उत्तरी तमिलनाडु के विल्लुपुरम जिले में विधानसभा की छह सीटें हैं। दो सप्ताह पहले चुनाव प्रचार के आखिरी दौर में यहां की एक सीट पर द्रविड़ मुणेत्र कषगम (डीएमके) के कैंडिडेट डॉ. आर. लक्ष्मणन कैंपेन कर रहे थे। जैसे ही डॉ. लक्ष्मणन मेयेनुर में दाखिल हुए, उन्हें कहा गया कि वह सहयोगी पार्टी विदुथलाई चिरुथईकल कच्चि (वीसीके) के कैंडिडेट के साथ यहां नहीं घुस सकते। वीसीके दलितों की पार्टी है और इस बार के चुनाव में चार सीटें जीती हैं।
दलितों को अक्सर इस इलाके में दबंग वन्नियार समुदाय के हमलों का सामना करना पड़ा है। वन्नियार समुदाय इस बार पीएमके की अगुआई में एआईडीएमके के साथ था, जिसने उसे 10.5 फीसदी आरक्षण देने का वादा किया था।
दक्षिण भारत के दूसरे राज्यों की तरह तमिलनाडु में दबंग और ऊंची जातियों में दलितों के खिलाफ नफरत कम नहीं है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज भी कई इलाकों में दलित कैंडिडेट के चुनाव प्रचार में रोड़े अटकाए जाते हैं। वन्नियार लोग आजकल दलित लड़कों और अपने समुदाय की लड़कियों के प्रेम विवाह को लेकर खासे खफा हैं। अक्सर इस मामले को लेकर दलितों पर उनके हिंसक हमले होते रहते हैं।
उत्तर भारत के ब्राह्मणवादी मीडिया में डीएमके की जीत के चर्चे नदारद
दलितों के खिलाफ इस तरह के नफरती माहौल में एम के स्टालिन की जीत की खासी अहमियत है। स्टालिन के नेतृत्व में डीएमके गठबंधन की इस जीत की उत्तर भारत में भले ही कम चर्चा हो रही हो, लेकिन दस साल बाद यह सत्ता परिवर्तन दलित-बहुजनों की एकता और दलित-बहुजन वोटरों की आकांक्षाओं की कहानी कह रहा है। लिहाजा यह अनायास नहीं है कि उत्तर भारत के ब्राह्मणवादी मीडिया में इसकी चर्चा नहीं हो रही है।
ध्यातव्य है कि डीएमके पेरियार आंदोलन से पैदा हुई पार्टी रही है और उसने हमेशा ब्राह्मणवाद का विरोध किया है। सामाजिक न्याय की आधार वाली इस पार्टी ने उत्तर भारतीय वर्चस्ववादी राजनीति का भी जम कर विरोध किया है। दलितों, पिछड़ों, मुसलमानों और आदिवासियों में इसका बड़ा आधार है। डीएमके के संस्थापक रहे अन्नादुरई और करुणानिधि जैसे दिग्गज द्रविड़ राष्ट्रीयता के समर्थक नेताओं की समाज के हाशिये के समुदायों में अपार लोकप्रियता रही है।
तमिलनाडु में दस साल के बाद डीएमके का दोबारा सत्ता में लौटना साबित करता है कि यहां लोगों ने बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति को जड़ें जमाने का मौका नहीं दिया। बीजेपी के साथ होने की वजह से अन्नाद्रमुक के दलित समर्थकों ने भी उसका पूरा साथ नहीं दिया।
दलित ने दी डीएमके को मजबूती
‘द हिंदू’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक डीएमके के नेतृत्व वाले गठबंधन को उत्तर तमिलनाडु में दलित वोटों की वजह से अपनी स्थिति मजबूत करने में मदद मिली। हालांकि यहां अति पिछड़ा वर्ग के वन्नियार और पिछड़ा वर्ग के मुदलियार वोटरों का समर्थन न मिलने से डीएमके की स्थिति कमजोर दिख रही थी, लेकिन इसकी भरपाई दलित वोटरों ने कर दी। पश्चिम तमिलनाडु में अरुणथाटियार दलितों के 68 फीसदी वोट डीएमके को मिले थे। इसके अलावा नाडर, देवेंद्रकुला वेलालार और ईसाई समुदाय के वोटरों ने भी जम कर डीएमके नेतृत्व वाले गठबंधन का समर्थन किया और इस वजह से इसे दक्षिण तमिलनाडु में अपनी स्थिति मजबूत करने का मौका मिला।
सामाजिक न्याय की राजनीति की जीत
