पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2021 को लेकर राजनीति चरम पर है। भाजपा एक तरफ हिंदुत्व की राजनीति कर रही है तो दूसरी ओर तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) भी पीछे नहीं है। ऐसे में सवाल उठता है कि बंगाल में दलित-बहुजनों के सवाल कब महत्वपूर्ण होंगे? इस वक्त जब पूरे राज्य में ‘मोदी बनाम ममता’ के बीच चुनावी घमासान और तेज होता जा रहा है, ऐसे में दलित राजनीति का आखिर यहाँ क्या अस्तित्व है? और क्या कारण है कि दलित राजनीति बंगाल में आजादी के बाद से अब तक हाशिए पर रही?
अगर इन तथ्यों को खंगालने की कोशिश करें तो हम पाएंगे कि वर्ष 1947 में देश की आजादी के बाद से वर्ष 1977 तक यहाँ कांग्रेस की सरकार रही, तब उस वक्त भी बंगाल की राजनीति ने कभी किसी दलित चेहरे को उभरने का मौका नहीं दिया। वर्ष 1977 से 2011 तक, जब राज्य में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार रही, तब बहुत से दलित नेताओं ने बंगाल की राजनीति में कदम रखा, जिनमें से कांति विश्वास एक बड़े दलित नेता के तौर पर उभरकर सामने आये। लेकिन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने उन्हें कभी भी केंद्रीय कमेटी का हिस्सा नहीं बनने दिया। यानी माकपा दलित वोट के आसरे अपनी राजनीति तो करती थी, पर उन्हें कभी आगे बढ़ने का मौका नहीं देती थी।
पश्चिम बंगाल के 34 वर्षों के वामपंथियों के शासनकाल में दलितों पर उत्पीड़न की घटनाएं लगातार होती रहीं, लेकिन वामपंथ का दलित समुदाय के प्रति रवैया ढुलमुल ही रहा। ऐसे में देश के अन्य राज्यों से मार्क्सवादी प्रदेश को दलित उत्पीड़न से कैसे अलग किया जा सकता है? मार्क्सवादी चाहे कितना भी कहें कि उनकी पार्टी हमेशा दलित, आदिवासी व अन्य पिछड़े वर्गों को साथ लेकर चलती रही, लेकिन इसे सिर्फ एक छलावा ही कहा जा सकता है। पश्चिम बंगाल देश का एक ऐसा राज्य है, जहां हमेशा यही कहा जाता है कि यहां जात-पात कोई मायने नहीं रखती, लेकिन सच तो यह है कि यहां दलितों का प्रतिनिधित्व और उनका नेतृत्व कभी उभरने ही नहीं दिया गया।

नब्बे के दशक के शुरुआती दौर में पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर जिले के लोधा शबर समुदाय से ताल्लुक रखने वाली आदिवासी लड़की चुनी कोटाल, जो बीए पास करके विद्यासागर विश्वविद्यालय, मेदिनीपुर में उच्च शिक्षा हासिल करना चाहती थीं, पर वहां के ब्राह्मण समाज की प्रशासनिक संकीर्ण मानसिकता के चलते चुनी कोटाल को 1992 में आत्महत्या करने के लिए मजबूर होना पड़ा। अगर देखा जाय, तो यह मामला सीधे हैदराबाद विश्वविद्यालय के रोहित वेमुला की तरह था। इसलिए वाममोर्चा सरकार के दामन पर लगा यह दाग आज तक नहीं धोया जा सका। वाममोर्चा सरकार में चुनी कोटाल का मामला अकेला एक मामला नहीं था। बल्कि ऐसे सैकड़ों मामले रहे होंगे, जो कभी प्रकाश में आ ही नहीं पाए। चुनी कोटाल का मामला इसलिए बड़ा मुद्दा बना क्योंकि यह उच्च शिक्षा से जुड़ा मामला था। अब इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि प्राथमिक विद्यालयों में आदिवासी और दलित समाज कितने उत्पीड़न का शिकार होते रहे होंगे या हो रहे हैं।
