संत गाडगे (23 फरवरी, 1876 – 20 दिसम्बर, 1956) पर विशेष
सुप्रसिद्ध वैयाकरण पतंजलि (द्वितीय शताब्दी ई.) ने लिखा है कि “श्रमण और ब्राह्मण एक दूसरे के ‘शाश्वत शत्रु’ (विरोध: शाश्वतिक:) हैं वैसे ही जैसे सांप और नेवला।” (द व्याकरण महाभाष्य ऑफ पतंजलि, 2.5.9, तीसरा संस्करण, पूना, 1961, खंड-1, पृ.476) ब्राह्मणों और श्रमणों के बीच में यह शाश्वत विरोध प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक चलता रहा और आज भी चल रहा है। श्रमण परंपरा मेहनतकश उत्पादक वर्गों-जातियों की न्याय, समता एवं बंधुता पर आधारित परंपरा रही है। इसके विपरीत ब्राह्मण परंपरा वर्ण-जाति असमानता, अन्याय और ऊंच-नीच के श्रेणीक्रम पर आधारित नफरत पर टिकी रही है।
ब्राह्मणवादी परंपरा को अनेक व्यक्तित्वों ने विभिन्न युगों में चुनौती दी, जिनमें बुद्ध, कबीर, रैदास और जोतीराव फुले जैसे बहुजन महानायक शामिल हैं। जिस एक व्यक्तित्व में बुद्ध, कबीर और जोतीराव फुले के स्वर एक साथ सुनाई पड़ते हैं, उनका नाम है, संत गाडगे। संत गाडगे के संदेशाें में बुद्ध की करुणा एवं बंधुता का संदेश देता है और बुद्ध की तरह उन्होंने भी गृहत्याग किया, तो दूसरी ओर कबीर की तरह की तरह ब्राह्मणों को फटकार लगाई। वे उनके पोंगापंथ को चुनौती देते है तथा कहते हैं कि ईश्वर मंदिर-मस्जिद में नहीं, हृदय में निवास करता है। वे एक सूफी संत की वाणी का उल्लेख करते हुए कहते हैं –
मस्जिद ढा दे, मंदिर ढा दे, ढा दे जो कुछ ढैंदा।
इक किसी का दिल ना ढावें, रब दिलां बिच रैंदा।।
वे ईसा मसीह की तरह यह कहते हैं कि मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है और मानव सेवा ही मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है। बाबा गाडगे जोतीराव फुले की तरह अज्ञानता को सबसे बड़ा अंधकार मानते हैं और शिक्षा को इस अंधकार को दूर करने वाली मशाल। उनका ईश्वर कबीर, रैदास और जोतीराव फुले की तरह निर्गुण-निराकार और न्याय का प्रतीक है, जिसे मनुष्य मात्र से प्रेम करके ही पाया जा सकता है। सच तो यह है कि संत गाडगे बुद्ध की तरह ईश्वर पर बहस को ही सिरे से खारिज करते हैं और ज्ञान को ही ईश्वर कहते हैं। वे मानव जाति की उन्नति और सेवा को अपने जीवन का मूल ध्येय बना लेते हैं। ये वहीं विचार हैं जिनसे डॉ. आंबेडकर भी प्रभावित रहे तथा उन्होंने इन तीनों को अपना गुरू माना।
बुद्ध की करुणा और ईसा की मानव सेवा को जीवन का ध्येय बनाकर संत गाडगे कुष्ठ रोगियों के लिए कुष्ठ धाम का निर्माण करते हैं, वे कुष्ठ रोगियों के निवास स्थल को धाम (तीर्थ स्थान) कहते हैं और उनकी सेवा को सबसे बड़ा पुण्य कार्य। ऊपर से भले ही यह धार्मिक शब्दावली दिखती हो, लेकिन कुष्ठ रोगियों के प्रति उनका नजरिया पूरी तरह वैज्ञानिक और आधुनिक रहा। इस संदर्भ में उनका कहना था कि “कोढ़ी ने कोई पाप नहीं किया है। यह एक विकट बीमारी है, जो कुछ लोगों को पकड़ लेती है। यह एक खतरनाक बीमारी है, जिसे हो जाता है, वह मृतप्राय हो जाता है।” (श्री गाडगे महराज, गोपाल नीलकांथ दांडेकर, पुने, 2009, पृ.261) उन्होंने कहा कि कुष्ठ रोगियों को इलाज के साथ करूणा और प्रेम की जरूरत है। कुष्ठ रोगियों के लिए उन्होंने नासिक और पंढ़रपुर में एक बड़ा कुष्ठ आश्रम और चिकित्सालय बनवाया। वे स्वयं कुष्ठ रोगियों की सेवा करते थे। इसके साथ उन्होंने वृद्ध और असहाय लोगों के लिए भी आश्रम बनवाए। उन्होंने बेसहारा महिलाओं की मदद और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए विभिन्न तरह के प्रशिक्षण संस्थान खोले।
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बुद्ध की तरह करूणा और कबीर की तरह प्रेम बाबा गाडगे का मूल जीवन मूल्य है। कबीर की तरह ही वे ब्राह्मणवादियों से तीखे सवाल भी करते हैं। देवदासी प्रथा पर ब्राह्मणों से वे यह तीखा सवाल पूछते हैं कि आखिर आप लोग अपनी बेटियों को देवदासी क्यों नहीं बनाते हैं? इस संदर्भ में उन्होंने कहा कि “येलम्मा देवी हैं। अनपढ़ अछूत, शूद्र लोग देवी को खुश करने के लिए अपनी छोटी बच्चियों की शादी उनसे कर देते हैं। ये छोटी बच्चियां देवदासी कहलाती हैं, मजबूरन दिन-रात पंडे पुजारियों के काम-वासना का शिकार होती हैं।” वे कहते हैं कि येल्लम्मा देवी हैं, देवता नहीं। तो फिर ये पंडे देवी के साथ लड़कियों की शादी क्यों करवाते हैं? उनकी शादी तो लड़के के साथ होनी चाहिए। पंडे (ब्राह्मण) अपनी लड़कियों की शादी देवी से क्यों नहीं करवाते? (स्रोत : संत गाडगे ओर उनका जीवन संघर्ष, इं. राजेन्द्र प्रसाद, पृ. 53)
