दलित लेखक अजय नावरिया की कहानी ‘संक्रमण’ हंस पत्रिका के जनवरी, 2021 अंक में प्रकाशित होने के बाद चर्चा में है। इस कहानी के माध्यम से उन्होंने शिक्षित एवं पद प्रतिष्ठित दलितों के जीवन को उद्घाटित करने का प्रयास किया है। मसलन, हिन्दू समाज चार वर्णों में बंटा है। हम सभी इस तथ्य से भली-भांति परिचित हैं । एक दलित व्यक्ति कितना भी योग्य हो, अंतत: वह अछूत ही है। वह चाहकर भी स्वयं को इस पहचान से अलग नहीं कर पाता है। साथ ही, विदेश में रहकर भी एक सवर्ण जातीय दंभ के कारण व्यवहार में सभी आधुनिकता को अपनाने के बावजूद पारंपरिक कुंठित मानसिकता से स्वतंत्र नहीं हो पाता है।
इस कहानी की पृष्ठभूमि जापान की राजधानी टोक्यो शहर है। कहानी के नायक प्रोफेसर मिलिंद भारती टोक्यो के एक विश्वविद्यालय में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित हैं। वह पांच-छ्ह दिनों के लिए टोक्यो गये हैं। कहानी के अन्य पात्रों में एक प्रो. हिंदेआकी इशिदा हैं, जो दलित साहित्य की अच्छी समझ रखते हैं। उन्होंने मुम्बई की दलित बस्तियों को देख रखा है। साथ ही कई दलित लेखक- लेखिकाओं से मिल चुके हैं। अन्य पात्रों में डॉ. माया सुजुकी, हिरिको अराकावा, श्वेता एवं शोभा हैं। कहानी के कई पात्र भले ही विदेशी हैं, किन्तु भारत में उन्होंने विभिन्न उद्देश्यों के कारण काफी समय बिताया है। श्वेता तो भारत के उत्तराखंड से ही संबंध रखती है। पीएचडी करने के उद्देश्य से वह टोक्यो गई है और चार सालों से वहां रह रही है। साथ ही वह वहां एक होटल में रुम क्लीनर के रूप में पार्ट टाइम काम भी करती है।

टोक्यो एक चमचमाता हुआ शहर है। एक प्रसंग में प्रोफेसर मिलिन्द ने डॉ. माया से कहा– “माया, आपके देश की सफाई व्यवस्था बहुत अच्छी है। पूरा टोक्यो चमचम चमकता है।” उत्तर देते हुए माया कहती है– “यहाँ सफाई कर्मचारी नहीं होते हैं मिलिन्द जी, हम सभी सफाई कर्मचारी हैं। हमें गंदगी से घिन (घृणा) करना नहीं सिखाया जाता है, बचपन से ही उसे साफ करना सिखाया जाता है।”
अब यह विचारणीय तथ्य है कि जिस देश की यह व्यवस्था है कि समाज का कोई विशेष कार्य किसी विशेष जाति या समुदाय के लिए आरक्षित नहीं है, कर्तव्य और अधिकार देश की पूरी जनसंख्या के लिए समान है। जहां अपने आसपास के वातावरण को साफ रखना प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत जिम्मेदारी होगी। अत: जिस देश में व्यक्ति में जातीय दंभ और असमानता की भावना का निवास न हो, उस देश की मानसिकता भी स्वच्छ होगी। ऐसी स्वच्छ मानसिकता से एक समतामूलक समाज का ही निर्माण होगा।
जबकि भारतीय समाज की विडंबना देखें। यहां कार्य का निर्धारण जाति के आधार किया गया है। यही कारण है कि भारतीय टोक्यो जैसे शहर में रहकर भले ही शिक्षा अर्जित कर रहे हों, किन्तु उस शहर की स्वच्छता चार सालों में भी उनकी मानसिक गंदगी को साफ करने में असमर्थ है। इसका कारण सिर्फ एक है– जहां जापान में बच्चों को गंदगी से घिन करना नहीं सिखाया जाता है। साफ रहना और सफाई करना सिखाया जाता हो, तो वहां के बच्चे गंदगी साफ करने वाले व्यक्ति से घिन कैसे कर सकते हैं? वहीं भारत में एक समाज के बच्चों को यह सिखाया जाता है कि जो लोग हमारे घरों में सफाई का काम करते हैं, वह अछूत हैं, वे हमारे नौकर हैं। सवर्ण समाज ने अपने बच्चों में अछूत वर्ग के लिए घिन पैदा करने का संस्कार दिया है। तभी तो श्वेता ने एक प्रसंग में कहा है – “मैं उस व्यक्ति के बारे में कुछ जानती नहीं थी … आखिर उसके सामने, उसका टॉयलेट, उसका कमरा कैसे साफ कर सकती हूं, वह अछूत है, हमारे घरों में काम करने वाले हमारे नौकर हैं ये लोग।”
