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कितनी सफल होगी मनुवाद को खारिज करने वाले मतुआ समुदाय को साधने की मोदी की कोशिश?

बीते 26 मार्च को बांग्लादेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ओराकांडी में शिक्षा की बात कह रहे थे और बार-बार मतुआ समुदाय के अगुआ रहे हरिचंद ठाकुर व गुरुचंद ठाकुर का नाम ले रहे थे। इसके पीछे की उनकी राजनीति के बारे में बता रहे हैं ललित कुमार

बीते दिनों 26 मार्च, 2021 को बांग्लादेश की आजादी के स्वर्ण जयंती समारोह के मौके पर वहां गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंदिर-मंदिर घूम रहे थे, तब देश में असम की 43 और बंगाल की 30 विधानसभा सीटों पर प्रथम चरण का मतदान हो रहा था। बंगाल में सत्ता की चाबी माने जाने वाले मतुआ समुदाय को साधने की राजनीतिक कोशिश पीएम मोदी सीधे बांग्लादेश के सरकारी मंच से कर रहे थे। राजनीतिक कोशिश इसलिए कि मोदी जब 2015 में बांग्लादेश के दौरे पर गए थे, तब उन्होंने बंगाली मानुष को लेकर कोई बात नहीं कही थी।।

दरअसल, पश्चिम बंगाल में प्रथम चरण के मतदान के बीच प्रधानमंत्री मोदी का बांग्लादेश दौरा कहीं न कहीं बंगाल के मतुआ समुदाय, जिनकी आबादी लगभग दो करोड़ है, को साधने की कवायद रही। हालांकि अभी इस बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है कि मोदी की यह कवायद उनकी पार्टी को कितना लाभ दिलाएगी। लेकिन उन्होंने ओराकांडी ठाकुरबाड़ी से हरिचाँद ठाकुर के मंदिर जाकर जिस मतुआ समुदाय को अपने पाले में करने के लिए जो तुरुप का पत्ता फेंका है, अगर वह उसमें सफल होते हैं, तो भाजपा के लिए निश्चित तौर पर फायदे की बात होगी।

दरअसल, मतुआ समुदाय के लोगों को नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के तहत अभी भारत की स्थायी नागरिकता चाहिए, इसलिए नरेंद्र मोदी ने यह दांव खेला है।

सत्ता की राजनीति : बांग्लादेश के ओराकांडी में मतुआ समुदाय के ठाकुरबाड़ी में पूजा करते भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

यह विडंबना ही है कि जिस मतुआ समुदाय ने समाज के वंचित तबकों के लिए शिक्षा अभियान आरंभ किया, उनके नाम पर पश्चिम बंगाल में एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। क्या यह विचारणीय प्रश्न नहीं है? क्या मतुआ समुदाय के लोग महज एक वोट बैंक हैं, जिनके वोट को भावनात्मक मुद्दे बनाकर आसानी से लिया जा सकता है? प्रधानमंत्री द्वारा बांग्लादेश दौरे के दौरान संबोधन को देखें तो एक बात साफ होती है कि वे चुनावी लाभ के लिए मतुआ समुदाय की बात कर रहे हैं। उन्होंने बांग्लादेश सरकार के मंच से ओराकांडी में मतुआ समुदाय के लिए भारत सरकार की मदद से लड़कियों के मिडिल स्कूल को अपग्रेड करने और एक प्राइमरी स्कूल बनाने की बात कही। जबकि भारत में मतुआ समुदाय के लोगों की उन्नति कैसे हो, इसके संबंध में उन्होंने कोई बात नहीं कही है। बताते चलें कि पश्चिम बंगाल में मतुआ समुदाय राज्य में अनुसूचित जाति का पांचवा हिस्सा है। वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर अनुसूचित जाति की आबादी बंगाल में 23.52 फ़ीसदी है। यानी दो करोड़ के ऊपर। इसमें से भी 50 फ़ीसदी मतुआ मतदाता हैं, जो बंगाल की 40 सीटों पर अपना असर रखते हैं। साथ ही उत्तर 24 परगना, दक्षिण 24 परगना और नदिया जिलों में मतुआ समुदाय सबसे ज्यादा दबदबा रखते हैं। जिस ओराकांडी के मंच से शिक्षा की बात पीएम मोदी ने कही, वहां 1908 ई. में गुरुचंद ठाकुर ने एक उच्च विद्यालय का निर्माण कराया था।

ध्यातव्य है कि दक्षिण परगना के इलाके में चौथे चरण के तहत मतदान संपन्न हो चुका है। वहीं उत्तरी परगना और नदिया जिले में आगामी 17 अप्रैल व 22 अप्रैल को मतदान होने हैं।