वे कबीर की तरह छुआछूत के संदर्भ में यह तीखा सवाल करते हैं कि “महार, चमार, भंगी के संपर्क से तुम्हारा लोटा-थाली अशुद्ध हो जाता है, तो उसे तुम अग्नि में जलाकर शुद्ध करत हो? लेकिन स्वयं उनके संपर्क में आने पर अपने आपको जलाकर शुद्ध क्यों नहीं करते हो? चमार का बनाए चमड़े का ढोलक, झाल-मजीरा बजाने से मंदिर अपवित्र नहीं होता, लेकिन उसे बनाने वाला चमार मंदिर में चला जाए तो मंदिर अपवित्र हो जाता है। हिंदुओं के लिए मरे जानवर (गाय-भैंस) की चमड़ी पवित्र है, लेकिन जिंदा मनुष्य अपवित्र है।” (वही, पृ. 48) गाडगे यह भी पूछते हैं कि जो व्यक्ति गाय का मूत्र पीकर अशुद्ध नहीं होता, वह किसी इंसान की छाया पड़ने से कैसे अपवित्र हो जाता है? क्या यह ढोंग और पाखंड नहीं है? मंदिर की मूर्तियों पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि “ब्राह्मण और पुरोहित धर्मांधता फैलाकर अपनी रोजी-रोटी और वर्चस्व कायम करने के लिए ऐसा करते हैं। झूठ और फरेब फैलाते हैं। वे पत्थर की मूर्तियों में प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं। परंतु, अपने मृत माता या पिता में जान नहीं फूंक सकते हैं।” (वही, पृ.51) मूर्तियों को खरीदने-बेचने पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि क्या भगवान को खरीदा-बेचा जा सकता है। वे तीर्थ यात्रा, मंदिर में पूजा और संगम में स्नान को व्यर्थ का पाखंड कहते थे।
संत गाडगे अपने वाह्यरूप और क्रिया-कलापों में परंपरागत साधु लगते थे, लेकिन उनकी चेतना पूरी तरह जोतीराव फुले की तरह आधुनिक थी। इसकी अभिव्यक्ति उनके द्वारा स्थापित शिक्षा संस्थाओं में होती हैं। उन्होंने अपने जीवन में सबसे अधिक शिक्षा संस्थाओं का निर्माण किया। उनके जीते-जी 8 फरवरी 1952 को स्थापित ‘गाडगे महराज मिशन’ मिशन ट्रस्ट ने सबसे अधिक शिक्षा संस्थाओं का निर्माण किया और यह कार्य गाडगे बाबा के निधन के बाद भी उनके द्वारा बनाए ट्रस्ट द्वारा जारी जारी रहा। आधुनिक युग के सभी बहुजन नायकों ने सर्वाधिक जोर बहुजनों के शिक्षित करने पर दिया, क्योंकि ब्राह्मणों ने बहुजनों के शिक्षा पाने के अधिकार से वंचित कर दिया था और शिक्षा के अभाव ने उन्हें ब्राह्मणों का गुलाम बना दिया। इस स्थिति की सबसे सटीक अभिव्यक्ति जोतीराव फुले ने इन शब्दों में की है-
विद्या बिना मति गई, मति बिना गति गई,
गति बिना नीति गई, नीति बिना वित्त गई
वित्त बिना शूद्र टूट गए,
इतना सारा अनर्थ एक अविद्या से हुआ
(गुलामगिरी, जोतीराव फुले)
डॉ. आंबेडकर ने तो शिक्षित बनो! संघर्ष करो! और संगठित हो! का नारा ही दिया।
बहुजनों के शिक्षा के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले कई सारे बहुजन नायक खुद निरक्षर थे। इसके सबसे बड़े प्रमाण संत गाडगे और केरल के महान दलित विद्रोही अय्यंकाली हैं। दोनों निरक्षर थे, लेकिन दोनों ने शिक्षा संस्थाओं के निर्माण और बहुजनों को शिक्षित करने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया।
आमतौर पर संतों-महात्माओं से दूरी बनाकर रखने वाले डॉ. आंबेडकर भी संत गाडगे के आधुनिक विचारों एवं सबको शिक्षित करने के अभियान का अत्यंत आदर करते थे और दोनों के बीच कई बार संवाद और भेंट-मिलाप भी हुआ, क्योंकि दोनों का उद्देश्य बहुजन समाज की ब्राह्मणवाद के शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति थी, सिर्फ इस कार्य को अंजाम देन के तरीके-तरीके भिन्न-भिन्न थे। डॉ. आंबेडकर के परिनिर्वाण पर बाबा गाडगे ने अपना मार्मिक भावोद्गार इन शब्दों में प्रकट किया- “बाबा साहेब आंबेडकर दलित समाज के सात करोड़ बालकों को छोड़कर चले गए। उनकी मृत्यु से ये सभी बच्चे अनाथ और निराधार हो गए। अभी-अभी ये बच्चे बाबा साहेब का हाथ पकड़कर चलने-फिरने लायक बने थे।” (संत गाडगे बाबा, के.जी. बानखड़े गुरूजी, प्रकाशन विभाग, सूचना प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण 1995, पृ.45)
(संपादन : नवल/अमरीश)
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