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मानवशास्त्रीय ज्ञान सृजन की परंपरा में परिवर्तनकारी हस्तक्षेप करने वाले आंबेडकर और तत्कालीन चुनौतियां

हेसूस चायरेज बता रहे हैं 1928 में गठित स्टार्ट समिति के बारे में, जिसके एक सदस्य डॉ. आंबेडकर भी थे। इस समिति की जिम्मेदारी मुंबई प्रेसीडेंसी में निवासरत दलित वर्गों (अछूतों) और आदिम जातियों की शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति का अध्ययन कर उनकी बेहतरी के लिए अनुशंसाएं करनी थी

संदर्भ : दलित समुदायों और आदिम जनजातियों की स्थिति पर (स्टार्ट) समिति

एक अछूत के रूप में डॉ. आंबेडकर का अनुभव हमें भारत में मानवशास्त्र और समाजशास्त्र के इतिहास के बारे में क्या बता सकता है? जाति और अछूत प्रथा मानवशास्त्रीय ज्ञान के सृजन को किस प्रकार प्रभावित करते हैं? 

आंबेडकर के जीवन और उनके विचारों के विश्लेषण पर जो साहित्य उपलब्ध है, उसमें इस विषय पर शायद की कुछ कहा गया है। इस अछूते विषय पर प्रकाश डालने के लिए मैंने 1928 में बम्बई सरकार द्वारा नियुक्त “दलित समुदायों और आदिम जनजातियों की स्थिति पर (स्टार्ट) समिति” की कार्यवाहियों में आंबेडकर की भागीदारी का अन्वेषण किया है। समिति ने दो वर्षों तक प्रेसीडेंसी क्षेत्र का भ्रमण कर दलितों और आदिवासियों की स्थिति का अध्ययन करने के बाद अपनी रपट प्रकाशित की, जिसमें इन समुदायों को भारतीय समाज की मुख्यधारा में लाने के संबंध में सिफारिशें भी की गईं थीं। जैसा कि हमें आगे देखेंगे, इस समिति के लिए शोध कार्य करने में आंबेडकर को विचारधारात्मक और व्यावहारिक – दोनों प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ा। कोलंबिया विश्वविद्यालय से पीएचडी और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से डीएससी की उपाधियां प्राप्त आंबेडकर, उस समय भारत के सबसे उच्च शिक्षित नागरिकों में से एक थे। इसकी बाद भी उन्हें अपनी शोध यात्राओं के दौरान जाति संबंधी नियमों और प्रतिबंधों के अनुरूप आचरण करना पड़ा जिसके नतीजे में न केवल उनका गमनागमन प्रभावित हुआ वरन कुछ समुदायों तक उनकी सीमित पहुंच ही बन सकी। आंबेडकर महार समुदाय से थे। मध्य और पश्चिमी भारत में यह समुदाय सदियों से भेदभाव का शिकार रहा है। विचारधारात्मक स्तर पर जहां एक ओर समिति की रपट पर उनके विचारों की छाप स्पष्ट नज़र आती है वहीं दूसरी ओर अछूत प्रथा के संबंध में उनके निष्कर्षों को समिति के अन्य सदस्यों ने चुनौती दी और उनका विरोध किया। 

आंबेडकर के निष्कर्षों का विरोध इतना कड़ा था कि रपट के साथ असहमति का नोट भी प्रकाशित किया गया। इस रपट को आज कोई याद नहीं करता। परंतु आंबेडकर के निजी दस्तावेजों के साथ जोड़कर उसे एक बार फिर पढ़ने से यह जाहिर होता है कि उस काल में हाशियाकृत समाज के सदस्यों के लिए मैदानी कार्य करना और मानवशास्त्रीय अथवा समाजशास्त्रीय ज्ञान का सृजन करना कितना दुष्कर था।  