पश्चिम मेदिनीपुर में ‘लोधा शबर’ और पुरुलिया में ‘खेड़िया शबर’ समुदाय की जनसंख्या अच्छी खासी मानी जाती है। वर्चस्ववादी मान्यताओं के अनुसार इन दोनों समुदाय को जन्मजात अपराधी माना जाता है। वाममोर्चा सरकार में इन समुदायों पर लगातार कहर बरपाया गया। 21वीं सदी के दूसरे दशक में भी लोधा शबर समाज के 11 घरों को जलाकर, 67 लोगों की हत्या कर दी गई थी। लेकिन सरकार ने अपराधियों पर कोई कार्रवाई तक नहीं की, उलटे अपराधियों को वाममोर्चा सरकार का संरक्षण प्राप्त था। वाममोर्चा सरकार में मंत्री रहे सूर्यकांत मिश्र, जो इसी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ते थे, के अलावा माकपा नेता दीपक सरकार और सुशांत घोष ने भी लोधा समाज पर हुई बर्बर घटना के प्रति एक शब्द तक नहीं बोला, यानी ये सभी नेता सवर्ण समाज से ताल्लुक रखते थे। इसलिए इनकी मानसिकता दलित विरोधी थी। यही कारण है कि जंगल महल के इन इलाकों में वाममोर्चा सरकार दलित और आदिवासी समाज पर हो रहे अत्याचारों को देखती रही।
बंगाल के दलित चिंतक व सामाजिक कार्यकर्ता नीतीश विश्वास लंबे समय से बंगाल में दलितों के उत्थान के लिए लगातार सक्रिय आंदोलन से जुड़े रहे। वह डॉ. बाबा साहब अंबेडकर के विचारों से इस कदर प्रभावित थे कि वे बंगाल के दलित समाज में एक नई ऊर्जा भरना चाहते थे। समाज में दलित चेतना पैदा करने का काम भी वे लगातार करते रहे। दलित समाज से जुड़े तमाम मुद्दों को लेकर वे सड़क से लेकर सत्ता के गलियारे तक संघर्ष करते हुए दिखाई दिए। नीतीश विश्वास ने ‘दलित समन्वय समिति’ का गठन किया, जो लंबे समय से दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष करती रही। उन्होंने दलितों की दशा को सुधारने के लिए न जाने कितने प्रयास किए, लेकिन किसी पर कोई अमल नहीं किया गया। कलकत्ता विश्वविद्यालय में डिप्टी रजिस्ट्रार के पद पर रहने के बावजूद नीतीश विश्वास छात्रावास में जा-जाकर गरीब वंचित तबके के छात्रों को नि:शुल्क पढ़ाते थे। साथ ही अपने अन्य उच्च शिक्षित मित्रों से पढ़ाने में सहयोग भी मांगते थे। ऐसे भाव और सामाजिक वैचारिकी को आगे बढ़ाने का काम जिस तरीके से नीतीश विश्वास ने किया, वह एक सराहनीय कदम कहा जा सकता है। इन सबके बावजूद वे बंगाल में राजनीति का दलित चेहरा नहीं बन पाये।
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बंगाल के जागरूक दलित अब मार्क्सवादी पार्टी पर भरोसा नहीं करते। क्योंकि वाममोर्चा सरकार में वे अपने को हमेशा ठगा हुआ महसूस करते रहे। बंगाल के कद्दावर दलित नेता व पूर्व शिक्षा मंत्री रहे कांति विश्वास जैसे कई बड़े नेताओं को माकपा ने कभी केंद्रीय नेतृत्व नहीं दिया। इसी प्रकार त्रिपुरा में वामपंथ का जनाधार मजबूत करने वाले दलित नेता अनिल सरकार को भी कभी किसी केंद्रीय कमेटी का हिस्सा नहीं बनने दिया गया। इससे यह पता चलता है कि माकपा का दलित प्रेम चुनाव जीतने के बाद एकदम बदल जाता था। यानी वामपंथी, दलित नेता पैदा करते थे न कि दलित नेतृत्व। अब अगर गलती से दलित नेता दो चार कदम आगे बढ़ने की कोशिश कर भी लेते थे, तो वामपंथी तभी उनके पर कतरने में जरा भी कोताही नहीं बरतते थे। इसलिए बंगाल की राजनीति में आज तक कोई बड़ा दलित चेहरा उभरकर सामने नहीं आ सका। बंगाल में भोले-भाले दलित और आदिवासी समुदायों पर 34 सालों तक, वामपंथ के चश्मे की नज़र हरदम इनको वोटरों के रूप में इस्तेमाल करती रही। अब टीएमसी भी पिछले एक दशक से उसी नक़्शे कदम पर काम कर रही है।
बंगाल की राजनीति में आदिवासी और दलित फैक्टर
