हाल ही में केंद्र सरकार ने लैटरल इंट्री के जरिए निजी क्षेत्र के 30 विशेषज्ञों को केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों में संयुक्त सचिव एवं निदेशकों के पदों पर नियुक्ति के लिए आवेदन आमंत्रित किया है। इससे न सिर्फ सामाजिक न्याय की हत्या होगी बल्कि नौकरशाही का राजनीतिकरण भी होगा। इससे भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
सर्वविदित है कि संवैधानिक प्रक्रिया के द्वारा गठित संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) हर साल प्रशासनिक सेवाओं के लिए परीक्षा आयोजित कराता है। इसके तहत भारतीय संसद द्वारा स्वीकृत आरक्षण का प्रावधान भी हाेता है, जिसके कारण आरक्षित वर्गों के अभ्यर्थियों को लाभ मिलता है। परंतु, सरकार के नये फैसले से अब उसकी भी प्रासंगिकता एवं अधिकार पर प्रश्न खड़ा हो गया है। जबकि भारत के संविधान के भाग 3 एवं भाग 4 के अनुच्छेद 15, 16 एवं 46 में इस बात का वर्णन है कि सरकार दलित, पिछड़े एवं वंचित वर्गों के उत्थान के लिए कार्य करेगा एवं शिक्षा, सरकारी नौकरी एवं राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने के लिए विशेष प्रावधान बनाएगा। अब यदि लैटरल इंट्री के लागू हो जाने के बाद यह सभी विशेष प्रावधान खत्म हो जाएंगे।
यह तथ्य विचारणीय है कि निजी क्षेत्र में आरक्षण नहीं होने की वजह से वंचित समुदायों को नुकसान उठाना पड़ रहा है। सुखदेव थोराट एवं अश्विनी देशपांडे ने अपने एक शोध से बताया है कि निजी क्षेत्र में दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक वर्गों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है। यदि प्रतिनिधित्व है भी तो ग्रुप डी एवं नीचे के स्तर की समझी जाने वाली नौकरियां जैसे सफाई कर्मचारी, आदेशपाल आदि शामिल हैं।

वर्ष 2019 में दिल्ली स्थित नार्थ ब्लॉक में भ्रमण हेतु प्रवेश करते प्रशिक्षु आईएएस अधिकारी (फाइल फोटो)
लैटरल इंट्री का दूसरा खतरा यह है कि नौकरशाही का राजनीतिकरण भी आरंभ हो जाएगा। स्वतत्रंता के बाद से पूरे भारतवर्ष में अभी तक नौकरशाही स्वतंत्र होकर कार्य करती थी। इसका प्रमुख कारण यह था कि आज तक जितनी भी प्रशासनिक सेवाओं की नियुक्ति हुई है उसे संघ लोक सेवा आयोग ने अंजाम दिया। संविधान के भाग 14 के अनुच्छेद 320 के तहत यूपीएससी अपनी शक्ति का इस्तेमाल कर सफल अभ्यर्थियों की सूची केंद्र सरकार को सौंपती है तब केंद्र सरकार उनकी नियुक्ति करती है। इसी प्रकार अलग-अलग राज्यों में राज्य लोक सेवा आयोगों की स्थापना की गई है। लेकिन लैटरल इंट्री में यह सभी प्रक्रिया नहीं होगी, जिसके बाद प्रशासनिक सेवा भी राजनीति की गिरफ्त में आ जाएगी एवं वह निष्पक्ष होकर कार्य नहीं कर सकेगी। इसी संबंध में एक बार सरदार पटेल ने कहा था कि “मैं चाहता हूं कि मेरे सचिव मेरे सामने आजादी के साथ अपने विचार रख सकें, जो मेरे विचार से अलग हो सकते हैं और इस देश को एक साथ जोड़े रखने के लिए ये सेवाएं अनिवार्य हैं।”
सबसे महत्वपूर्ण यह कि लैटरल इंट्री के तहत जिन पदों के लिए आवेदन मांगे गए हैं, उनमें कोई पारदर्शिता नहीं है। इसका फायदा उन लोगों को मिलेगा जो सरकार के निकट है। इससे घोर पूंजीवाद और भाई-भतीजावाद बढ़ेगा। साथ ही एक खास विचारधारा एवं जाति विशेष के लोगों को फायदा पहुंचेगा। स्मरण रहे कि इससे पहले भी केंद्र सरकार ने लैटरल इंट्री के तहत निजी क्षेत्र के 9 विशेषज्ञों को विभिन्न विभागों में संयुक्त सचिव के पदों पर नियु्क्त किया है। इन नौ विशेषज्ञों में अंबर दुबे (नागरिक उड्डयन), अरुण गोयल (वाणिज्य), राजीव सक्सेना (आर्थिक मामले), सुजीत कुमार बाजपेयी (पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन), सौरभ मिश्रा (वित्तीय सेवाएँ), दिनेश दयानंद जगदाले (नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा), सुमन प्रसाद सिंह (सड़क परिवहन और राजमार्ग), भूषण कुमार (शिपिंग) और काकोली घोष (कृषि, सहयोग और किसान कल्याण) शामिल हैं।
कहने की आवश्यकता नहीं है कि कि अधिकतर मंत्रालयों की नियुक्तियों में एक विशेष विचारधारा एवं जाति विशेष के लोगों को ही नियुक्तियां दी गई हैं। यह सामान्य तरीके से आरक्षित वर्गों के साथ किये जाने वाले अन्याय के अतिरिक्त है। हाल ही में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) एवं दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) में हुई नियुक्तियों में खास विचारधारा और जातियों के लोगों को तरजीह दी गई है।
लैटरल इंट्री के चलन से निजीकरण को बढ़ावा मिलेगा। बताते चलें कि यूपीएससी द्वारा आयोजित सिविल सर्विसेज परीक्षा के लिए 2014 में 1364 सीटें थीं। लेकिन वर्ष 2020 में मात्र 796 रह गईं। यानी सीटों में करीब 40 फीसदी से अधिक की कमी हुई। जाहिर तौर पर आरक्षित वर्गों की सीटें भी कम हुईं।
इसके अलावा लैटरल इंट्री का असर सरकार के तंत्र पर पड़ सकता है। इस नए व्यवस्था के जरिए चयनित अधिकारियों के आने से पहले से ही यूपीएससी के द्वारा चयनित अधिकारियों के बीच तनाव भी देखने को मिल सकता है। इससे प्रशासन एवं सरकार के बीच तालमेल बिठाने में समस्या आएगी। इसके अलावा नियुक्त किए गए अधिकारियों की जिम्मेदारी को लेकर भी प्रश्न है। सवाल उठता है कि क्या लैटरल इंट्री के द्वारा चयनित अधिकारी अपने निजी स्वार्थ को राष्ट्र से बड़ा नहीं मानेंगे?
(संपादन : नवल/अनिल)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in
फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें
मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया
An informative article on the latest scenario.
Very very nice Sarkar lateral entry se a Jo Niyukti kar rahi hai hai aaj Nahin to cal Inko hi bahut Mushkil Hogi ham log to sabse Padhi likhe Samaj yah com Se Hain Sarkar Hamari hi andhe ki kar rahi hai yah Hamare Sang Aaj Ko samajhna Hoga Nikhil Ji Ne yah Jankari De iske liye nikal ji ka bahut bahut dhanyva