलुगू, गुजराती, मलयालम के कुछ उपन्यास, कहानी, नाटकों को भी पढ़ा है।

आपके अनुसार आदिवासी साहित्य की परिभाषा क्या है?

साहित्य कोई भी हो वह मनुष्य की बेहतरी के लिए ही कार्य करता है। चाहे वह किसी भी भाषा-विशेष, भौगोलिक-क्षेत्र या समुदाय-विशेष से जुड़ा हो। यह हम अपने अध्ययन-अध्यापन की सुविधा के लिए या उसकी विशेषताओं, कमजोरियों को अलग-अलग अनुभव-दृष्टियों से देखने, समझने और समझाने के लिए यह विभाजन कर लेते हैं। यहां भी हम इसी सुविधा की दृष्टि से कह सकते हैं कि जो साहित्य, जीवन संबंधी समस्याओं, विषयों, जन-सरोकार के मुद्दों आदि को, आदिवासी-जीवन के दृष्टिकोण या अनुभवों से मनुष्य, धरती, प्रकृति, विकास, सभ्यता, भाषा, संस्कृति, राजनीति, इतिहास, भूगोल को देखता, समझता व चित्रित करता है और मनुष्यता तथा दुनिया की बेहतरी के लिए सोचता, समझता और देखता है, वही आदिवासी-साहित्य है।

महादेव टोप्पो्, आदिवासी साहित्यकार

आदिवासी साहित्य में पुरखा और आदिवासियत शब्द का क्या महत्व है?

दोनों शब्दों के अपने महत्व हैं। पुरखा से मतलब हमारे पूर्वज और उनके पारंपरिक ज्ञान और उनसे प्राप्त विरासत से है और आदिवासियत का संबंध आदिवासी-जीवन के अपने मूल दृष्टिकोण से है। हमें पुरखों के पारंपरिक-ज्ञान को संजोते हुए इसकी व्याख्या व पुनर्व्याख्या भी करनी है। साथ ही, आज की परिस्थितियों व समस्याओं के अनुकूल जो कार्य-व्यवहार आदिवासी जीवन-मूल्यों व दृष्टिकोण से करता है, वही आदिवासियत है। जैसे आदिवासियों को प्रायः विकास-विरोधी समझा जाता है। परंतु ध्यान रहे कि आदिवासी को भी विकास चाहिए। लेकिन उसके अपनी जरूरत के हिसाब से। वह विकास के आदमखोर, धरतीखोर, मुनाफाखोर चरित्र का विरोधी है। इस मामले में सभ्य-समाज व विकसित कहे जानेवाले समाज से वह पूरी दुनिया में असहमत है। कोविड-19 की महामारी के बाद सभ्य समाज को इस विषय पर गंभीरता से चिंतन-मनन करना चाहिए।

आदिवासी दर्शन क्या है?

इसे कई लोग, कई तरह से परिभाषित करने लगे हैं। एक आदिवासी होने के नाते मुझे लगता है कि वह दृष्टि जो धरती, प्रकृति और मनुष्य के जीवन के अंतर्संबंधों का सम्मान व सहयोग करता है और इनके संबंधों को एकजुटता और सहजीवी भाव से देखता है। इसके अलावा जो आज के संदर्भ में धरतीखोर, आदमखोर, पूँजीवादी, उपभोक्तावादी, सामंतवादी, वर्चस्ववादी, भेदभाव पूर्ण प्रवृति व विकास का विरोध करता है, वही आदिवासी दर्शन है।

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वर्तमान समय में आदिवासी साहित्य के समक्ष क्या चुनौतियां हैं?

