आपातकाल (1975-77) के दौरान सभी समाजवादी नेता एक मंच पर आए। उन्होंने एक साथ मिल कर 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनाई। अपने चुनाव घोषणापत्र में जनता पार्टी ने वायदा किया था कि वह पिछड़ी जातियों और समुदायों के लोगों की सामाजिक और शैक्षणिक बेहतरी के लिए कदम उठाएगी। इस तरह, पिछड़ी जातियों का सामाजिक विकास एक बार फिर भारतीय राजनीति और समाज की मुख्यधारा के आख्यान का हिस्सा बना। पिछड़ी जातियों के सामाजिक और शैक्षणिक सशक्तिकरण के अपने वायदे को पूरा करने के लिए जनता पार्टी सरकार ने 1 जनवरी, 1979 को बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में एक छह-सदस्यीय समिति का गठन किया। इसे मंडल आयोग के नाम से जाना जाता है। जनता पार्टी की सरकार पिछड़ी जातियों के किसानों, मजदूरों और अन्यों के सामाजिक व शैक्षणिक सशक्तिकरण के प्रति प्रतिबद्ध थी। इन वर्गों के साथ अतीत में जो अन्याय हुआ था, उसे पलटने का प्रयास करने की बजाय सरकार उनके साथ सामाजिक न्याय करना चाहती थी।
मंडल आयोग के गठन के बाद मैंने तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई व जगजीवन राम और चौधरी चरण सिंह से मिलकर उन्हें यह महत्वपूर्ण और आवश्यक पहल करने के लिए धन्यवाद दिया। दुर्भाग्यवश, आतंरिक राजनीति और षड़यंत्रों की वजह से सन् 1979 में जनता पार्टी सरकार गिर गई। जनवरी 1980 में हुए आम चुनाव में कांग्रेस ने बहुमत हासिल किया और अपनी सरकार बनाई।
सन 1931 की जनगणना की रपट और 11 सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक सूचकांकों के आधार पर मंडल आयोग ने 3,743 अलग-अलग जातियों और समूहों को ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ (ओबीसी) में शामिल किया। आयोग का अनुमान था कि ओबीसी देश की कुल आबादी का 52 प्रतिशत हैं। मैंने 1979 में बी.पी. मंडल और चौधरी चरण सिंह के बीच कई बैठकें आयोजित करवाईं। उत्तर प्रदेश और हरियाणा का समृद्ध जाट समुदाय आपने भोलेपन के चलते अपने आप को पिछड़ा वर्गों में शामिल करना नहीं चाहता था।
भरतपुर के जाट नेताओं का एक बड़ा प्रतिनिधिमंडल चौधरी चरण सिंह से मिला और उनसे अनुरोध किया कि वे यह सुनिश्चित करें कि मंडल आयोग की रपट में जाटों को पिछड़े वर्गों में शामिल न किया जाए। मंडल ने वैसे भी उन्हें ओबीसी में शामिल नहीं किया था। मंडल आयोग ने दिसंबर 1980 में अपनी रपट तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह को प्रस्तुत की। मंडल आयोग की एक प्रमुख सिफारिश यह थी कि केंद्र सरकार और केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों के अधीन सेवाओं में ‘सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों’ को 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाए। राष्ट्रपति को रपट प्रस्तुत करने के बाद, मंडल, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलने पहुंचे। उन्होंने मंडल को काफी इंतज़ार करवाया। दोनों की मुलाकात वैसी ही रही जैसी अपेक्षित थी। प्रधानमंत्री से मुलाकात के बाद, मंडल काफी विचलित और परेशान थे। वे सीधे मेरे घर आए और मुलाकात के बारे में पूछने पर बोले, “मैं अपनी रिपोर्ट गंगा में विसर्जित कर आया हूँ।” उन्हें पक्का भरोसा था कि सरकार उस पर कोई कार्यवाही नहीं करेगी।
उस समय (सातवीं लोकसभा) मैं सांसद नहीं था। फिर भी मैंने लोकदल और जनता पार्टी के सदस्यों से संपर्क कर संसद में मंडल आयोग की रपट पर सार्थक चर्चा सुनिश्चित करवाने का प्रयास किया। परन्तु मंडल जो सोच रहे थे वही हुआ। रपट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। सन् 1988 के 11 अक्टूबर को जनमोर्चा, जनता पार्टी, लोकदल और कांग्रेस (एस) के विलय से जनता दल का गठन हुआ और विश्वनाथ प्रताप सिंह को नई पार्टी का अध्यक्ष चुना गया। सन् 1989 के आम चुनाव में जनता दल और क्षेत्रीय दलों का संयुक्त गठबंधन सत्ता में आया। इसमें शामिल थे द्रविड़ मुनेत्र कषगम, तेलुगू देशम और असम गण परिषद। इस गठबंधन का नाम था राष्ट्रीय मोर्चा (भारत)। वी.पी. सिंह इसके संयोजक थे और एन.टी. रामाराव, अध्यक्ष।
