आजकल गाहे-बेगाहे संघ संविधान की बात करता है। ऐसे दिखाने की कोशिश की जाती है कि जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से ज्यादा शायद ही कोई इस देश में संविधान का सम्मान करता है। बीते 25 अक्टूबर, 2020 को विजयादशमी के मौके पर भी संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अपने एक घंटे से भी ज्यादा समय के उद्बोधन में बार-बार संविधान और कानून का ज़िक्र किया। उन्होंने यहां तक कहा कि, “जहां भी जाएंगे, कानून और संविधान की मर्यादा में रहना है, स्वयंसेवकों को यही सिखाया जाता है।” मोहन भागवत ने नागरिक अनुशासन की आवश्यकता पर जोर दिया और लिंचिंग को विदेशी परंपरा बताते हुए कहा कि, “हमारी परम्परा उदारता की है। मिलजुल कर रहने की है।”
पिछले दिनों ही सोशल मीडिया पर संघ प्रमुख के फोटो लगे कवर वाला एक नया संविधान भी खूब वायरल हुआ, जिसके बारे में कहा गया कि भारत के वर्तमान संविधान को बदल कर संघ नया विधान लाना चाहता है। हालांकि जल्द ही इस संदेश का संघ परिवार की ओर से आधिकारिक खंडन भी आया और कुछ जगहों पर इस संदेश को फ़ैलाने वाले लोगों पर मुकदमें भी दर्ज करवाए गए। उन दिनों भी आरएसएस ने दोहराया कि उसका यकीन भारत के संविधान में है। वह उसका सम्मान करता है और पालन भी।
सर्वविदित है कि यह संघ का चिर-परिचित तरीका रहा है। वह सदैव संस्कारों , व्यक्ति निर्माण, राष्ट्रवाद और देशभक्ति और धर्म व अध्यात्म की आड़ लेकर मधुर भाषा तथा जटिल शब्दावली के ज़रिए अपने असली एजेंडे को छुपाता रहा है। उसने कभी भी अपने असली मकसद को बाहर नहीं आने दिया। आम जन को भ्रमित करता रहा और जुबानी जमा खर्च कर अपने मंसूबों को ढांपता रहा है।
संविधान को लेकर भी संघ का सोच शुरू से ही विरोध भाव का रहा है। उसने कभी मन से भारतीय संविधान को नहीं माना। संघ के विचारक-प्रचारक यही लिखते रहे कि स्वतंत्र भारत का संविधान पश्चिमी देशों के संविधानों की नक़ल मात्र है अथवा यह विदेशों से आयातित है। इसमें भारत का अपना कुछ भी नहीं है। संभवतः इसलिए संघ हो, भाजपा हो अथवा संघ के अन्यान्य अनुषांगिक संगठन, सब इस बात पर एकमत रहे हैं कि वर्तमान में लागू संविधान को बदल दिया जाना चाहिए। चूंकि एक झटके में संविधान को बदल पाना संभव नहीं है, इसलिए समीक्षा के तरीके खोजे गए। केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी भाजपा सरकार ने तो संविधान की समीक्षा की शुरुआत भी की। यहां तक कि अभी तीन साल पहले 2017 में हैदराबाद में एक सार्वजनिक संबोधन में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि, “भारतीय संविधान में बदलाव कर उसे भारतीय समाज के नैतिक मूल्यों के अनुरूप किया जाना चाहिए। संविधान के बहुत सारे हिस्से विदेशी सोच पर आधारित है और जरुरत है कि आज़ादी के 70 साल के बाद इस पर गौर किया जाय।”
यह इतिहास में दर्ज है कि जब संविधान निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी तब संघी विचार के जो लोग संविधान सभा का हिस्सा थे, वे हर प्रगतिशील कदम का पुरजोर विरोध कर रहे थे। रोड़े अटका रहे थे। हिन्दुत्ववादी समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में डॉ. आंबेडकर की सूझ-बूझ व मेहनत का मजाक उड़ाते हुये कार्टून छाप रहे थे। लेकिन जब संविधान बन कर संविधान सभा में 26 नवम्बर 1949 को प्रस्तुत हो गया तब 30 नवम्बर 1949 को आरएसएस के अंग्रेजी मुखपत्र ऑर्गेनाइजर ने अपने अंक के तीसरे पृष्ठ पर लिखा, “संविधान में प्राचीन भारत में विलक्षण संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु की विधि स्पार्टा के लाईकरगुस या ईरान के सोलोन के बहुत पहले लिखी गई थी। आज तक इस विधि की, जो मनुस्मृति में उल्लेखित है, विश्वभर में सराहना की जाती रही और यह स्वत:स्फूर्त धार्मिक नियम पालन तथा समरूपता पैदा करती है। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिये उसका कोई अर्थ नहीं है।”
यह भी पढ़ें : डॉ. आंबेडकर ने मनुस्मृति का दहन क्यों किया?
