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दलित कहानियां और जातिवाद के बीहड़ इलाके (संदर्भ : श्योराज सिंह ‘बेचैन’)

जातिगत और वर्णगत गोलबंदी के चलते ही दलितों को सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और शैक्षिक परिसरों से बेदख़ल होना पड़ा। श्योराज सिंह ‘बेचैन’ की कहानियों के अखाड़े में जातिगत और वर्णगत शाक्तियों के विरुद्ध गोलबंदी का उभार स्पष्ट दिखाई देता है। बता रहे हैं युवा समालोचक सुरेश कुमार

इसमें कोई दो राय नहीं है कि जाति व्यवस्था की संरचना ने कुलीनों को सिंहासन उपलब्ध करवाया और बहुसंख्यक दलित-बहुजनों को हाशिये पर ले जाने में अहम भूमिका निभाई । इसकी अभिव्यक्ति साहित्य में अलग-अलग रूपों में हुई है। मसलन, दलित साहित्य बताता है कि इक्कीसवीं सदी में आधुनिक चेतना से लैस होने पर भी सवर्ण समाज, जाति के जामे को पहनना-ओढ़ना छोड़ नही सका है। दलित साहित्यकारों के पास जितने बौद्धिक औजार थे उनका उपयोग उन्होंने जाति व्यवस्था के भयंकर उत्पातों को सामने लाने के लिए किया है। हालांकि नई कहानी आंदोलन से जाति का प्रश्न काफी हद तक नदारद रहा है। उसमें मध्यमवर्गीय समाज की आकांक्षाओं, इच्छाओं और संत्रास की अभिव्यक्ति को तरजीह दी गई है। जाति व्यवस्था के खिलाफ गोलबंदी का तेजी से उभार दलित साहित्य की देन है आ। इस आलेख श्रृंखला में दलित साहित्य के मील के पत्थर कहे जानेवाले लेखकों की उन कहानियों को केन्द्र में रखा गया है जो सामाजिक भेदभाव और जातिवादी मानसिकता की पड़ताल करती हैं। अब तक आपने ओमप्रकाश वाल्मीकि और मोहनदास नैमिशराय की कहानियों का विश्लेषण पढ़ा। प्रस्तुत है इस आलेख श्रृंखला के तहत युवा समालोचक सुरेश कुमार द्वारा प्रो. श्योराज सिंह ‘बेचैन’ की कहानियों का पुनर्पाठ

श्योराज सिंह ‘बेचैन’ : दलित चेतना व संघर्ष को विमर्श के दायरे में लाने वाले प्रयोगधर्मी कहानीकार 

  • सुरेश कुमार

हिंदी दलित साहित्य जगत में लेखक श्योराज सिंह ‘बेचैन’ की रचनाएं मील के पत्थर के समान हैं। उनकी कहानियों के केंद्र में शोषण, गरीबी, अशिक्षा, जातिवाद और भेदभाव के शिकार दलितों का संघर्ष रहा है। श्योराज सिंह ‘बेचैन’ नब्बे के दशक से ही अपने कथा सृजन में शोषणकारी शक्तियों की शिनाख्त करते हैं, जिनकी वजह से दलित सामाजिक अधिकारों से वंचित और हाशिये पर चले गये है। उनकी ‘भरोसे की बहन’ (2010) और ‘मेरी प्रिय कहानियां’ (2019), नामक दो महत्वपूर्ण कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं । इन दोनों संग्रह की कहानियों की कथा में दलित अधिकारों और हकों की पहलकदमी और सिफारिश दिखाई देती है। 

दरअसल, सवर्ण समाज के जातिवादी परिसरों ने दलितों के सामने अनेक दुश्वारियां खड़ी कर दी हैं। मसलन जातिगत और वर्णगत गोलबंदी के चलते ही दलितों को सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और शैक्षिक परिसरों से बेदख़ल होना पड़ा। श्योराज सिंह ‘बेचैन’ की कहानियों के अखाड़े में जातिगत और वर्णगत शाक्तियों के विरुद्ध गोलबंदी का उभार स्पष्ट दिखाई देता है।