मेरी शुरू से ही यह मान्यता थी की मंडल आयोग ने एक महत्वपूर्ण और अनूठा काम किया है। उसने तथ्यों और आकंड़ों के साथ भारतीय समाज में व्याप्त सामाजिक असमानताओं को उजागर किया है और अतीत में इन वर्गों के साथ हुए अन्याय को देश के समक्ष रखा है। परन्तु दस सालों तक सरकार ने उसकी सिफारिशों पर कोई ध्यान नहीं दिया।
मंडल आयोग ने अपनी रपट में हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई धर्म में आस्था रखने वाले पिछड़े वर्गों को ओबीसी में शामिल किया था। जनता पार्टी और लोकदल ने इन सभी पिछड़े वर्गों को न्याय दिलवाने के लिए आन्दोलन शुरू किया था और उनके चुनाव घोषणापत्र में मंडल आयोग की रपट लागू करने का वायदा किया गया था। इस वायदे ने पिछड़े वर्गों में आशा का संचार किया और उन्होंने 1989 के चुनाव में जनता दल को समर्थन दिया। अपने गठबंधन साथियों के साथ राष्ट्रीय मोर्चा ने लोकसभा में साधारण बहुमत हासिल कर लिया और दिसंबर 1989 में वी.पी. सिंह देश के सातवें प्रधानमंत्री बने। सरकार के गठन के कुछ ही समय बाद पिछड़े वर्गों की आशाएं धूमिल होने लगीं क्योंकि सरकार में शामिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पूर्व सदस्य मंडल आयोग की रपट लागू करने के खिलाफ थे। उनकी बहुजन राजनीति इन वर्गों के वोट हासिल करने तक सीमित थी। वे उन्हें पिछड़ा ही रखना चाहते थे। नतीज़ा यह हुआ की पिछड़े वर्गों का जनता दल सरकार से मोहभंग होने लगा। वे निराश और परेशान हो गए। इस स्थिति से समाजवादी नेता चिंतित हो गए। लोकदल के कुल 70 सांसद थे, परन्तु कैबिनेट में उसका प्रतिनिधित्व उसके संख्या बल के अनुपात में नहीं था। जनता दल को प्रधानमंत्री का पद तो मिला ही था, अन्य कई महत्वपूर्ण मंत्रालयों जैसे गृह, विदेश, रक्षा इत्यादि पर भी उसके मंत्रियों का कब्ज़ा था। इन हालातों में सबको जोड़े रखना मुश्किल होता जा रहा था। इसके अलावा, पिछड़े वर्गों में असंतोष बढ़ रहा था।
इसलिए हमलोगों ने सभी समाजवादी नेताओं को इकट्ठा कर जनता दल सरकार पर यह दबाव बनाना शुरू किया कि वह मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने का अपना चुनावी वायदा निभाए। हमारा यह मानना था की इसके बिना शूद्रों के साथ न्याय करना संभव नहीं होगा। वी.पी. सिंह के साथी इस प्रस्ताव के घनघोर विरोधी थे। वी.पी. सिंह ने सिफारिशों पर विचार करने के लिए उपप्रधानमंत्री और प्रमुख जाट नेता चौधरी देवीलाल की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। वे जानते थे कि चौधरी चरणसिंह के हस्तक्षेप के कारण मंडल ने जाटों को पिछड़ी जातियों की सूची में शामिल नहीं किया था। परन्तु कई जाट नेता और उनके संगठन अपने समुदाय के राजनैतिक नेताओं पर दबाव बना रहे थे कि जाटों को भी आरक्षण का पात्र घोषित किया जाय। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए, वी.पी. सिंह ने एक चाल चली। वे जानते थे कि सबसे प्रमुख जाट नेता बतौर देवीलाल कभी पिछड़े वर्गों में जाटों को शामिल किये बगैर मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू नहीं होने देंगे। इस बीच जनता दल के महासचिव और केंद्रीय उद्योग मंत्री अजीत सिंह ने भी पिछड़े वर्गों के अधिकारों की पैरवी करनी शुरू कर दी और जोर देकर कहा कि ओबीसी सूची में जाटों को भी शामिल किया जाना चाहिए। देवीलाल दुविधा में फंस गए। एक ओर वे यह नहीं चाहते थे कि जाटों को ओबीसी में शामिल करवाने का श्रेय अजीत सिंह लूट लें तो दूसरी और वे जाटों को शामिल किये बगैर मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का खतरा मोल लेना भी नहीं चाहते थे। उन्हें डर था कि इससे जाट उनसे बेहद नाराज़ हो जाएंगे। वी.पी. को लगा कि यह राजनीति मंडल आयोग पर चर्चा का अंत कर देगी।
(यह हाल ही में पेंग्विन बुक्स, दिल्ली द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘द शूद्रज् – विज़न फॉर ए न्यू पाथ’ का अंश है। इस पुस्तक का संपादन कांचा इलैया शेपर्ड और कार्तिक राजा करुप्पसामी ने किया है)
(संपादन : नवल/अनिल, अनुवाद : अमरीश हरदेनिया)
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