आज कईं लोग यह कहते नहीं थकते हैं कि अब संघ बहुत बदल गया है। यह पुरानी बातें है। अब तो संघ डॉ. आंबेडकर और संविधान के पक्ष में पूरी मजबूती से खड़ा है और उनका पूरा सम्मान करता है। यहां तक कि संघ के एक स्वयंसेवक के प्रधानमंत्री रहते देशव्यापी संविधान मनाने की ऐतिहासिक शुरुआत की गई है। बहुत सारे लोग संघ के बदल जाने और प्रतीकात्मक दिखावों के झांसे में आ जाते हैं और उनके दावे पर यकीन करना प्रारम्भ कर देते हैं, जबकि गहराई से देखने पर पता चलता है कि संघ की विचारधारा और कार्यप्रणाली में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया है।
संविधान के सम्मान और कानून के पालन सम्बन्धी उनकी बातें महज दिखावटी है। उसके आचरण में कहीं भी ऐसा नजर नहीं आता है कि आरएसएस का भारत के संविधान में निहित मूल्यों और सिद्धांतों से कोई सरोकार हो। संघ के लाग सिर्फ जुबान पर गले से उपर संविधान को रखते हैं। उनके दिल, दिमाग और नाभि में केवल मनुस्मृति है। कार्य-व्यवहार में भी मनु का विधान ही है। सवाल अब भी यही है कि क्या संघ ने अपने 95 साल के काल में ऐसा कुछ करके दिखाया है कि जिससे लगे कि संघ की आस्था और भरोसा संविधान में है?
यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जिस संगठन ने अपनी स्थापना के 25 वर्षों अपना ही संविधान नहीं बनाया हो और आज भी भारत के नागरिकों के सामने उसका लिखित विधान सार्वजनिक रूप से मौजूद न हो और ना ही उसका सामान्य स्वयंसेवक उसके बारे में जानता हो, वह दुनिया के सबसे बड़े लिखित संविधान में यकीन के थोथे दावे ही कर सकता है। इससे ज्यादा की उससे उम्मीद नहीं की जा सकती है।
संविधान बनाने का विरोध, संविधान लागू होने का विरोध, संविधान को धरातल पर उतारने में रोड़े अटकाने और संविधान समीक्षा, संविधान बदलने की बातें कहनेवाले संगठन संविधान से कितना प्रेम करते होंगे, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। फिर भी अगर हम उनकी नीयत पर भरोसा करके चिकनी-चुपड़ी बातों का शिकार होते हैं तो यह हमारी अतिरिक्त भलमनसाहत अथवा मूर्खता ही कही जा सकती है।
आरएसएस का इतिहास संविधान का अवमूल्यन करने और उसका मजाक उड़ाने से लेकर उसे नेस्तनाबूद करने के प्रयासों का रहा है। बाकी तो उसकी कार्यशैली है, जैसे, वह गांधी को प्रात: स्मरणीय व पूज्य बापू कहेगा और अपने वस्तु भंडार में साहित्य बिक्री के दौरान गोडसे की किताब ‘गांधी वध क्यों’ और ‘गाँधी वध और मैं’ जैसे गांधी हत्या को जायज ठहराने वाली किताबें बेचता है। गांधी हत्या पर मिठाई बांटने वाले लोग गांधीवादी समाजवाद की अवधारणा ले आए, इससे अधिक हैरानी की क्या बात होगी?