श्वेता के इस कथन से यही प्रमाणित होता है कि तथाकथित ऊंची जातियों के बच्चों में एक जातीय अभिमान की स्थापना कर दी जाती है, इनका पालन-पोषण ही इसी जातीय दंभ के आधार पर किया जाता है जहां उन्हें इस बात का अभिमान है कि वह समाज मे ऊंचा स्थान रखते हैं। तभी तो एक प्रसंग में मिलिन्द अपने गांव को याद करता है, जहां प्राइमरी स्कूल में साफ कपड़े पहनने पर अगड़ी जाति के बच्चे उसपर हंसा करते थे।
श्वेता जो कि सवर्ण समाज से संबंध रखती है, उसने अपनी सामाजिक परवरिश के संदर्भ में मिलिन्द से कहा भी है–“हम मजबूर हैं, हमारा सबकॉनशियस माइंड भी शायद ट्रेंड कर दिया गया है। इसमें हम उतने दोषी नहीं हैं, जितनी हमारी फैमिली या सोसायटी के लोग दोषी हैं, वो ट्रेनिंग और वेल्यू सिस्टम दोषी है, जो हमें सोचने का यह ढंग देता है।” इस प्रकार इस समाज के सभी व्यक्ति अपने किये का दोष अपने पूर्वजों पर हमेशा से डालती आयी है कि हमारा परवरिश ही ऐसे माहौल में किया गया है।
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फिर इसी पीढ़ी से यह प्रश्न किया जा सकता है कि वे आज भी अपने समकक्ष उन दलितों को किन आधारों पर अयोग्य ठहराते हैं? जबकि अयोग्य तो वास्तविक रुप से वे हैं क्योंकि उनके अंदर समझने-बूझने की शक्ति क्षीण हो चुकी है। तभी तो वे अपनी कुंठित मानसिकता का त्याग करने में असमर्थ हैं। जबकि दलितों ने जैसे ही जाति-व्यवस्था की खोखली धारणा की यथार्थ को जाना, उन्होंने अपने पूर्वजों के उस सीख को निराधार बताया कि उनका जन्म द्विजों की सेवा करने के उद्देश्य से हुआ है। उन्होंने अपने परंपरागत कार्य को त्यागकर अपना विकास सुनिश्चित किया। धार्मिक रुढ़ियों और परंपरा के नाम पर चलायी गई कुप्रथाओं का पर्दाफाश किया। वहीं तथाकथित समाज का प्रतिनिधित्व करने वाली श्वेता विदेश में रहकर भी पूर्वजों की परंपरा को जस का तस पालन करने को अपनी विवशता बता रही है।
एक बार के लिए अगर हम मान भी लें कि श्वेता अपने परिवार के द्वारा दिए संस्कार को पालन करने के लिए प्रतिबद्ध है तो उसे बताना चाहिए कि टोक्यो में रहते हुए आधुनिकताओं को उसने कैसे स्वीकार किया।
कहानी में स्त्री के प्रति दुख व्यक्त करते हुए मिलिन्द ने कहा भी है– “श्वेता स्त्री है, सबसे ज्यादा शोषित, हर जगह, हर जाति, धर्म और देश में, फिर भी …” क्योंकि स्त्री चाहे सवर्ण ही क्यों ना हो उनकी स्थिति भी गुलामों की तरह ही है। श्वेता इस तथ्य से भलीभांति परिचित भी है। इस यथार्थ को उसने स्वीकार भी किया है। यथा– “हम सवर्ण औरतों की भी हालत, इस दमघोटूँ पैट्रिआर्कल सिस्टम में कमोबेश आपके जैसे लोगों के जैसी ही नहीं है? क्या हम भी उस ढांचे में मामूली से गुलाम या कीड़े-मकोड़े ही नहीं हैं? बस थोड़े अलग वाले गुलाम।” क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि इस यातनाजनिक व्यवस्था में जहां औरतें गुलामी का जीवन जी रही हैं, हर वक्त अपमानित होती हैं, वह ऐसा अभिशप्त जीवन दुबारा नहीं पाने की कामना रखती हों।
