हाल ही में संपन्न हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में वामपंथी दल एक भी सीट जीतने में नाकाम रहे। आपके हिसाब से इसकी वजह क्या रही?
पहला कारण तो यही कि इस बार के चुनाव को समझने में वामपंथी दलों ने, खासकर सीपीएम ने भारी चूक की। उन्हें इस बार लगा कि दस सालों से तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की सरकार चल रही है और जनता के सामने प्रमुख सवाल यह है कि टीएमसी को कौन हटा रहा है। जबकि यह सवाल नहीं था। बल्कि सवाल यह था कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 38-40 प्रतिशत वोट और 18 सीटों के साथ पश्चिम बंगाल में मजबूत दस्तक दी थी, उसे किस तरह से कौन रोकेगा? यह सवाल प्रमुख था। दूसरी गलती यह रही कि 2011 में सत्ता खोने के बाद से सीपीएम को विपक्षी दल के रूप में अपनी भूमिका निभानी थी। उसे 34 वर्षों तक सत्ता में रहने के बाद एक विपक्षी दल के रूप में खड़ा होना था। लेकिन वे गवर्नमेंट वाली मानसिकता में बने रहे। गवर्नमेंट वाली यह मानसिकता उनको ले डूबी है। इसकी तुलना अगर मैं बिहार विधानसभा-2015 के चुनाव से करूं तो उस चुनाव में जब लालू यादव और नीतीश कुमार एक हो गए थे, जो कि भाजपा के खिलाफ सबसे बड़ा गठबंधन बना था। हम उस गठबंधन से बाहर रहकर भी 3 सीटें जीतने में कामयाब हुए थे। यह कोई नहीं कह सकता कि हम भाजपा के खिलाफ नहीं थे। कुछ इलाकों में हमारा संगठन और आंदोलन का जोर था, जहां हम त्रिकोणीय मुकाबले में कड़ी टक्कर दे सकते थे या स्वतंत्र रूप से सीट जीत सकते थे। आज सीपीएम इन दोनों ही मामलों में कमजोर स्थिति में है। आज सीपीएम स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने के स्थिति में कहीं भी नहीं हैं। भाजपा के खिलाफ इसकी छवि कन्फ्युज्ड दिखाई देती है। खासकर, जब उन्होंने भाजपा और टीएमसी को एक ही सिक्के का दो पहलू बताया। दोनों को मिलाकर ‘बीजेमूल’ की थ्योरी खड़ी की। इसलिए मुझे लगता है कि वामपंथी समर्थक या कांग्रेस समर्थक दोनों ही गुमराह हुए हैं और इनका भी बड़ा हिस्सा भाजपा के खिलाफ टीएमसी को वोट के रूप में गया है।