सवाल यह है कि क्या संघ संविधान में निहित मूल्यों के प्रति स्वयं को समर्पित करता है? क्या वह भारतीय संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित शब्द सेक्यूलर, सोशिलिस्ट शब्दों से सहमति रखता है? क्या उसका भरोसा समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता में है? उसका भरोसा समानता में क्यों नहीं है? उसका समरसता का अलग राग क्यों है? क्या वह भारत के नागरिकों को प्रदत्त अभिव्यक्ति और उपासना की आज़ादी के मौलिक अधिकारों को संरक्षित रखना चाहेगा अथवा उन पर प्रहार ही करता रहेगा?
संघ के अब तक के पूरे जीवन काल को देखा जाय तो वह संविधान को स्थापित करने वाला व्यवहार नहीं है, बल्कि संविधान को ध्वस्त करता सा प्रतीत होता है, जो नागरिक अधिकार अथवा विशेषाधिकार संविधान ने विभिन्न वर्गों, समुदायों व क्षेत्रों को दिए हैं, संघ उनके विरुद्ध रहा है। चाहे वे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम हो अथवा आरक्षित समुदायों को दिया गया आरक्षण, या फिर जम्मू-कश्मीर में धारा 370, सबके खिलाफ संघियों ने बार-बार बोला है।
इस प्रकार, यह स्पष्ट तौर पर दिखता है कि संविधान जो कुछ भी वंचित अस्मिताओं को देना चाहता है, उसे संघ छीन लेना चाहता है। चूंकि संविधान देश के आदिवासियों, दलितों, अन्य वंचित पिछड़ी जातियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के पक्ष में खड़ा है, इसलिए संघ उसे ही समाप्त कर देना चाहता है और यह कोई ढंकी-छिपी मंशा नहीं है, बल्कि बेहद स्पष्ट है। उत्पीडित जमातों को संघ में किसी क्रान्तिकारी बदलाव की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।
मैं संघ में रहने के अपने पूर्व के अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि संघ की शाखाओं में, उसके प्रशिक्षणों में और बड़े कार्यक्रमों में और प्रकाशनों में कहीं भी संविधान को लेकर कोई सकारात्मक बात शायद ही कभी कही गई हो। आरएसएस भारतीय के संविधान को सदैव विदेशी अवधारणाओं से युक्त, संस्कृति व भारतीय जीवन मूल्यों के विरुद्ध मानता रहा है। वहां मनु को भगवान अथवा महर्षि कहा जाता है। इसका पाठ करवाया जाता है, “मनुष्य तू बड़ा महान है, तू मनु की संतान है।” मनुस्मृति को महान संहिता के रूप में उद्धृत किया जाता है। मनुस्मृति के उद्धरण संघ के बौद्धिक पत्रकों में छापे जाते हैं और बोले जाते हैं। यह सब अतीत की बातें नहीं हैं। यह संघ का वर्तमान है।
संघ के प्रात:स्मरण में डॉ. आंबेडकर का जिक्र, संघ के सार्वजनिक आयोजनों में आंबेडकर की तस्वीरे और उनका यदाकदा गुणगान गलतफहमियां तो निर्मित कर सकता है। ठीक वैसे ही, जैसे संविधान की और कानून के अनुपालन की अपने हित में व्याख्या करके जनता के आक्रोश को शमित करने और लोगों को भ्रमित करने के प्रयास। मगर इन इक्का-दुक्का उदाहरणों से यह सोचना गंभीर भूल होगी कि संघ बदल गया है और अब वह संविधान की सोच के आधार पर भारत को रचना चाहेगा। संघ का अंतिम लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र है, जिसमें वर्तमान संविधान की कोई आवश्यकता नहीं होगी। वह तो मनु और उसके जैसे ही अन्य विधानों पर आधारित व्यवस्था पर चलेगा, जिसमें जाति, वर्ण, कुल, गोत्र, उंच-नीच, श्रेष्ठ, मलेच्छ जैसी घटिया सोच तो होगी ही। हर तरह की असमानता भी होगी। सावधान रहना होगा क्योंकि न संघ कभी बदला है और ना ही अब बदल रहा है। उलटे, वह उत्पीडित और वंचित अस्मिताओं से बदला ले रहा है। उसके निशाने पर वो संविधान भी है जो इन वंचित पीड़ित जमातों को अधिकार संपन्न बनाता है।
(संपादन : नवल/अनिल)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in
फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें
मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया