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जातिवाद का घृणात्मक आख्यान कृष्णा सोबती का उपन्यास “मित्रो मरजानी”

कृष्णा सोबती स्वयं एक स्त्री थीं। लेकिन दलित उपेक्षित वर्ग से आने वाली स्त्रियों के प्रति उनके अंदर किस कदर घृणा है, उनके द्वारा “मित्रो मरजानी” उपन्यास में उपयोग किए गए शब्दों से यह साफ हो जाता है। बता रही हैं पूनम तुषामड़

हिंदी साहित्य में जाति विमर्श

कृष्णा सोबती (18 फरवरी, 1925 – 25 जनवरी, 2019) द्वारा रचित एक लघु उपन्यास या कहें कि एक लम्बी कहानी है “मित्रो मरजानी”। इसमें एक ठाकुर किसान परिवार की कहानी है। इस कहानी की नायिका है इस परिवार की मंझली बहु “सुमित्रावंती”, जिसका पारिवारिक नाम लेखिका ने ‘मित्रो’ दिया है। मित्रो के विषय में लेखिका ने स्वयं लिखा है कि “मित्रो ने एक विवादास्पद नारी-चरित्र की तरह हिंदी साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश किया।” उनकी यह रचना साहित्य जगत में काफी चर्चित रही। लेखिका आगे कहती हैं कि यह न रवींद्र की ओस-जैसी नारी है, न शरत या जैनेन्द्र की विद्रोहिणी गुत्थी! इसे आदर्श का मोह नहीं है। न समाज का भय है और ना ही ईश्वर का! इसके लिए किसी विशेषण की आवश्यकता नहीं है। यह मात्र मांस-मज्जा से बनी एक नारी है, जिसमें स्नेह है, ममता है, मां बनने का हौसला है और एक अविरल बहती वासना सरिता भी।” लेकिन यह केवल एक पक्ष है। साहित्य के जरिए दलितों के प्रति समाज में कितनी घृणा फैलाई गई थी, इसका एक उदाहरण स्वयं कृष्णा सोबती हैं। उनकी यह रचना “मित्रो मरजानी” उनके भीतर बैठे उसी “जातिवाद” का घृणात्मक आख्यान है।

कृष्णा सोबती के उपन्यास “मित्रो मरजानी” के पात्र मित्रो के चरित्र की प्रशंसा करते हुए जय प्रकाश पांडेय ने लिखा है कि “यह कृष्णा सोबती की लिखी हुई एक ऐसी कहानी है, जो एक आम मध्यमवर्गीय परिवार में घटित होती है। वह ‘मित्रो’ के बहाने स्त्री को उसकी इच्छाओं के लिए जीने, जूझने और लड़ने का हथियार देती हैं। मित्रो के रूप में कृष्णा सोबती ने एक ऐसा कैरेक्टर दिया, जो खुद से प्यार करती है और अपनी इच्छाओं को पूरा करने में संकोच नहीं करती। वह अपने अधिकारों के लिए बोलती भी है और झगड़ती भी। वह खुद के लिए जीना चाहती है, लेकिन उसकी इच्छाएं दबी रह जाती हैं। बॉलीवुड की कई फिल्में इसी विषय पर बनीं कि आखिर एक महिला अपने ‘सेक्स डिजायर’ का क्या करे। नारी शुचिता के नाम पर एक स्त्री देह आखिर क्यों दबे? 

यहां जय प्रकाश पांडेय की इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि आखिर स्त्री ही ‘दैहिक शुचिता’ के नाम पर क्यों सदैव अपनी ‘सेक्सुअल डिज़ायर को छुपाए। परंतु, क्या यह विचार इतना सरल है? क्या वाकई आम मध्यमवर्ग की स्त्रियां या किसी भी वर्ग की स्त्रियां भारत जैसे देश में कृष्णा सोबती की स्त्री पात्र ‘मित्रो’ से प्रेरणा पा सकती हैं? जिस समाज में स्त्रियों को अपने अपने सम्मान और इज्जत की बलि चढ़ा दिया जाता है, लिंग के आधार पर भ्रूण हत्या कर दी जाती है और जाति एवं वर्णव्यवस्था के आधार पर उससे बलात्कार किया जाता है, मित्रों की तरह क्या किसी ठाकुर किसान परिवार की बहु इतने खुलेपन और बेबाकी से अपने जेठ तक को अपने साथ संबंध बनाने का खुला आमंत्रण अपनी जेठानी के सामने ही दे सकती है? शायद नहीं। सामान्यतः स्त्रियां ऐसी नहीं होतीं, जैसी कृष्णा सोबती ने मित्रो को चित्रित किया है।

