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आंबेडकर से सीखें कोविड काल में बंधुत्व

कोविड-19 के कहर के इस दौर में हमें शारीरिक दूरी के साथ-साथ 'सामाजिक नजदीकी' को अपनाने की भी आवश्यकता है – अर्थात सामाजिक एकजुटता की ताकि हमारे भावनात्मक, सांस्कृतिक, सामाजिक और भौतिक संसाधनों का हम साझा उपयोग कर सकें। एकजुटता की इसी भावना को डॉ बी.आर. आंबेडकर बंधुत्व कहते थे, बता रहे हैं रौनकी राम

इस वैश्विक महामारी से हमें क्या सीखने को मिला है? हमें इस दुष्ट वायरस के प्राणलेवा प्रसार को रोके के लिए हर संभव सावधानी बरतनी चाहिए और संपूर्ण मानवता के इस दुश्मन से मुकाबला करने के लिए सामाजिक दृष्टि से एक-दूसरे से जुड़े रहना चाहिए। हमसे कहा जा रहा है कि हम सामाजिक दूरी का पालन करें। परंतु भारतीय सन्दर्भ में सामाजिक दूरी कोई ऐसी निषेधाज्ञा नहीं है, जिसका पालन केवल अस्थायी तौर पर कोविड की इस दुनिया से विदाई तक किया जाना है। हमारे देश में जाति और पंथ के कारण लम्बे समय से लोगों में सामाजिक दूरी बनी हुई है और इस सामाजिक दूरी का महामारी से कोई लेना-देना नहीं हैं।

हम कथित नीची जातियों से सामाजिक दूरी बनाने के आदी हैं। सैकड़ों सालों से सामाजिक सुधार आंदोलन इस सामाजिक व्याधि की खिलाफत करते आ रहे हैं, परंतु इसके बाद भी सामाजिक अलगाव और पूर्व अछूतों का बहिष्करण कुछ हद तक आज भी जारी है। अतीत में दमन के शिकार समुदाय आज स्वाधीनता के कई दशकों के बाद भी ग्रामीण इलाकों में गांवों के बाहर अलग-थलग रहने पर मजबूर हैं। (राम 2016: 32-39)

पूर्व अछूतों[1] द्वारा ‘प्रदूषित’ बर्तनों को आग में शुद्ध करना अभी कुछ सालों पहले तक बहुत आम था। इसी तरह, किसी पूर्व अछूत द्वारा पवित्र नदी या सरोवर में स्नान करने पर उसे भी शुद्ध किया जाता था।

कोविड-19 के कहर के इस दौर में हमें शारीरिक दूरी के साथ-साथ ‘सामाजिक नजदीकी’ अपनाने की भी आवश्यकता है अर्थात सामाजिक एकजुटता की, ताकि हमारे भावनात्मक, सांस्कृतिक, सामाजिक और भौतिक संसाधनों का हम साझा उपयोग कर सकें। एकजुटता की इसी भावना को डॉ. बी.आर. आंबेडकर बंधुत्व कहते थे।

दिल्ली के एक गुरुद्वारे में कोविड मरीजों के लिए ‘ऑक्सीजन लंगर’

इस बंधुत्व या सामाजिक नजदीकी का एक महत्वपूर्ण पहलू होगा साझा सरोकार, जिनके चलते हम सार्वजनिक हित में नैतिक और क़ानूनी निषेधों का पालन करेंगे। इस कोविड काल में शारीरिक दूरी और स्व-एकांतवास का लोग अधिक बेहतर तरीके से पालन करते यदि हमारे समाज में बंधुत्व के भाव का विकास हो गया होता।। क्या शारीरिक दूरी और एकांतवास का उद्देश्य यह नहीं है कि मानवता को महामारी का शिकार होने से बचाया जाए? इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमें ऐसा समाज चाहिए, जिसमें सामाजिक नजदीकियां हों। और सामाजिक नजदीकी निर्भर करती है सामाजिक संव्यवहार में बंधुत्व के भाव की गहराई पर।

बंधुत्व का भाव, समानता और अधिक आज़ादी के बीज बोता है। यदि हम बंधुत्व की केन्द्रीयता को स्वीकार कर लें तो हमारे लिए डॉ. आंबेडकर की इस दृष्टि में निहित बुद्धिमत्ता को समझना आसान हो जाएगा कि भारत में सामाजिक प्रजातंत्र के उदय में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की क्या भूमिका है और किस प्रकार ये एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। हममें जितनी अधिक सामाजिक नजदीकी होगी हम वर्तमान और भविष्य की चुनौतियों का सामना करने में उतने ही सक्षम होंगे।

