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हिंदू की संघी परिभाषा

मोहन भागवत से यह तो पूछा ही जाना चाहिए कि यदि हिंदू कभी देशविरोधी नहीं हो सकता, तो असीम त्रिवेदी और कन्हैया कुमार को देशद्रोह की धारा में क्यों गिरफ्तार किया गया था? क्या वे हिंदू नहीं हैं? कंवल भारती का विश्लेषण

दलित-बहुजन भी जान लें कि आरएसएस की नजर में हिंदू कौन हैं?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का सरसंघचालक (पता नहीं इसमें अंग्रेजी का ‘सर’ क्यों घुसा हुआ है?) जब भी मुंह खोलते हैं, सिवाए जहर के कुछ नहीं उगलते। उनके अगले-पिछले किसी भी बयान को देख लें, वह जहर मिली चाशनी में डूबा हुआ मिलेगा। उनके हर बयान में उनका जहर मुसलमानों के खिलाफ होता है। अभी ताज़ा बयान मोहन भागवत का है, जो उन्होंने नई दिल्ली में गांधी पर जे.के. बजाज और एम.डी. श्रीनिवास की किताब का विमोचन करते हुए दिया है। उन्होंने कहा, ‘हिंदू कभी भारत विरोधी नहीं हो सकता।’ आगे इसी को दोहराते हुए उन्होंने कहा, ‘अगर कोई हिंदू है तो वह निश्चित रूप से देशभक्त होगा।’ इसके बाद उन्होंने देशप्रेम का मतलब भी बतलाया कि वह सिर्फ जमीन से प्रेम नहीं, बल्कि यहां के लोगों, संस्कृति, परंपराओं, नदियों और हर चीज से प्रेम है। यहां विशेष ध्यान देने वाले उनके शब्द ‘संस्कृति और परम्पराएं हैं। निश्चित रूप से मोहन भागवत अपने बयान में भारतीय संस्कृति और परंपरा की बात नहीं कर रहे हैं, क्योंकि भारतीय संस्कृति और परंपरा में बौद्ध संस्कृति और परंपराएं भी आती हैं, जो वर्णव्यवस्था और जातिप्रथा की विरोधी तथा समता, मैत्री, करुणा और अहिंसा को स्थापित करती है, जिसका आरएसएस जन्मजात दुश्मन है। उसकी आदर्श व्यवस्था वर्णव्यवस्था हिंसा की है। इसलिए मोहन भागवत का भारतीय संस्कृति और परंपरा से मतलब वास्तव में हिंदू संस्कृति और परंपरा से है।

इससे पहले कि हम आरएसएस के सरसंघचालक के बयान की व्याख्या करें, यह बात समझ लें कि आरएसएस का सिद्धांत है कि वह बहस नहीं करता। वह बहस से इसलिए डरता है, क्योंकि बहस से उसे झूठ की बुनियाद पर गढे गए अपने इतिहास के बिखरने का डर रहता है। इसलिए संघ परिवार के नेताओं को जो रटाया जाता है, वे बस उसी को दोहराते हैं, उसके विरुद्ध सुनते नहीं हैं। उन्हें सख्त हिदायत दी गई है कि न बहस करना है और न सुनना है। वे एक तरह से जुगाली करते हैं और विपक्ष के तर्कों पर कोई ध्यान नहीं देते हैं। जब मोहन भागवत का यह बयान आया कि हिंदुस्तान का रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है, तो कोई भी यह सुनने को तैयार नहीं हुआ कि हिंदुस्तान का रहने वाला तो हिन्दुस्तानी होगा, हिंदू कैसे हो सकता है? मैंने एक संघी से पूछा, ‘फिर तुम पाकिस्तान के हिंदू को मुस्लिम क्यों नहीं कहते, पाकिस्तानी क्यों कहते हो?’ वे नेपाल के नागरिक को नेपाली, बांग्लादेश के नागरिक को बांग्लादेशी और रूस के नागरिक को रशियन कहेंगे, पर हिंदुस्तान के नागरिक को हिंदुस्तानी नहीं मानेंगे, उसे हिंदू मानेंगे. क्यों? इसलिए कि उन्हें मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलानी है। वे चाहते हैं कि मुसलमान अपने आप को हिंदू कहें। यह ‘आ बैल मुझे मार’ की संघी जिद है। यह जिद वे सिर्फ भारत में ही चलाते हैं, अमरीका में रहने वाले हिंदू को नहीं कहेंगे कि वे अपने आप को ईसाई कहें? मुझे लगता है कि यह भी आने वाले समय में मुस्लिम-विरोध का एक संघी उन्माद हो सकता है। अगर सत्ता में भाजपा और भी मजबूत होती है, तो भगवा फासीवाद इस हद तक आक्रामक हो सकता है कि वह मुसलमानों और ईसाईयों को भी स्वयं को हिंदू कहने के लिए बाध्य करे।