कृष्णा सोबती (18 फरवरी, 1925 – 25 जनवरी, 2019)

महादेवी वर्मा ने अपनी रचना “तोड़ दो यह क्षितिज मैं भी देख लूँ उस पार क्या है” में कहा है कि भारतीय समाज में जहां पितृसत्ता केवल पुरुषों में ही नहीं, स्त्रियों में भी गहरे जड़ जमाए बैठी है, वहां स्त्रियों द्वारा भी किसी स्त्री को उसके ऐसे चरित्र के साथ स्वीकार नहीं किया जाता। इतना ही नहीं, स्त्रियां स्वयं भी खुद को केवल दैहिक परिधि में बांध कर नहीं देखना चाहतीं। उनकी स्वतंत्रता के मायने केवल दैहिक स्वतंत्रता नहीं है, बल्कि वे समाज के विभिन्न वर्जित क्षेत्रों की परिधि को लांघकर उस से आगे देखने की आकांक्षी हैं। 

इसमें कोई संदेह नहीं कि ‘मित्रो मरजानी’ उपन्यास की यह पात्र ‘मित्रो’ सही मायने में एक विवादास्पद नारी चरित्र है, जो सोबती के बाकी स्त्री पात्रों से कहीं अधिक उच्छश्रृंखल, मुंहफट और निर्भीक है, जिसे न समाज का भय है और ना ही परिवार का। वह पारिवारिक रिश्तों में मर्यादित होकर नहीं रह सकती। लेकिन मित्रो के इस अद्भुत काल्पनिक चरित्र की कथा गढ़ते-गढ़ते कृष्णा सोबती समाज में ‘दलित’ कही जाने वाली जातियों के प्रति अपनी किस प्रकार की ‘जातिवादी घृणा’ को परोसती चली गईं, इस पर किसी ने कभी विचार नहीं किया। एक वजह यह कि हमारे साहित्यिक बुद्धिजीवी वर्ग का एक बड़ा तबका उसी तथाकथित द्विज अथवा सामंती वर्ग का हिस्सा है, जो संभ्रांत और शिक्षित होते हुए भी अपनी जातिवादी मानसिकता की परिधि से बाहर नहीं निकल पाता। इसमें ज्यादा बड़ी संख्या पुरुषों की रही है, जिनके लिए एक स्त्री लेखिका द्वारा गढ़ी गई ‘मित्रो’ जैसी नारी चरित्र, जो अपनी शारीरिक इच्छाओं के बारे में बेझिझक बोलती है, एक अत्यंत ‘बोल्ड’ चरित्र उन्हें चौंकाने और रोमांचित करने के लिए काफी था। इसलिए ‘मित्रो’ को कितनी बार और कैसे-कैसे जाति सूचक गालियां दी गईं, इस पर किसी को बात करना जरुरी नहीं लगा।