शोधकार्य में आंबेडकर को पेश आई चुनौतियों पर बात करने से पहले, इस समिति की पृष्ठभूमि पर संक्षिप्त चर्चा आवश्यक है। डॉ. पी.जी. सोलंकी ने बम्बई विधानमंडल में एक प्रस्ताव पेश किया, जिसमें कहा गया था कि प्रेसीडेंसी में निवासरत दलित वर्गों (अछूतों) और आदिम जातियों की शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति का अध्ययन कर उनकी बेहतरी के लिए अनुशंसाएं की जानी चाहिए। यह प्रस्ताव पारित हो गया। प्रस्ताव को अमल में लाने के लिए एक समिति का गठन किया गया, जिसके सदस्यों के नामों की अनुशंसा दलित और आदिवासी मामलों के जानकारों ने की। इस समिति के अध्यक्ष थे प्रसिद्ध दंडशास्त्री ओ.एच.बी. स्टार्ट, जो कैदियों के पुनर्वास और कथित ‘आपराधिक जनजातियों’ के व्यवस्थापन के प्रयासों के प्रभारी थे। आदिवासियों के प्रति तटस्‍थतावादी / संरक्षणवादी नीति अपनाने के पक्षधर ए.वी. ठक्कर भी इस समिति के सदस्य थे। पी.जी. सोलंकी और बी.आर. आंबेडकर, जो दमित वर्गों के प्रतिनिधि के रूप मे विधानमंडल के नामांकित सदस्य थे, भी इस समिति में शामिल थे। 

विधानमंडल में सोलंकी और आंबेडकर के अतिरिक्त कोई अन्य दलित सदस्य नहीं था। परंतु ये दोनों केवल नाम के लिए सदस्य नहीं थे। वे पूरी तैयारी के साथ सदन की कार्यवाही में हिस्सा लेता थे और यही उन्होंने समिति के सदस्य बतौर भी किया। सोलंकी एक मेधावी डाक्टर थे, जो अपनी युवावस्था से ही दलितों के राजनैतिक अधिकारों के लिए संघर्षरत थे। आगे चल कर वे एक सफल राजनीतिज्ञ और आंबेडकर के निकटतम सहयोगी बने। आंबेडकर उस समय देश के सबसे शिक्षित व्यक्तियों में से एक थे। उन्होंने अछूत प्रथा का दंश व्यक्तिगत तौर पर झेला था और वे दलितों को मंदिरों और पीने के पानी के सार्वजनिक स्रोतों तक पहुंच दिलवाने के लिए क़ानूनी लड़ाई के साथ-साथ सड़कों पर उतरकर सत्याग्रह भी कर रहे थे। वैसे भी इस तरह का शोध करने के लिए आंबेडकर सबसे उपयुक्त व्यक्ति थे क्योंकि वे उस काल के नवीनतम और सर्वाधिक मान्य मानवशास्त्रीय सिद्धांतों से पूर्णतः भिज्ञ थे।  

डॉ. भीमराव आंबेडकर (14 अप्रैल, 1891 – 6 दिसंबर, 1956)

समाजशास्त्रीय और मानवशास्त्रीय विषयों में आंबेडकर की रूचि कोलंबिया विश्वविद्यालय में उनके अध्ययनकाल में ही जाग गयी थी। वहां उन्होंने फ्रान्ज़ बोआस के शिष्य एलेग्जेंडर गोल्डनवईसर के मार्ग-निर्देशन में अध्ययन किया था। कोलंबिया में ही आंबेडकर ने विभिन्न मानवशास्त्रीय परिकल्पनाओं जैसे अंतर्विवाह, वर्जना, कुलचिन्हवाद, पृथकत्व और सामाजिक अन्तराभिसरण को समझा। इन परिकल्पनाओं का प्रभाव जीवनपर्यंत आंबेडकर के लेखन पर रहा फिर चाहे वह भारत में जाति प्रथा के उदय पर उनका पहला शोधपत्र रहा हो या अछूत प्रथा के इतिहास की उनकी विवेचना। आश्चर्य नहीं कि इन परिकल्पनाओं की चर्चा इस रपट में भी है। 

इस रपट में ऐसी कुछ परिकल्पनाओं का ज़िक्र है जिन्हें आंबेडकर ने आगे चलकर विकसित किया। इससे इस दस्तावेज पर उनकी छाप की पुष्टि भी होती है। उदाहरण के लिए, रपट में एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि “दलित वर्ग शेष (हिन्दू) समुदाय से पृथक रहने पर मजबूर है।” समिति के अनुसार भेदभाव, हिंसा और सामाजिक बहिष्करण से पोषित इस पृथकत्व के कारण दलितों का शेष भारतीय समाज से ‘सामाजिक परासरण’ या अन्तराभिसरण नहीं हो पाता। इन परिकल्पनाओं का ज़िक्र इस रपट के पहले और बाद की आंबेडकर की रचनाओं में बार-बार आता है। उदाहरण के लिए, जैसा कि अरुण पी. मुख़र्जी और डेनियल एलाम जैसे अध्येताओं ने लिखा है, आंबेडकर ने यह शब्द कोलंबिया में जॉन डेवी से सीखा था और इसका उपयोग वे ‘जाति का विनाश’ में भी करते हैं। दलितों के आधिकारिक प्रतिनिधि के तौर पर अपनी पहली सार्वजनिक उपस्थिति में सन् 1919 में साउथबरो (मताधिकार) समिति के समक्ष गवाही देते हुए भी उन्होंने इस शब्द का प्रयोग किया था। समिति की सिफारिशें आंबेडकर की सोच से प्रभावित थीं, यह इस तथ्य से जाहिर है कि रपट में दलितों की शिक्षा और राजनीति में उनकी भागीदारी को अछूत प्रथा से उद्भूत असमानता से निपटने का सबसे बेहतर तरीका बताया गया है। परंतु आर्थिक और राजनैतिक असमानता पर बल इस रपट को अछूत प्रथा के उन्मूलन के लिए पूर्व में किये गए प्रयासों से अलग करता है, जिनमें हिंदू समाज में सुधार लाने पर जोर दिया जाता था। परंतु समिति के अन्य सदस्य इन निष्कर्षों और सिफारिशों से सहमत नहीं थे।    

रपट में अछूत प्रथा को जिस स्वरुप में प्रस्तुत किया गया था, उसके सबसे कड़े विरोधी थे एल.एम. देशपांडे। वे भी विधानमंडल के सदस्य थे और रूढ़ि-प्रिय हिंदू थे। वे ऑल इंडिया वर्णाश्रम स्वराज्य संघ के सदस्य भी थे। यह संगठन, “भारत के धार्मिक आदर्शों के अनुरूप स्वराज” के लिए काम कर रहा था। हमें यह नहीं पता कि देशपांडे को दलितों के बीच काम करने का कोई अनुभव था या नहीं परंतु उनके असहमति नोट से यह साफ़ है कि वे आंबेडकर का विरोध इसलिए नहीं कर रहे थे क्योंकि आंबेडकर की शोध पद्धति या जानकारियों इकठ्ठा करने के उनके तरीके में उन्हें कोई गलतियां नज़र आ रहीं थी। देशपांडे को समस्या उस व्यक्ति से थी, जो ज्ञान का सृजन कर रहा था – अर्थात आंबेडकर से। देशपांडे की यह मान्यता थी कि अछूत प्रथा के मुद्दे पर टकराव इसलिए हो रहा है क्योंकि दलित उनके हक़ हासिल करने के लिए उग्र तरीकों का प्रयोग कर रहे हैं। वे लिखते हैं, “हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। दलित वर्गों के कुछ सदस्यों ने अपनी शिकायतों के निवारण के लिए कुछ अतिवादी कदम उठाए और नतीजे में दूसरे पक्ष के अतिवादियों ने उन्हें दबाने की कोशिश की।” देशपांडे ने यह स्वीकार किया कि सार्वजनिक स्रोतों से पानी लेने का अधिकार एक महत्वपूर्ण मसला है। परंतु उनका तर्क था कि दलित स्वयं सार्वजनिक कुओं का इस्तेमाल इन कारणों से नहीं करते : (1) वे डरते हैं (2) उनमें उप जातियां हैं (3) कई ऐसी रूढ़िवादी दलित जातियां हैं जो स्वयं सार्वजनिक कुओं के पक्ष में नहीं हैं। जहाँ तक शिक्षा का प्रश्न है, देशपांडे दलितों की शिक्षा के पक्ष में थे परंतु एक शर्त के साथ। वे चाहते थे कि दलितों के स्कूलों में उनके पारंपरिक पेशों की शिक्षा भी दी जाए। देशपांडे का सुझाव था कि दलितों को वजीफे मिलने चाहिए और उन्हें स्कूलों में मुफ्त शिक्षा दी जानी चाहिए, जहां उन्हें कृषि संबंधी कार्य, कपड़ों की बुनाई, रस्सी बनाना, चर्मशोधन और जानवरों हड्डियों से खाद बनाना आदि सिखाया जाए। दूसरे शब्दों में, देशपांडे दलितों को वही काम सिखाना चाहते थे, जिन्हें करने के कारण उन्हें अछूत का दर्जा दिया गया था।    

यह भी पढ़ें – आंबेडकर : भारतीय मानवशास्त्र के ‘अछूत‘

यह दिलचस्प है कि देशपांडे ने अपनी सिफारिशों के समर्थन में कोई सबूत या तथ्य नहीं दिए और ना ही कोई वैकल्पिक सिद्धांत प्रस्तुत किया। उन्होंने आंबेडकर द्वारा प्रस्तुत पृथकत्व और सामाजिक अन्तराभिसरण की परिकल्पनाओं पर भी कोई टिपण्णी नहीं की। देशपांडे का असहमति नोट मुख्यतः यह कहता है कि भारत और सारी दुनिया में कुछ समुदाय ज्ञान का सृजन करते हैं और अन्य समुदाय अध्ययन का विषय होते हैं। उनके अनुसार, दलितों को उनकी उन्नति के उपाय सुझाने की ज़रुरत नहीं है। दलितों की मदद की जानी चाहिए। देशपांडे एक तरह से मानवशास्त्रीय और समाजशास्त्रीय ज्ञान के कोष के चौकीदार बनने का उपक्रम कर रहे थे। इस अर्थ में वे उन औपनिवेशिक नृवंशविज्ञानियों की तरह थे जो सभी भारतीयों को ऐसे लोगों के रूप में देखते थे, जिन्हें रास्ता दिखाए जाने की ज़रुरत है। देशपांडे के विचार में दलित केवल ज्ञान के प्राप्तकर्ता और अध्ययन के विषय हैं। जब आंबेडकर ने हिंदुओं की पड़ताल की और यह कहा कि वही दलितों के साथ भेदभाव के लिए ज़िम्मेदार है तब वे ज्ञान के सृजन के पारंपरिक तरीके को चुनौती दे रहे थे और मानवशास्त्रीय अध्ययनों के कर्ताओं और विषय को एक-दूसरे से प्रतिस्थापित कर रहे थे। और यही देशपांडे की आपत्ति का प्रमुख कारण था।

उनके ज्ञान और निष्कर्षों को चुनौती आंबेडकर के लिए कोई नई बात नहीं थी। उन्हें जीवन भर इसका सामना करना पड़ा। गांधी का यह दावा कि वे दलितों की आवाज़ हैं और जानते हैं कि उनके लिए क्या अच्छा है, इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। परंतु स्टार्ट समिति के सदस्य बतौर आंबेडकर के समक्ष अन्य चुनौतियां भी थीं।

दक्कन में हेरोल्ड एच. मान के काम से प्रभावित स्टार्ट समिति ने बम्बई प्रेसीडेंसी के कुछ गांवों की यात्रा करने का फैसला किया। यह निर्णय आंबेडकर के लिए एक समस्या बन गया। उनके निजी पत्राचार से साफ़ है कि दलित होने के कारण उनके आने-जाने और किसी स्थान में प्रवेश करने संबंधी प्रतिबंध एक शोधकर्ता के रूप में उनके लिए बड़ी चुनौती थे। जाति प्रथा में हर व्यक्ति का स्थान निश्चित था। दलित न केवल सत्ता के केन्द्रों से बाहर थे, वरन उनके लिए कोई भौतिक स्थान भी नहीं था। यह स्थिति आंबेडकर के समक्ष कई प्रश्न खड़े करती थी : क्या कोई दलित शोधकर्ता गांव के ब्राह्मण उत्तरदाताओं से बातचीत कर सकता था? क्या किसी दलित को शोधकर्ता के रूप में स्वतंत्रतापूर्वक गांव में घूमने की इज़ाज़त दी जा सकती थी? यदि कोई उत्तरदाता ऐसे स्थान पर रहता है, जहां दलितों की पहुंच नहीं है तब शोधकर्ता क्या करे? 

आंबेडकर को इन प्रश्नों के उत्तर काफी कष्ट सहकर प्राप्त हुए। सन् 1929 में समिति के सदस्य के रूप में आंबेडकर चालीसगांव पहुंचे। वे ‘सवर्ण हिन्दुओं द्वारा गांव के अछूतों के सामाजिक बहिष्कार’ के मामले की जांच करने वहां गए थे। उस समय तक आंबेडकर को दलित नेता बतौर थोड़ी-बहुत मान्यता मिल गयी थी। वे कुछ सालों पहले महाड़ सत्याग्रह आयोजित कर चुके थे और उन्होंने मनुस्मृति का दहन किया था। इस कारण, चालीसगांव के लिए वे कोई अनजान व्यक्ति नहीं थे। स्टेशन पर कुछ स्थानीय लोगों ने माला पहनाकर उनका स्वागत किया और उन्हें गांव के महारवाडा आने का निमंत्रण दिया। आंबेडकर ने आमंत्रण स्वीकार कर लिया। वे महारवाडा तक जाने के लिए सवारी का इंतज़ार करने लगे। करीब एक घंटे बाद, एक तांगा आया। परंतु समस्या अभी शुरू ही हुई थी। कुछ मिनटों की यात्रा के बाद आंबेडकर ने अपने-आपको सड़क पर पड़ा पाया। कारण यह कि घोड़ा तांगे को छोड़कर रफूचक्कर हो गया था। “मैं इतनी जोर से धरती पर गिरा कि लगभग बेहोश हो गया … मुझे कई चोटें आईं। मेरे पैर की हड्डी टूट गई और कई दिनों तक मैं चल-फिर नहीं सका। मुझे समझ में नहीं आया कि क्या हुआ।” 

आंबेडकर को बाद में पता चला कि इस दुर्घटना का कारण था तांगा चालक की अनुभवहीनता। गांव के लोगों ने आंबेडकर को अपने तांगे में बिठाने से इंकार कर दिया। इसके बाद, महारों ने एक तांगा इस शर्त कर किराये पर लिया कि उनमें से ही कोई उसे चलाएगा। आंबेडकर इस घटना को इन शब्दों में याद करते हैं, “मेरी इज्ज़त रखने के फेर में चालीसगांव के महारों ने मेरी ज़िन्दगी ही खतरे में डाल दी। मुझे तब समझ में आया कि अत्यंत तुच्छ काम करने वाला हिंदू तांगावाला भी स्वयं को सभी अछूतों से श्रेष्ठ मानता है, भले ही फिर वह अछूत बैरिस्टर-एट-लॉ क्यों न हो।” स्थान की कमी के कारण मैं इस घटना का और अधिक विवरण नहीं दे पा रहा हूं परंतु यह साफ़ है कि आंबेडकर का आवागमन सीमित था और सवर्ण हिन्दू यह तय करते थे कि गांव में वे कहां जाएंगे और कहां नहीं।  

कुल मिलाकर, स्टार्ट समिति के सदस्य बतौर आंबेडकर का अनुभव हमारे सामने इस संबंध में प्रश्न अधिक और उत्तर कम उपस्थित करता है कि (भारत में और अन्यत्र) मानवशास्त्रीय अध्ययन कौन कर सकता है। सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न जो हमें स्वयं से और दूसरों से बार-बार पूछना चाहिए वह यह है कि अगर आंबेडकर जैसा व्यक्ति, जो विधानमंडल का सदस्य था और आधिकारिक दौरे पर था, को महारवाडा पहुंचने के लिए अपनी जान जोखिम में डालनी पड़ी तो हाशियाकृत समुदायों के आम लोग अपने स्वयं के समुदाय के सिवा अन्य समुदायों का अध्ययन कैसे करेंगे, उन तक कैसे पहुंचेंगे। 

(यह आलेख पूर्व में www.theotherfromwithin.com वेब पोर्टल द्वारा अंग्रेजी में प्रकाशित है। इसका हिंदी अनुवाद हम यहां लेखक की अनुमति से प्रकाशित कर रहे हैं)

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

हेसूस चायरेज

हेसूस चायरेज मैनचेस्टर विश्वविद्यालय, ब्रिटेन में इतिहास के प्रवक्ता हैं। उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से इतिहास में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है। उनका पीएचडी शोधप्रबंध डाक्टर बीआर आंबेडकर के राजनीतिक विचारों और अछूत प्रथा की अवधारणा के राजनीतिक निहितार्थों पर केंद्रित है। दक्षिण एशियाई अध्ययन में मैक्सिको के एल कोलेजियो डे मैक्सिको से एमए की पढ़ाई करने के दौरान उनका परिचय भारत के दलितों और अछूत प्रथा से हुआ

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