मोहन भागवत, आरएसएस सुप्रीमो

अब लेते हैं मोहन भागवत के इस बयान को कि हिंदू कभी भारत-विरोधी नहीं हो सकता। हालांकि देश के साथ गद्दारी करने के आरोप में जितने भी अधिकारी पकडे गए हैं, वे प्राय: सभी हिंदू हैं। फिर भी इस बयान के तीन निहितार्थ हैं। एक यह कि जो हिंदू नहीं है, वह भारत-विरोधी हो सकता है। मसलन, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध, सिख, पारसी धर्मों के लोग भारत-विरोधी हो सकते हैं। इसका अर्थ है कि केवल हिंदू ही देशभक्त है, बाकी सब देशद्रोह कर सकते हैं। अब चूंकि संघी लोग बहस में नहीं उतरते, इसलिए वे अपनी ही बात पर विचार नहीं कर सकते कि जब हिंदुस्तान का हर नागरिक हिंदू है, तो मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध, सिख, पारसी भी हिंदू ही हुए, फिर वे देश-विरोधी कैसे हुए?

यह भी पढ़ें : संघ की जुबान पर संविधान, नाभि में मनुस्मृति!

मोहन भागवत के फतवे का दूसरा अर्थ यह है कि हाथी के दांत दिखाने के और हैं और खाने के और। दिखाने को वह हिंदुस्तान के हर नागरिक को हिंदू कहने पर जोर देते हैं, पर सच्चाई यह है कि वे न दलितों को हिंदू मानते हैं, न अधिसंख्यक पिछड़ों और ना ही आदिवासियों को। वे उनकी न सत्ता में भागीदारी चाहते हैं और न विकास में। उनके लिए लोकतंत्र की आरक्षण-प्रणाली में जो प्रावधान संविधान ने सुनिश्चित किए हैं। वे उसी के बल पर राजनीति और प्रशासन में कुछ प्रतिनिधित्व (ऊंट के मुंह में जीरा के बराबर) प्राप्त किए हुए हैं। इसे भी आरएसएस पसंद नहीं करता है। यद्यपि वे दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के आरक्षण को कानूनन समाप्त करने की स्थिति में अभी नहीं हैं, पर उन्होंने उसे अपने नीतिगत षड्यंत्रों और निजी क्षेत्र को आरक्षण से बाहर रखने की नीतियों से कमजोर जरूर कर दिया है। उनकी दृष्टि में यदि कोई हिंदू है, तो वह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य है। आरएसएस और उसके नेतृत्व में चलने वाली भाजपा सरकार की सारी विकास-योजनाएं इसी द्विज वर्ग के हितों को ध्यान में रखकर तय होती है। शेष वर्गों के लिए उनकी योजनाएं उन्हें केवल हाशिए पर रखने के लिए बनाई जाती हैं।

तीसरा निहितार्थ यह है कि मोहन भागवत ने यह कहकर कि ‘अगर कोई हिंदू है, तो वह निश्चित रूप से देशभक्त होगा’, देशभक्ति को एक सांप्रदायिक अर्थ दे दिया है। अब हिंदू देशभक्त हो गया और मुसलमान आदि देशद्रोही हो गए। अब हिंदू की परिभाषा में देशभक्ति का गुण और जुड गया, और मुसलमान आदि की परिभाषा में देशद्रोही होने का अवगुण जुड गया।

लेकिन, मोहन भागवत से यह तो पूछा ही जाना चाहिए कि यदि हिंदू कभी देशविरोधी नहीं हो सकता, तो असीम त्रिवेदी और कन्हैया कुमार को देशद्रोह की धारा में क्यों गिरफ्तार किया गया था? क्या वे हिंदू नहीं हैं? उत्तर है कि वे अवश्य हिंदू हैं। तब या तो वे भारत-विरोधी नहीं हो सकते, या मोहन भागवत अपने कथन में सही नहीं हो सकते।

ध्यान रहे कि भाजपा की सत्ता में संघ परिवार की परिभाषाएं दूर तक अपना स्थान बनाती हैं, और दूर तक मार भी करती हैं। संघ से जुड़े संगठनों और स्वयंसेवकों को अब यह खुला सन्देश मिल गया है कि हिंदू ही देशभक्त होता है। मुसलमान और ईसाई आदि नहीं। उन्हें यह गुप्त हिदायत मिल गई कि मुसलमान और ईसाई आदि को आतंकवादी, देशद्रोही, खालिस्तानी और नक्सलवादी की दृष्टि से देखना होगा, देशभक्ति की दृष्टि से बिल्कुल नहीं। डर इस बात का है कि कहीं न्यायपालिका में बैठे हुए आरएसएस के भक्त जज मोहन भागवत के इस बयान को सिद्धांत न बना लें, जैसे 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने हिंदुत्व पर अपने निर्णय में डॉ. राधाकृष्णन और तिलक के विचार को सिद्धांत बना लिया था।

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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