तमिलनाडु के चुनाव नतीजों और अलग-अलग समुदाय के वोटिंग पैटर्न से साफ हो गया है कि यह डीएमके सामाजिक न्याय की राजनीति की जीत है। डीएमके के 504 बिंदुओं और 17000 शब्दों से ज्यादा के चुनावी घोषणा पत्र को देखें तो पाएंगे कि उसका सबसे ज्यादा जोर तमिलनाडु को वेलफेयर स्टेट और सामाजिक न्याय वाला ऐसा राज्य बनाने पर है, जहां दलित, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के हितों को बढ़ावा मिले। अर्थशास्त्री ऋतिका खेड़ा ने इस मेनिफेस्टो का दिलचस्प विश्लेषण किया है। उन्होंने लिखा है कि इस मेनिफेस्टो में 55 बार वेलफेयर शब्द का इस्तेमाल किया गया है। 61 बार एजुकेशन और स्कूल, 60 बार महिला और लड़कियों और 17 बार भोजन, पोषण और स्वास्थ्य का जिक्र है। इसकी तुलना में बीजेपी और कांग्रेस ने 23-24 बार ही एजुकेशन और 14-15 बार ही महिलाओं के कल्याण का जिक्र किया है।
तमिलनाडु में पार्टियों का प्रदर्शन
पार्टी | कुल सीटें |
---|---|
डीएमके | 133 |
अन्नाद्रमुक | 66 |
कांग्रेस | 18 |
बीजेपी | 4 |
सीपीआई | 2 |
सीपीएम | 2 |
पीएमके | 5 |
वीसीके | 4 |
डीएमके ने आदि द्रविड़ समुदायों के लड़कों को स्कॉलरशिप, हॉस्टल देने और फूड अलाउंस देने का ऐलान किया है। साथ ही अंतर-जातीय विवाहों से पैदा बच्चों को रिजर्वेशन देने का भी वादा किया है। डीएमके के मेनिफेस्टो के ये वादे उसकी सामाजिक प्रतिबद्धता और तमिलनाडु में दलितों-पिछड़ों की आकांक्षाओं को जाहिर करते हैं। अच्छी बात यह है डीएमके ने पिछले दस साल के दौरान अपनी इन प्रतिबद्धताओं को बरकरार रखा है।
‘राज्य और देश के भविष्य का रेफरेंडम है यह चुनाव’
‘द हिंदू’ के ही एक अन्य लेख में कलायारासन ए., विग्नेश कार्तिक के.आर. और एम विजय भास्कर ने लिखा है कि तमिलनाडु के इस चुनाव को राज्य और देश के भविष्य पर एक रेफरेंडम की तरह देखा जा सकता है।
उनका कहना है कि इस चुनाव में राज्य के सामने तीन तरह की कट्टरता थी। पहली भारतीय जनता पार्टी की धर्मिक कट्टरता, दूसरी तमिल राष्ट्रवादी पार्टियों की भाषाई कट्टरता और दबंग जातियों की जातिगत कट्टरता जो दलितों के आगे बढ़ने से खासी तौर पर चिंतित है। एक अर्थ में ये तीनों कट्टरताएं मिल कर द्रविड़-तमिल पहचान को चैलेंज कर रही थीं। लिहाजा डीएमके को समावेशी विकास का एजेंडा और मिलाजुला वोटर आधार तैयार करना पड़ा। डीएमके का कैंपेन न सिर्फ इन तीनों नैरेटिव के खिलाफ खड़ा हुआ बल्कि यह राज्य की स्वायत्तता के कमजोर होने के इर्द-गिर्द बुना गया। राज्य की स्वायत्तता द्रविड़ राजनीति का मूल तत्व रहा है।
धार्मिक, भाषाई और जातिगत कट्टरता के खिलाफ जीत
लिहाजा डीएमके की जीत धार्मिक, भाषाई और जातिगत कट्टरता के खिलाफ जीत है। दूसरी ओर यह बीजेपी और उसकी सहयोगी पार्टियों के नैरेटिव की हार है। बीजेपी पूरे देश में अपने इस नैरेटिव को थोपते हुए राजनीति कर रही है। उत्तर प्रदेश में मंदिर (राम मंदिर, काशी-मथुरा) की राजनीति उसकी धार्मिक कट्टरता का उदाहरण है। इसी तरह हिंदू, हिंदी, हिंदुस्तान की बात कर भाषाई कट्टरता को परवान चढ़ाया जा रहा है। राज्य में पिछड़ों के बीच विभाजन पैदा कर उन्हें दलितों के खिलाफ खड़ा करने का तिकड़म साफ बता रहा है कि कैसे जातिगत कट्टरता को हवा दी जा रही है।
बहरहाल, तमिलनाडु में स्टालिन की जीत इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि डीएमके ने बीजेपी और अन्नाद्रमुक की धार्मिक विभाजन की रणनीति को अपनी समावेशी सामाजिक न्याय की राजनीति से मात दी है। डीएमके की इस जीत में ही बीजेपी की विभाजनकारी राजनीति को ध्वस्त करने के सूत्र मौजूद हैं। आने वाले दिनों में विपक्ष को अपने दांव-पेंच के लिए इसी सूत्र को खंगालना होगा। अगर ऐसा हुआ तो यह बीजेपी के चढ़ते सूरज की ढलान साबित हो सकता है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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