चुनौतियां दरअसल आदिवासी लेखकों के समक्ष ये हैं कि वे हर विधा में लिख नहीं पा रहे हैं। फिर वह कई तरह की समस्याओं से घिरे हैं। विकास, विस्थापन के सवाल से जूझते हुए वह अपनी जमीन बचाएं या भाषा, संस्कृति के सवाल से जूझते हुए अपनी भाषा, संस्कृति बचाए या संविधान में प्रदत्त अधिकारों को लागू कराने के लिए संघर्ष करें या शिक्षा, रोजगार के साथ अपना अस्तित्व बचाने के लिए जल, जंगल, जमीन, जमीर, जबान, जीवन, जनी (औरत) बचाने के लिए के लिए संघर्ष करें। अतः, चुनौती अभी यही है कि वे अधिक से अधिक लिखें और पूरी दुनिया में आदिवासी एकजुटता को पुख्ता करें और संघर्ष करें। धरती को बचाने का जो दर्शन आदिवासी संघर्ष में दुनिया भर में, छिपा है, उसे पहचानें और एकजुटता दिखाकर विश्व के पैमाने पर संघर्ष करें ताकि विनाश के गर्त की ओर जाती पृथ्वी और मनुष्य बच सकें।

आपके अनुसार आदिवासी और गैर-आदिवासी साहित्यकार की रचनाओं में क्या भिन्नता है ?

वही जो आग से खुद जलने और आग से किसी को जलते देखने के अनुभव में है। लेकिन कभी-कभी आग से किसी को जलते देखनेवाला, आग से जले आदमी के अनुभव से बेहतर कहानी कह जाता है। वैसे आदिवासी रचनाकार, कुछ दशक पहले से ही अभिव्यक्ति के इन तरीकों को अपना रहे हैं। इसलिए अपनी बातें कहने के लिए अभी उन्हें काफी कुछ सीखना बाकी है। जैसे-जैसे वे इसमें अनुभवी होते जाएंगे वह बेहतर कहेंगे।

आदिवासी साहित्य का उद्देश्य क्या है?

सामान्यतः किसी भी साहित्य का उद्देश्य मात्र मनोरंजन नहीं होता बल्कि मानव जीवन के संघर्ष को, अंतर्विरोधों को अभिलेखित करना भी होता है ताकि आनेवाली पीढ़ियाँ, पिछली पीढ़ी के अनुभवों से मानव-जीवन को बेहतर प्रेमपूर्ण, शांतिपूर्ण व सम्मानपूर्ण बना सकें। जल, जंगल और जमीन सभी के लिए पर्याप्त हैं लेकिन लाभ व व्यापारिक नजरिए ने लोगों को अंधा बना दिया है। इस पर अंकुश लगना चाहिए। नहीं तो यह पृथ्वी और प्रकृति अपने स्वास्थ्य सुधारने का हक खुद ले लेगी तब आपको बहुत नुकसान होगा जैसे कि वर्तमान कोरोना वायरस से होता दिखता है। इसलिए आदिवासी धरती, प्रकृति को बचाने व इसके संसाधन, स्रोतों का संयमित व सीमित उपयोग की बात कहता है। वह अब जल, जंगल और जमीन से आगे जमीर, जबान, जीवन, जड़, जज्बात को भी बचाने की बात करने लगा है तो समझा जा सकता है कि आदिवासी-साहित्य मात्र मनोरंजन के लिए नहीं है बल्कि वहां हर उस व्यक्ति का संघर्ष है जो इस धरती को हरी-भरी, उर्वर व स्वस्थ देखना चाहता है, शुद्ध हवा, शुद्ध पानी चाहता है तथा इन सबके लिए यह धरती व प्रकृति को सुरक्षित रखना भी चाहता है।

आपकी कविता संग्रह “जंगल पहाड़ के पाठ” पहचान, शोषण, विस्थापन, विकास, दमन, संघर्ष और सरकार की व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह उठाते हैं। क्या इसका कोई सकारात्मक प्रभाव नज़र आ रहा है?

जी, बिल्कुल सकारात्मक प्रभाव नजर आ रहा है। आज देखिए कि कुछ वर्षों से हिन्दी कविता का स्वर बदल गया है। कई कवि धरती, प्रकृति व मनुष्य के अंतर्संबंधों को समझने के लिए खड़े दिखते हैं। धरती और प्रकृति के पक्ष में खड़ा होना एक बड़ी उपलब्धि है। 

चर्चित कथाकार रणेंद्र ने आपकी कविताओं में जनाक्रोश की बात कही है। क्या यह जनाक्रोश समाज में समानता ला पाएगा?