शैक्षिक संस्थानों के परिसरों में मौजूद सवर्णों की जातिगत गोलबंदी का सीधा नुकसान दलित समाज से आने वाले विद्यार्थियों को उठाना पड़ता है। ‘शोध प्रबंध’ (हंस, जुलाई 2000) उच्च शिक्षा में हो रहे दलित शोषण की बड़ी सघनता से पड़ताल करने वाले कहानी है। इस कहानी में जहां एक तरफ उच्च शिक्षा में शोधरत दलित छात्राओं के शोषण को सामने रखा गया है, वहीं दूसरी ओर सवर्ण प्रोफेसर के नैतिक पतन और निर्लजता की इबारत भी लिखी गई है। ‘शोध प्रबंध’ की रीना प्रोफेसर प्रताप सिंह के निर्देशन में शोधरत है। दिलचस्प बात यह है कि प्रोफेसर प्रोग्रेसिव विचारों को होते हुये भी जातिवाद के प्रबल पक्षधर और आरक्षण विरोधी हैं। संविधान के हस्तक्षेप से दलितों को थोड़ा बहुत प्रतिनिधित्व शिक्षा और सरकारी सेवाओं में मिला, वह भी जातिवादी लोगों की आंखों में तिनके की तरह चुभता रहता है।

प्रो. श्योराज सिंह बेचैन

‘शोध प्रबंध’ कहानी की कथा में प्रोफेसर प्रताप सिंह दलित शोध छात्रा रीना को अपने झांसे में लेकर उसका शारीरिक शोषण करता है। रीना ने जब प्रोफेसर प्रताप सिंह को बताया कि वह उसके बच्चे की मां बनने वाली है तो प्रोफेसर ने उसे समाधान के तौर पर गर्भ गिराने का सुझाव दे डालता है। रीना प्रोफेसर से शादी करने आग्रह करती है, लेकिन प्रोफेसर प्रताप सिंह साफतौर पर उससे शादी करने से इंकार कर देता है। कहानी के अंतिम हिस्से में रीना अपने प्रतिरोध स्वरुप प्रोफेसर प्रताप सिंह के आवास पर जाकर वह अपना बच्चा उसके गोद में रख देती है-‘रीना बगैर कुछ बोले चुपचाप प्रोफेसर के पास बढ़ती जा रही थी, प्रोफेसर ने जैसे ही आगे गोद खोली ‘‘यह लो अपना शोध प्रबंध’’ कहते हुए उसने अपनी गोद से बच्चा निकालकर प्रोफेसर की गोद में रख दिया। प्रोफेसर की आँखें विस्फरित सी रह गयीं। इससे पहले कि वह संभलता रीना ने पूरे जोर से उसके गाल पर तमाचा जड़ दिया।’ समकालीन हिंदी कहानी में कुछ लेखकों ने अकादमिक जगत को केद्र में रखकर कहानियां लिखी हैं। लेकिन श्योराज सिंह ‘बेचैन’ की ‘शोध प्रबंध’ अलग और खास है कि इसमें अकादमिक दुनियां के ऊंची जाति के प्रोफेसरों द्वारा दलित छात्राओं के शोषण का सवाल बड़ी मुखरता से उठाया गया है। देखा जाय तो कहानी के बाहर भी ऊंची जाति के प्रोफेसर मिल जाएंगे, जो दलित छात्रों को हिकारत भरी दृष्टि से देखते हैं। अपने कथ्य और शिल्प के कारण यह कहानी दलित साहित्य की नहीं बल्कि समकालीन हिंदी साहित्य की उत्कृष्ट कहानी है।

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हिंदी साहित्य में दलित साहित्यकारों ने जाति के सवाल को बड़ी मुखरता और तत्परता से कथा लेखन में उठाया है। भारतीय समाज में जाति को ‘मेरुदंड’ के तौर पर देखा जाता है। सवर्ण समाज में जाति को एक सिरमौर की तरह है। ‘शिष्या-बहू’ (हंस, जून 2019 वर्ष: 33 अंक:11) सवर्ण समाज में जाति की जड़े कितनी गहरी हैं, इसकी पड़ताल करने वाली कहानी है। विद्या शर्मा सवर्णवादी मानसिकता की गिरफ़्त में आकर उच्च शिक्षित और अफसर बहु को भंगी जाति से होने की वजह से स्वीकार नहीं पा रही है। दिलचस्प बात यह है कि विद्या शर्मा पढ़ी लिखी और पेशे से खुद शिक्षिका है। ज्ञान-विज्ञान की रोशनी में भी विद्या शर्मा जैसी महिला जातिवादी जड़ता से मुक्त नहीं है। कहानी की कथा कहती है कि सवर्णों के घरों में दलित बहू मुखर तरीके से जाति का प्रतिरोध नहीं कर पाती है। गुलाबो जैसी पढ़ी लिखी और अफसर स्त्रियां भी अपने माता-पिता के अपमान पर भी पितृसत्ता और जाति के खौफ़ से खमोश रहती हैं। 