बहरहाल, श्वेता के यह सभी तर्क उचित होते, अगर उसने प्रो. मिलिन्द के दलित होने पर भी स्वभाविक प्रतिक्रिया दी होती। किन्तु वहां उसने जातीय दंभ के आधार पर निर्णय लिया जिसके आधार पर वह ना तो एक अछूत का कमरा साफ कर सकती है और ना ही उसके साथ किसी तरह का संबंध रखना चाहती है। प्रो. मिलिन्द की जातिगत पहचान होते ही श्वेता ने उनसे नफरत करना प्रारंभ कर दिया जिसने स्वयं एक प्रसंग में मिलिन्द से कहा था – “ए ग्रेट इंडियन रायटर।” यहां तक कि मिलिन्द के लेखक होने के कारण प्रभावित होकर कहा था– “मुझे लेखकों की जिंदगी में बहुत दिलचस्पी है। कैसे होते हैं ये लोग अपने निजी क्षणों में, अपनी जिंदगी में। क्या ये भी हमारे जैसे ही होते होंगे या कुछ अलग। कैसा होता होगा इनका थॉट प्रोसेस।” मिलिन्द के एकमात्र दलित होने के कारण श्वेता को उनके निजी जीवन के बारे में जानने की जीजिविषा का अंत हो चुका था। वह ‘ग्रेट राइटर’ उसकी नजरों में केवल एक अछूत बनकर रह गया। भले ही वह विदेश में पद प्रतिष्ठा में श्वेता से ऊंचा दर्जा रखता हो। वह जिस अछूत समाज से वह संबंध रखता है, वह उसके लिए नौकर है जिसे उसने अपने घर में नौकर का कार्य करते देखा है ।
कँवल भारती ने इस संदर्भ में ठीक ही कहा है कि “द्विजों के लिए तो पुरानी संस्कृति में सब कुछ अच्छा ही है। बुरा तो कुछ भी नहीं है। उनको सारे विशेषाधिकार देकर उच्च और शासक वर्ग बनाने का काम पुरानी संस्कृति की व्यवस्था ही करती है। द्विज अपने इस स्वर्ग का परित्याग कैसे कर सकते हैं।” अत: अपने परिवार और समाज पर आरोप-प्रत्यारोप करना व्यर्थ है। वास्तव में इनके लिए स्वयं पुरानी संस्कृति से जुड़े रहना इनके लिए सुखदायी है।
कहानी में श्वेता के माध्यम से दलित स्त्री की यथास्थिति पर भी प्रकाश डाला गया है एक प्रसंग में उसने कहा है– “आपने ठीक ही लिखा है कि औरतें हर जगह गुलामों की भी गुलाम होती हैं।”
गांव में दलितों की यातनापूर्ण जीवन को भी उद्घाटित किया गया है। मिलिन्द अपने गांव को याद करते हैं कि किस तरह अगड़ी जातियों के बाहुबलियों द्वारा नरसंहार और बलात्कार किया गया। गांव की प्रत्येक चीज पर यहां तक कि पानी पर भी उनका कब्जा है और गरीबों की बहु-बेटियों पर भी। और इतनी हैवानियत भरी कृत्य के लिए प्रोत्साहन के बिंदु केवल एक हैं– ‘जातीय अभिमान’। उसी के धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति उसके लिए तुच्छ प्राणी है। तभी तो कहानी की एक पात्र शोभा भले ही कुछ क्षण के लिए कहानी में है, किन्तु दलित स्त्री की पीड़ा को अभिव्यक्त करते हुए उसने समाज के लिए एक कटु संदेश सामने रखा है। एक प्रसंग में उसने मिलिन्द से कहा– “मेरा गांव जाने का बिल्कुल मन नहीं। शहर में इज्जत है। वहां हर वक्त अपमान। जटिल और कुटिल लोगों से भरी है वो दुनिया।”
शोभा का यह कथन दलित स्त्री किस तरह अपमान के घूंट पीकर गांव में यातनापूर्ण जीवन व्यतीत करती है। इस कटु यथार्थ का पर्दाफाश है। इतना ही नहीं, बाहुबलियों द्वारा नरसंहार भी प्रमाणिक बनाने या कहानी में विशेष सहानुभूति डालने के लिए नहीं लिखी गई है। इसका प्रमाण भी हमें एक प्रसंग में जहां उसने मिलिन्द को अपने गांव जाने से मना करते हुए कहा है–“वहाँ मत आना… गांव अच्छा नहीं। बेवजह मारपीट पर उतार आते हैं लोग।” अब आप स्वयं अनुमान लगा लें कि जिन स्थानों पर बेवजह लोग मारपीट पर उतारू हो जाते हों, नरसंहार जैसी घटनाएं तो अवश्यंभावी हैं।
कहानी की भाषा परिवेश और वातावरण के आधार पर है। चूंकि कहानी की पृष्ठभूमि जापान है। अत: जापान में बोले जाने वाले कुछ विशेष शब्द भी कहानी में हैं। जैसे– प्रोफेसर मिलिन्द ने ‘सान’ शब्द का उपयोग किया है, जो एक आदरसूचक शब्द है। कहानी की भाषा मनोभावों को भी अभिव्यक्त करने मे सफल रही है। यथा – “टोक्यो महक रहा था … पूरा शहर साकुरा के फूलों के खिलने से उसकी मदहोशी में था, जैसे किसी प्रेमी की बाहों में पोर-पोर डुबो दिया हो।”
कहानी तभी सफल मानी जाती है, जब कहानी में सभी तत्व मौजूद हों। इस पक्ष का अनुसरण इस कहानी में भी किया गया है। वर्तमान समय की त्रासदी, कोरोना महामारी से प्रभावित जनजीवन का वर्णन हमें कहानी के आरंभ से लेकर अंत तक हमें मिलता है।
‘संक्रमण’ कहानी के कुछ पक्षों को लेकर उनकी आलोचना भी की गई है। कहानीकार के निष्कर्ष से कुछ आलोचक असहमत हैं। कहानी का निष्कर्ष है कि अंत में श्वेता ने प्रोफेसर मिलिन्द से माफी मांगते हुए मिलने की अनुमति मांगती है। आलोचकों का कहना है कि ऐसा संभव नहीं है कि श्वेता के हृदय में जाति विषमता का अंत हो सकता है। जबकि लेखक की मंशा देखें तो कहानी के अंत में लेखक ने साहित्य के प्रभाव को उद्घाटित किया है। साहित्य ने समाज के लिए हमेशा मार्गदर्शक का कार्य किया है। उसका प्रभाव हमारे जीवन में कई आमूल परिवर्तन करने की क्षमता रखते हैं। श्वेता के हृदय में यह परिवर्तन साहित्य के कारण ही संभव हो पाया। इसका उदाहरण हमें एक प्रसंग में मिलता है। मिलिन्द को भेजे हुए संदेश में श्वेता ने लिखा है– “इन तीन दिनों में, मैंने आपकी आत्मकथा पढ़ी और पहली बार उस दुख और अपमान को जाना और महसूस किया, शायद पहली बार इस तरफ ध्यान गया कि आपके लोगों को कैसे मजबूर किया जाता है, कैसे गुलाम बनाए रखा जाता है और वे लोग कैसे ताकतवर बने रहते हैं।”
एक और बिंदु पर आलोचक कहानीकार से असहमत हैं। एक प्रसंग में उत्तेजना और आवेश के क्षण में मिलिन्द ने श्वेता से मजाकिये लहजे में कहा – “दलित जो हूँ।” आलोचकों का कहना है कि ऐसे क्षण में इन वाक्यों का निकलना असंभव है। जबकि अगर तथ्यों पर ध्यान दें तो मिलिन्द के ऐसा कहने से ठीक पहले श्वेता ने मदहोशी में कहा था– “ओह एकदम राक्षस।” श्वेता के मुंह से ‘राक्षस’ शब्द सुनते ही मिलिन्द मानसिक रुप से अनार्यों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में चले जाते हैं। जब दलितों को अनार्य कहा जाता था, अनार्य अर्थात राक्षस। परिणामस्वरुप मस्तिष्क में अनार्य और दलित के अंत:संबंध के तथ्य के आने से उत्तेजना और आवेश के क्षण में भी मिलिन्द ने कहा- “दलित जो हूँ।”
बतौर निष्कर्ष यह कहा जा सकता है कि अजय नावरिया की यह कहानी वर्तमान समय में दलितों के जीवन की वास्तविक त्रासदी को अभिव्यक्त करने में सफल रही है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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