लेखिका कृष्णा सोबती की एक पुरानी तस्वीर

मसलन, इस उपन्यास के पृष्ठ संख्या 4 पर मित्रो का पति सरदारी लाल कहता है कि “यह कूड़ा मेरे भाग रखा था! इससे तो कोई चुहड़ी-चमारन अच्छी थी।” अब इसके पीछे तर्क दिया जा सकता है कि आम बोलचाल की भाषा में तो ऐसे शब्द आ ही जाते हैं और इन पर उस समय तक कोई न तो कोई आपत्ति जताई जाती थी और ना ही किसी प्रकार का विरोध ही दर्ज़ किया जाता था। यहां यह बताना आवश्यक है कि कृष्णा सोबती ने यह उपन्यास 1966 में लिखा है। जबकि भारत में दलित-बहुजन आंदोलन की शुरुआत जोतीराव फुले 19वीं शताब्दी में ही कर चुके थे। डॉ. आंबेडकर 1920 से समाज में जबरन व्यवस्था के निचले पायदान पर धकेल दिए गए दलितों, व उपेक्षित जातियों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग कर रहे थे। इसके अलावा 20 दिसंबर, 1927 को महाड़ आंदोलन और 25 मई, 1927 को मनुस्मृति दहन कर चुके थे। इसके पश्चात् देश के अलग अलग हिस्सों में अस्पृश्य जातियों के आंदोलन हुए। कई गैर दलित-बहुजन महापुरुषों ने भी अछूतोद्धार के आंदोलन चलाए। इन सबसे अलग भी यदि बात की जाए तो 1947 में भारत आजाद हो चुका था और 1950 में इस देश का संविधान भी बन चुका था, जिसमें स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि किसी को जातीय आधार पर अपमानित नहीं किया जा सकता। तो क्या कृष्णा सोबती के मामले में यह मान लिया जाय कि एक अत्यंत संभ्रांत परिवार से संबंध रखने वाली, पढ़ी-लिखी, जागरूक आधुनिक महिला इन आन्दोलनों और संवैधानिक कानूनों को नहीं जानती समझती थीं? यदि नहीं, तो क्या वह जानबूझकर परवाह नहीं करती थीं? या वह इसे विचारणीय प्रश्न ही नहीं मानती थीं कि किसी की ‘जाति’ का नाम इतनी घृणा और हिकारत से लेकर आप एक पूरी कौम का अपमान कर रही हैं? बतौर उदाहरण यह कि मित्रो का पति सरदारी लाल जब उसपर गुस्सा करते हुए चुहड़ी-चमारन से तुलना करता है। कृष्णा सोबती चाहतीं तो वह इस वाक्य को किसी और रूप में भी लिख सकती थी। जैसे – “ये कूड़ा मेरे भाग रखा था, इससे तो अच्छा था कि मैं कुंवारा ही रहता।” या फिर यह कि “ये कूड़ा मेंरे भाग रखा था, इससे तो अच्छा था मैं कोई गरीब घर की लड़की ब्याह लाता।” और भी न जाने कितने ही उदहारण हो सकते हैं, यदि लेखिका इस बात को सामान्य बात न मानती होतीं इस प्रकार की कहावतें इंसान की आंतरिक सोच को बेहद सरलता से बयान कर जाती हैं। 

दरअसल, कृष्णा सोबती को ‘कूड़े’ के साथ ‘चुहड़ी-चमारी’ ही सबसे सही उपमा लगी, क्योंकि वह जानती थीं कि सफाई के पेशे से जुड़ी ये जातियां समाज में निम्न समझी जाती हैं।” लेखिका का यही उच्च जातीय श्रेष्ठता बोध एकबार नहीं, बल्कि अनेक बार उनकी इस रचना में दृष्टिगोचर हुआ है।

जैसे कि उपन्यास के पृष्ठ संख्या 14 पर मित्रो का पति सरदारी लाल एक बार उसे कोसते हुए कहता है कि “क्या बताऊँ भाऊ, इसके ‘मिरासियों’ से ये चलन”। अब प्रश्न यह उठता है कि ‘मिरासी’ भी एक ‘जाति’ है जो किसी तरह नाच-गाकर अपना जीवन बसर करती रही है। तो क्या उनकी कला, हुनर अथवा अपनी आजीविका कमाने का तरीका इतना अपमानजनक है? 