देश के किसी हिस्से में जब कहीं भी चुनाव होता है, तो वहां का आदिवासी और दलित फैक्टर हमेशा चुनाव को प्रभावित करता है। अल्पसंख्यक राजनीति के लिए मशहूर बंगाल में इस बार तृणमूल कांग्रेस के गढ़ में आरएसएस ने लगभग 7 फीसदी अनुसूचित जनजातियों और 22 फीसदी अनुसूचित जातियों के वोट बैंक में सीधे घुसपैठ की है। उत्तर बंगाल की पांच सीटें दार्जिलिंग, कूचबिहार, अलीपुरदुआर, जुलपाईगुड़ी और रायगंज क्रमश: गोरखा, राजवंशी, कामतापुरी और आदिवासी बहुल इलाके हैं, जबकि दक्षिण बंगाल का झाड़ग्राम, मेदिनीपुर, पुरुलिया, बांकुड़ा और विष्णुपुर आदिवासी व दलित बहुल इलाके हैं। जहां आरएसएस पिछले लंबे समयसे दलित एवं आदिवासी इलाकों में काफी सक्रिय है। इसी वजह से आरएसएस की शाखाओं में दोगुनी बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में गोरखाओं के समर्थन से भाजपा उम्मीदवार एसएस अहलुवालिया दार्जिलिंग से चुनाव जीते थे। दार्जिलिंग में 50 फीसदी से ज्यादा आबादी गोरखाओं की है। उसी तरह कामतापुरी और राजवंशी बहुल (जलपाईगुड़ी और अलीपुरद्वार) सीटों पर आदिवासी समुदाय के उम्मीदवार ही जीते।
लड़ाई में उतरी मतुआ समुदाय
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में इस बार एक बड़ा उलटफेर देखने को मिल सकता है। बंगाल में मुस्लिम आबादी के बाद दूसरी सबसे बड़ी आबादी ‘मतुआ’ समुदाय की है, जो किसी भी चुनाव में एक निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। राज्य में मतुआ समुदाय ढाई करोड़ से अधिक है जिसमें नमो शूद्र समुदाय के लोग भी शामिल हैं। यानी कुल मिलाकर बंगाल के ये तीन करोड़ से अधिक मतदाता किसी भी चुनावी खेल को बनाने या बिगाड़ने में एक अहम भूमिका निभाते हैं। इस बार टीएमसी से छिटककर दोनों समुदाय बीजेपी के साथ जाते हुए दिखाई दे रहे हैं। मतुआ समाज भारत-पाक विभाजन के समय पूर्वी बंगाल से आए हुए शरणार्थी हैं। इनकी जनसंख्या सबसे ज्यादा उत्तर 24 परगना और नदिया जिले में है। मतुआ समुदाय महासंघ के अध्यक्ष रही दिवंगत वीणा पाणि देवी (बड़ो मां) को इस समुदाय में महारानी का दर्जा हासिल है, जिनकी एक बात पर पूरा समुदाय एकमत हो जाता था। मतुआ समुदाय पहले 34 सालों तक वाममोर्चा सरकार को अपना समर्थन देता रहा और फिर जिन्होंने वर्ष 2011 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को समर्थन देकर राज्य में ममता बनर्जी की सरकार बनाई, जिसके चलते ममता बनर्जी ने बड़ो मां के दोनों बेटे कपिल कृष्ण ठाकुर और मंजुल कृष्ण ठाकुर को पार्टी से टिकट देकर संसद में भेजा।
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से मतुआ समुदाय का रुख बदल गया और अब वह बीजेपी के समर्थन में खड़ा होता दिख रहा है। इसलिए बीजेपी सीएए कानून के बहाने इस समुदाय में सेंधमारी करना चाह रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने कपिल कृष्ण ठाकुर की पत्नी ममता बाला ठाकुर को पार्टी का उम्मीदवार बनाया, जबकि मंजुल कृष्ण ठाकुर के बेटे शांतनु ठाकुर को बीजेपी ने अपना उम्मीदवार बनाया। लेकिन जीत टीएमसी की हुई। फिलहाल बीजेपी लगातार कोशिश कर रही है कि इस समुदाय को आखिर कैसे अपने पक्ष में किया जाए। कुछ हद तक बीजेपी ने बड़ो मां के परिवार में फूट डालकर मंजुल कृष्ण ठाकुर को अपने खेमे में शामिल करके पूरे चुनावी समीकरण को ही बदल दिया है। इसलिए एक परिवार के दो लोग आज दो पार्टी में शामिल हैं। जबकि मतुआ समुदाय में आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ। यह समुदाय हमेशा से एक पार्टी को समर्थन करता रहा है। चाहे वह मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी हो या तृणमूल कांग्रेस, लेकिन इस बार देखना दिलचस्प होगा कि मतुआ समुदाय का वोट किस करवट बैठता है?