डॉ. आंबेडकर ने ठीक ही कहा था कि जाति और राष्ट्र परस्पर असंगत हैं। जाति न केवल श्रम विभाजन करती है वरन् श्रमिकों का विभाजन भी करती है। जातियों में बंटा समाज, बंधुत्व का विकास नहीं होने देता या कम से कम उसके विकास में बाधाएं खड़ी करता है। भारत में सामाजिक प्रजातंत्र की जडें तभी जम सकतीं हैं जब यहां से जाति पूरी तरह समाप्त हो जाए। बंधुत्व और जाति एक साथ नहीं रह सकते। बंधुत्व मज़बूत सामाजिक प्रजातंत्र की नींव है। इस संदर्भ में हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि कोविड से मुकाबला करने के लिए अपनाया जा रहा भौतिक (सामाजिक) दूरी का यह अस्थायी उपशमनकारी और निवारक उपाय, कहीं हमारे समाज में पहले से मौजूद जाति-आधारित सामाजिक सीमाओं को और मजबूती न दे। जैसा कि डॉ. आंबेडकर ने जोर देकर कहा था, कोई भी राष्ट्र किसी चुनौती – चाहे वह प्राकृतिक हो या कोई और – से कितनी हिम्मत से मुकाबला कर पाता है, यह उसके लोगों में बंधुत्व के भाव पर निर्भर करता है। बंधुत्व राष्ट्र की जीवनरेखा है। निर्वाचन से अपने शासक चुनने वाले जिन प्रजातांत्रिक राष्ट्रों के सामाजिक जीवन में बंधुत्व का अभाव होता है, उनकी राजनैतिक व्यवस्था अक्सर अधिनायकवाद की ओर बढ़ जाती है। सामाजिक प्रजातंत्र के बगैर, केवल राजनैतिक प्रजातंत्र असमानताओं को और गहरा होने से रोक नहीं सकता और ना ही इससे पददलितों की मुक्ति या सशक्तिकरण की राह प्रशस्त होती है। बल्कि इससे पददलित केवल वोटों के स्रोत बन जाते हैं।

डॉ. आंबेडकर ने स्वतंत्र भारत में सामाजिक और आर्थिक समानता के बगैर केवल राजनैतिक समानता (एक व्यक्ति, एक वोट) होने के गंभीर परिणामों के बारे में चेताया था। (राम 2010: 12-38) किसी व्यक्ति में यह अहसास जगाने, कि उसके वोट की कीमत अन्य लोगों के वोट के बराबर है, के लिए यह ज़रूरी है कि उसे सामाजिक हैसियत और आर्थिक संदर्भों में उन लोगों के समकक्ष लाया जाए, जो अतीत में उससे बेहतर स्थिति में थे। सामाजिक प्रजातंत्र, व्यवहार्य राजनैतिक प्रजातंत्र के लिए तो महत्वपूर्ण है ही, वह कोरोना महामारी जैसे सबके दुश्मन से हिम्मत से मुकाबला करने के लिए भी ज़रूरी है।

संदर्भ:

राम, रौनकी (2016), “सोशलाईजिंग दलित पेरीफेरीस: रविदास डेरास एंड दलित असर्शन इन पंजाब”, इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली, खंड 2, अंक 1, पृष्ठ 32-39

राम, रौनकी (2010), “डॉ आंबेडकर, नियो-लिबरल मार्किट इकोनोमी एंड सोशल डेमोक्रेसी इन इंडिया,” ह्यूमन राइट्स ग्लोबल फोकस, खंड 5, अंक 3, पृष्ठ 12-38

[1] भारत में संविधान लागू होने के पहले अस्पृश्य व अछूत शब्द का उपयोग दलित जातियों के लिए किया जाता था। संविधान में उन्हें अनुसूचित जाति के रूप में उद्धृत किया गया है।

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

रौनकी राम

रौनकी राम पंजाब विश्वविद्यालय,चंडीगढ़ में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हैं। उनके द्वारा रचित और संपादित पुस्तकों में ‘दलित पहचान, मुक्ति, अतेय शक्तिकरण’, (दलित आइडेंटिटी, इमॅनिशिपेशन एंड ऍमपॉवरमेंट, पटियाला, पंजाब विश्वविद्यालय पब्लिकेशन ब्यूरो, 2012), ‘दलित चेतना : सरोत ते साररूप’ (दलित कॉन्सशनेस : सोर्सेए एंड फॉर्म; चंडीगढ़, लोकगीत प्रकाशन, 2010) और ‘ग्लोबलाइजेशन एंड द पॉलिटिक्स ऑफ आइडेंटिटी इन इंडिया’, दिल्ली, पियर्सन लॉंगमैन, 2008, (भूपिंदर बरार और आशुतोष कुमार के साथ सह संपादन) शामिल हैं।

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