जनाक्रोश कितनी समानता लाएगा यह तो कह नहीं सकता लेकिन इतना कह सकता हूं कि समाज में इसका प्रभाव जरूर होता है। लेकिन, यह प्रभाव बहुत धीरे-धीरे होता है। अतः साहित्य के प्रभाव से परिवर्तन की गति धीमी होती है। वैसे कबीर, शेक्सपियर, दोस्तोव्स्की, लेव तोलस्ताेय, मैक्सिम गोर्की, प्रेमचंद, टैगोर, महाश्वेता देवी, गोपीनाथ महान्ती जैसे अनेक देशी-विदेशी रचनाकार नहीं होते, मानवीय-संबंधों व उत्पीड़न से जुड़े अनेक सवालों, मुद्दों के बारे नहीं लिखते तो मनुष्य की चेतना को विकसित होने में और समय लगता। वैसे भी इतने प्रयासों के बाद भी समस्या बनी हुई है। आदमी, आदमी की गुलामी से धीरे-धीरे आजाद हो रहा है। लोग एक-दूसरे को समझने का प्रयास कर रहे हैं। यही जनाक्रोश का महत्व है। अपनी तकलीफें नहीं कहें, रोयें, चिल्लाय़ें नहीं तो कौन आपकी समस्या समझेगा या आपकी सहायता करेगा? यह बड़ी बात है और लोग इसकी महत्ता समझ रहे हैं। “ब्लैक लाइव्स मैटर्स” के संदर्भ में भी इसके महत्व को समझा जा सकता है।

जिस प्रकार दलित साहित्य को पहचान दलित साहित्यकारों के आत्मकथा लिखने से मिली, क्या आपको लगता है कि आदिवासी साहित्य में भी आत्मकथा लिखी जानी चाहिए? 

एक साहित्यिक विधा के रूप में अवश्य लिखी जानी चाहिए। लेकिन, मैं मानता हूं कि एक आदिवासी बेहतर कविता, कहानी और उपन्यास भी लिख सकता है क्योंकि जीवन के सफर में अकेला आदिवासी समुदाय ही ऐसा है जो देश, दुनिया में हर प्रकार के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, भाषिक, आध्यात्मिक, जातीय शोषण, अत्याचार और भेदभाव से पीड़ित है। अपनी देह बचाने से लेकर जल, जमीन, जंगल, जीवन, जड़ें, जबान व जमीर बचाने की लड़ाई अकेला वही लड़ता दिखता है। बाकी तो उसके पीछे दिखते हैं या उसके अगुआ बनने के चक्कर में आदिवासियों को दिग्भ्रमित कर रहे हैं।

दलित साहित्य और आदिवासी साहित्य में क्या समानताएं है?

जीवन के संघर्ष को लेकर समानता तो है लेकिन इन दोनों का अनुभव-संसार और जीवन-शैली एक-दूसरे से भिन्न है। अतः, इस कारण कुछ अंतर तो दिखता है।

युवा आदिवासी साहित्यकारों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?

मनुष्य जीवन के महत्व को धरती व प्रकृति के अंतर्संबंधों से जोड़कर देखें, समझें और लिखें। वे बहुत सार्थक लिख पाएंगे। साथ ही अपनी लोक परंपराओं, गीतों, कहानियों का भी अध्ययन करें।

(संपादन : नवल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

कार्तिक चौधरी

लेखक डॉ. कार्तिक चौधरी, महाराजा श्रीशचंद्र कॉलेज (कलकत्ता विश्वविद्यालय) के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। इनकी प्रकाशित पुस्तकों में “दलित चेतना के संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियां” (समालोचना), “दलित साहित्य की दशा-दिशा समकालीन परिप्रेक्ष्य में” (संपादन), “अस्मितामूलक विमर्श, दलित और आदिवासी साहित्य के संदर्भ में” (समालोचना), “बंगाल में दलित और आदिवासी कविताएं” (संपादित काव्य संग्रह) शामिल हैं। इन्हें डॉ. आंबेडकर सृजन सम्मान (2021) से सम्मानित किया गया है

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