श्योराज सिंह ‘बेचैन’ की कहानियों में दलित पात्र अनावश्यक प्रतिरोध से बचते है। जीवन के वास्तविक प्रतिरोध के तर्ज पर ही इनकी कहानियों में प्रतिरोध का स्वर दिखाई देता है। 

‘रावण’ श्योराज सिंह ‘बेचैन’ की चर्चित कहानियों में से एक है। ‘रावण’ ग्रामीण प्रवेश के जातिगत शोषण के भंयकर उत्पात को सामने लाने वाली कहानी है। कहानी की कथा कहती है कि गांव में ऊंची जाति के लोग दलितों से अथाह घृणा रखते है। दरअसल, जातिवाद की प्रवृत्ति एक मानसिकता है जो किसी भी समाज के व्यक्ति अपनी गिरफ्त में ले लेती है। ब्राह्मणवादी व्यवस्था के बुने जाल में पिछड़े समाज के लोग किस कदर फंस चुके, इसके सूत्र भी कहानी के भीतर पकड़े जा सकते है। रामलीला में मेघनाथ, कुंभकरण और विभीषण बने यादव जाति के लोग अपने जातीय दंभ और अभिमान के चलते रावण का किरदार निभाने वाले दलित कलाकर मूलसिंह के सामने अपना सिर झुकाने से मना कर देते है। अपने जातीय दंभ का प्रदर्शन करते हुये मूलसिंह को मंच पर ही अपने-अपने गदों से जमकर पिटाई करते है। इस घटना आहत होकर मूलसिंह गांव छोड़ने का फैसला करता है। 

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वहीं ‘बस्स इत्ति-सी बात’ जातिवादी और सामंती ठसक का रेशा-रेशा उघाड़ देने वाली कहानी है। इस कहानी की कथा में एक ओर जहां सवर्णों की जातीय अकड़न को पकड़ा गया है, वहीं दूसरी ओर सामंतवाद की चक्की में पीसती सवर्ण स्त्रियों की पीड़ा को भी सामने लाने का काम कथा लेखक ने किया है। ठाकुर कुंवरपाल सिंह के जाति दंभ को यह बर्दाश्त नहीं है कि उसकी तलाकशुदा पत्नी किसी दलित से पुर्नविवाह करे। ठाकुर कुंवरपाल सिंह सामंती और जातीय सनक में अपनी पूर्व पत्नी कीर्ति की हत्या महज इसलिए कर देता है कि उसने पुनर्विवाह एक दलित युवक से कर लिया था। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सामंती व्यवस्था की क्रूरता और प्रताड़ना के निशाने पर स्त्रियां और दलित रहे हैं। श्योराज सिंह ‘बेचैन’ अपनी कहानियों में जाति व्यवस्था के बीहड़ इलाकों की शिनाख्त करते हैं। इनकी कहानियों के भीतर सवर्णों के जातिगत शोषण की इबारत स्पष्ट तौर पढ़ी जा सकती है। दलित अधिकारों की दावेदारी इनकी कहानियों में अधिक गहरी और घनीभूत दिखाई देती है। 

संदर्भ :

  1. भरोसे  की बहन, श्योराज सिंह ‘बेचैन’, वाणी प्रकाशन, संस्करण, 2010
  2. मेरी प्रिय कहानियाँ, श्योराज सिंह ‘बेचैन’, राजपाल एण्ड संस, 2019

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुरेश कुमार

युवा आलोचक सुरेश कुमार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एम.ए. और लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद इन दिनों नवजागरण कालीन साहित्य पर स्वतंत्र शोध कार्य कर रहे हैं। इनके अनेक आलेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित हैं।

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