इसमें कोई दो राय नहीं है कि जाति व्यवस्था की संरचना ने कुलीनों को सिंहासन उपलब्ध करवाया और बहुसंख्यक दलित-बहुजनों को हाशिये पर ले जाने में अहम भूमिका निभाई । इसकी अभिव्यक्ति साहित्य में अलग-अलग रूपों में हुई है। मसलन, दलित साहित्य बताता है कि इक्कीसवीं सदी में आधुनिक चेतना से लैस होने पर भी सवर्ण समाज, जाति के जामे को पहनना-ओढ़ना छोड़ नही सका है। दलित साहित्यकारों के पास जितने बौद्धिक औजार थे उनका उपयोग उन्होंने जाति व्यवस्था के भयंकर उत्पातों को सामने लाने के लिए किया है। हालांकि नई कहानी आंदोलन से जाति का प्रश्न काफी हद तक नदारद रहा है। उसमें मध्यमवर्गीय समाज की आकांक्षाओं, इच्छाओं और संत्रास की अभिव्यक्ति को तरजीह दी गई है। जाति व्यवस्था के खिलाफ गोलबंदी का तेजी से उभार दलित साहित्य की देन है आ। इस आलेख श्रृंखला में दलित साहित्य के मील के पत्थर कहे जानेवाले लेखकों की उन कहानियों को केन्द्र में रखा गया है जो सामाजिक भेदभाव और जातिवादी मानसिकता की पड़ताल करती हैं। अब तक आपने ओमप्रकाश वाल्मीकि और मोहनदास नैमिशराय और श्योराज सिंह बेचैन, की कहानियों का विश्लेषण पढ़ा। प्रस्तुत है इस आलेख श्रृंखला के तहत युवा समालोचक सुरेश कुमार द्वारा सूरजपाल चौहान की कहानियों का पुनर्पाठ
विकासशील दलित चेतना व संघर्ष की साक्षी हैं सूरजपाल चौहान की कहानियां
- सुरेश कुमार
सूरजपाल चौहान दलित साहित्य के आधार स्तंभ लेखकों में से एक हैं। इनका विपुल लेखन विविध विधाओं से भरा पड़ा है। इस नई सदी के देश और काल पर पकड़ रखने वाले विलक्षण साहित्यकार हैं। इनके लेखन में जाति व्यवस्था का विरोध शगल नहीं बल्कि लक्ष्य के तौर पर दिखाई देता है। सूरजपाल चौहान के ‘हैरी कब आयेगा’ (1999), ‘नया ब्राह्मण’ (2009), ‘धोखा’ (लघुकथा संग्रह, 2011) प्रकाशित हो चुके हैं। सूरजपाल चौहान अपने कथा लेखन में बड़ी संजीदगी से जाति व्यवस्था की भयाकर दुश्वारियों को सामने लाते हैं। ‘छूत कर दिया’, ‘घाटे का सौदा’, ‘साजिश’, ‘घमण्ड जाति का’ और ‘हैरी कब आयगा?’ सूरजपाल चौहान ‘आपबीती’ और ‘जगबीती’ अनुभवों से जातिवाद के बीहड़ इलाकों की शिनाख्त बड़ी सिद्दत और तल्लीनता करते हैं।