जाति जहां एक ओर बहुजनों के गले की फांस है, तो दूसरी ओर मुट्ठी-भर लोगों के लिए उनके विशेषाधिकारों का सुरक्षा-कवच है। ब्राह्मण व दूसरे सवर्ण नहीं चाहते कि जातिप्रथा समाप्त हो। वे तो चाहते हैं कि शूद्र सदैव शूद्र, दलित हमेशा दलित बना रहे। इसके लिए कदम-कदम पर साजिशें रची जाती हैं। यह षड्यंत्र जितना सामाजिक दिखता है, उससे कहीं ज्यादा मनोवैज्ञानिक है। ब्राह्मणों की सदैव कोशिश होती है कि दलित और शूद्र दोनों दिलो-दिमाग से उनके अधीन बने रहें। वे जहां भी, जिस हालत में भी हैं, उसी को अपनी नियति मान लें। इसके लिए वे न केवल गैर-ब्राह्मणों की संस्कृति में जबरन दखलंदाजी करते हैं, बल्कि उनसे उनका इतिहास, उनके महापुरुष तक छीन लेते हैं। एक उदाहरण संत रैदास का है। मसलन ‘भक्तमाल’ में एक जगह कहा गया है—
लेखक के बारे में

ओमप्रकाश कश्यप
साहित्यकार एवं विचारक ओमप्रकाश कश्यप की विविध विधाओं की तैतीस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। बाल साहित्य के भी सशक्त रचनाकार ओमप्रकाश कश्यप को 2002 में हिन्दी अकादमी दिल्ली के द्वारा और 2015 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के द्वारा समानित किया जा चुका है। विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में नियमित लेखन