इतना ही नहीं, मित्रो की सास अपने बड़े बेटे बनवारी लाल से अपने छोटे बेटे सरदारी लाल के बारे में कहती है– “बनवारी लाल, यह उलटी बुद्धि वाला क्या बकता है। मेरी बहु की तुलना जात-कमजात से?” यहां प्रश्न यह उठता है कि जिस सामंती परिवार की कहानी कृष्णा सोबती ने अपने उपन्यास में प्रस्तुत किया, उन सामंतो की सोच तो इन दलित उपेक्षित-जातियों के विषय में कितनी घृणा और नफरत भरी रही होगी? लेकिन एक सचेत सजग रचनाकार अपनी रचनाओं में कैसे ऐसी शब्दों को स्थान दे सकता है? कैसे किसी जाति को ‘कमजात’ या ‘कुजात’ कह सकता है?

कृष्णा सोबती स्वयं एक स्त्री थीं। लेकिन दलित उपेक्षित वर्ग से आने वाली स्त्रियों के प्रति उनके अंदर किस कदर घृणा है, उनके द्वारा उपयोग किए गए शब्दों से यह साफ हो जाता है। एक और उदाहरण पृष्ठ संख्या 24 पर है। इसके मुताबिक, “धनवंती ने बीच में ही डपट दिया। चुप कर, बहू, कंजरों वाले फक्कड़ न तोल! जबान पर काबू रख।” यहां कृष्णा सोबती बिना किसी जाति को गाली दिए अथवा पात्र से दिलवाए बगैर भी इस वाक्य को मुकम्मल कर सकती थीं। उदाहरणार्थ वह कह सकती थीं कि ‘चुप कर बहू ,ऐसे फक्कड़ न तोल, अपनी जुबान पर काबू रख। लेकिन लेखिका को इतने में संतुष्टि नहीं थी। उन्होंने हर बार एक जाति को अपमानित किया और वह भी बिना इस बात पर विचार किये कि वे यह रचना पाठकों के लिए लिख रही हैं। समाज में उस समय भले ही उनकी यह रचना एक विशेष तबके के पाठक वर्ग में पढ़ी गई हो, किन्तु ऐसा तो नहीं हो सकता कि पाठक वर्ग सदैव एक सी समझ अथवा विचारों से संबंध रखने वाला ही हो।

ऐसे अनगिनत संवाद कृष्णा सोबती के पात्र इस उपन्यास में बार-बार बोलते हैं। जिससे यह आभास होता है कि समाज में निम्न कही जाने वाली इन जातियों को अपमानित करने के लिए ही ये संवाद गढ़े गए हों। उपन्यास के पृष्ठ संख्या 43 पर दर्ज है कि “धनवंती ने सिर हिलाया। हाँ, री हाँ! जिन अपने सगे बाबुल-भाई को राजा कह कर पुकारती हो, उनसे तो ‘भिश्ती’ अच्छे बहुरानी!” फिर पृष्ठ संख्या 45 पर मित्रो कहती है कि ”भोले जानी उस पान चबाऊ भटियारिन’ (भट्ठे पर काम करने वाली एक जाति ) से मेरी तुलना?

अगर इन सब संवादों में आए जाति सूचक शब्दों को ध्यानपूर्वक देखेंगे तो आप सहजता से इस बात का मूल्यांकन करने में सफल होंगे कि ये सारी की सारी जातियां द्विजों द्वारा स्थापित वर्ण व्यवस्था के बाहर रखी गई जातियां ही हैं, जिन्हें जबरन सफाई पेशे से जोड़ दिया गया।  लेखिका कृष्णा सोबती ने सबसे पहले चुहड़ी, चमारन, मिरासी, कंजर, भिश्ती, भांड, भटियारिन, भुइयां इन सभी जातियों को अपने इन संवादों में गाली की तरह प्रयोग किया है। यह अनायास नहीं हो सकता है। 

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

पूनम तूषामड़

दिल्ली में एक दलित परिवार में जन्मीं डॉ. पूनम तूषामड़ ने जामिया मिल्लिया से पीएचडी की उपाधि हासिल की। इनकी प्रकाशित रचनाओं में "मेले में लड़की (कहानी संग्रह, सम्यक प्रकाशन) एवं दो कविता संग्रह 'माँ मुझे मत दो'(हिंदी अकादमी दिल्ली) व मदारी (कदम प्रकाशन, दिल्ली) शामिल हैं। संप्रति आप आंबेडकर कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में अतिथि अध्यापिका हैं।

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