नमोशूद्र के साथ-साथ दूसरी छोटी-छोटी जातियों को साथ लेकर गुरुचंद ठाकुर ने शिक्षा आंदोलन की शुरुआत की थी, जिनमें तेली, माली, कपाली, महिष्य, दास, चमार, लोहार, पोद, जुलाहा और मालाकार आदि जैसी तमाम जातियां शामिल थीं। गुरुचंद ठाकुर ऐसी तमाम जातियों को अपना मानते थे, जो लोग शोषित, वंचित, दबे-कुचले या जिनका जीवन बहुत ही दुख-कष्टों से गुजरा है, जो शिक्षा से वंचित है। जिन लोगों के पास धन-दौलत नहीं है, वे सारे मेरे अपने हैं। इसलिए ठाकुर कहते थे कि अगर आप मुझे मानते हो, तो

खाओ या ना खाओ उसमें नहीं मुझे दुख।
बच्चों को पढ़ाओ इसी में मेरा सुख।।

अर्थात ‘तुम लोग भूखे रहो तो भी मुझे दुख नहीं है, लेकिन आपके घर में कोई भी अशिक्षित नहीं होना चाहिए’।

केंद्र सरकार ने जो शिक्षा नीति लागू की है, उसको शिक्षा के क्षेत्र में टर्निंग प्वाइंट बताया जा रहा है। इस नई शिक्षा नीति में एक नया संशोधन यह भी किया गया है कि तीन वर्षीय स्नातक कोर्स में अब हर वर्ष छात्रों को सर्टिफिकेट, डिप्लोमा और डिग्री दी जाएगी, जिसमें सबसे ज्यादा फायदा ऊंची जातियों को होगा, क्योंकि उनके बच्चें सर्टिफिकेट और डिप्लोमा लेकर कहीं भी नौकरी कर सकते हैं और उन्हें ही सबसे ज्यादा काबिल माना जाएगा। जबकि दलित वर्ग के छात्र जिनके पास डिग्री होने के बावजूद भी ये लोग ही उन्हें यह कहकर, इसलिए खारिज कर देंगे कि वह काबिल ही नहीं है।

अगर हम गुरुचंद ठाकुर की शिक्षा नीति को देखते है, तो उसमें वंचित तबकों के लिए समान रूप से शिक्षा देने की व्यवस्था की गई थी, उसमें कहीं कोई भेदभाव देखने को नहीं मिलता। हम पूर्वी बंगाल (भारत की आजादी के पहले) में गुरुचंद ठाकुर के शिक्षा आंदोलन या उनके शिक्षा के प्रसार को देखें, तो वह पूरा आंदोलन उस वर्ग के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण था, जिनको शिक्षा से वंचित रखा गया था। इसका बीड़ा उठाया हरिचंद ठाकुर और उनके पुत्र गुरुचंद ठाकुर ने। यही कारण रहा कि वर्ष 1931 ई. में ढाका मंडल में नमोशूद्र छात्र-छात्राओं के लिए गुरुचंद ठाकुर के नेतृत्व में 1067 विशेष विद्यालयों का निर्माण किया गया। इसका असर समाज पर पड़ा। वर्ष 1901 से 1927 ई. के बीच मतुआ समुदाय में 4500 लोग मैट्रिक पास थे और करीब 200 लोग स्नातक थे।

लेकिन भारत विभाजन के समय मतुआ समुदाय के पलायन होने के बाद वे दूसरे पर इतने आश्रित हो गए कि उन्होंने कभी अपना खुद का संगठन खड़ा करने की नहीं सोची, ताकि इस समुदाय के साथ शेष दलित समाज भी जुड़ सकें।। यही वजह है कि मतुआ समुदाय को बंगाल में सिर्फ वोट बैंक के तौर पर देखे जाता है। इसलिए पूर्वी और पश्चिमी बंगाल में गुरुचंद ठाकुर का मिशन, उनके उत्तराधिकारियों के हाथों में जाने के बाद अपने उद्देश्यों से कहीं भटक गया है। पिछले 44 सालों से राजनीतिक दलों द्वारा ठगा जा रहा मतुआ समुदाय लगभग सभी राजनीतिक दलों के लिए सिर्फ एक पियादा बनकर रह गया है। इस बार के बंगाल चुनाव में मतुआ समुदाय के लिए किसी पार्टी की तरफ से कोई स्कूल, कॉलेज या विश्वविद्यालय खोलने की बात अभी तक नहीं की गई। दरअसल सभी राजनीतिक पार्टियां इस समुदाय को अपने-अपने तरीके से उनको लुभाने की कोशिश में लगी है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

ललित कुमार

डॉ. ललित कुमार पश्चिम बंगाल के सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक एवं मीडिया के अध्येता हैं

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