आरएसएस पिछले कई सालों से बंगाल में सक्रिय होकर घर-घर तक हिंदुत्व को बढ़ावा देने का काम लगातार कर रहा है। असम और त्रिपुरा विधानसभा चुनाव जीतने के बाद से आरएसएस ने बंगाल में अपनी सक्रियता को और तेज करके रखा है। बंगाल में आरएसएस ने जिस तरीके से दक्षिणपंथी जमीन तैयार की है, उसी के आसरे बीजेपी अपनी पैठ बनाने में सफल होती दिख रही है। बंगाल में अगर इस बार कोई बड़ा उलटफेर होता है, तो उसका सारा श्रेय आरएसएस को जाएगा। पूर्वी-उत्तर भारत के जिन राज्यों में बीजेपी जहां मजबूत नहीं है, उसका कारण है कि वहां आरएसएस का सक्रिय न होना। यानी जिन राज्यों में आरएसएस जितना सक्रिय होगा, बीजेपी को उन राज्यों में उतना ही फ़ायदा होगा। यही कारण है कि आरएसएस सबसे पहले दलित और आदिवासी क्षेत्रों को टारगेट करके उनका सारा ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में काफी हद तक सफल हो चुका है। बीजेपी की ताकत आज राज्य में जिस कारण से उभरकर सामने आई है, उसमें बड़े पैमाने पर दलित-आदिवासी- ओबीसी समुदाय के लोगों की भूमिका है।
अब सवाल यहां यह उठता है कि आखिर मतुआ समुदाय जब 34 सालों से लगातार वाममोर्चा का समर्थन करता रहा और पिछले एक दशक से टीएमसी के साथ है, तो क्या मतुआ समुदाय ने पिछले 44 सालों में राज्य को कोई ऐसा दलित नेता दिया, जिससे दलित नेतृत्व उभरकर सामने आ सकता था, जो बंगाल राजनीति की चूलें हिला दे? या फिर इन समुदायों को कभी इसकी कमी महसूस ही नहीं हुई कि बंगाल में भी दलित राजनीति के आसरे सत्ता हासिल की जा सकती है? सवाल यह भी है कि आखिर कैसे मतुआ समुदाय पिछले 44 सालों से राजनीतिक रूप से पिछलग्गू बने रहे। इसका मतलब साफ़ है कि यहां के दलित नेताओं में दलित चेतना और दलित नेतृत्व की कमी है, जिस वजह से वे बंगाल में दलित राजनीति को उभार नहीं दे सके।
बहरहाल, बंगाल में जबतक हरिचाँद ठाकुर, गुरुचाँद ठाकुर, जोगेंद्र नाथ मंडल, बाबा साहब अंबेडकर और मान्यवर साहब कांशीराम या अन्य दलित-आदिवासी महापुरुषों के विचारों को घर-घर तक नहीं पहुंचाया जाएगा। तब तक बंगाल में दलित राजनीति सत्ता के गलियारों से दूर होती रहेगी। पश्चिम बंगाल में अगर दलित राजनीति को उभारना है, तो यहां के दलित नेताओं को बुद्धिजीवी वर्ग के साथ मिलकर सामाजिक वैचारिकी और ‘पे बेक टू सोसाइटी’ के बीच एक सेतु की तरह काम करना होगा, तभी जाकर बंगाल में दलित राजनीति उभर सकती है ।
(संपादन : नवल)
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