मेरी मां सुजाता पारमीता सासाराम, बिहार के डी.के. बैसंत्री और नागपुर, महाराष्ट्र की कौशल्या बैसंत्री की पुत्री थीं। मेरे नाना डी.के. बैसंत्री सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के पत्र सूचना कार्यालय में उप प्रमुख सूचना अधिकारी थे और मेरी नानी, कौशल्या बैसंत्री, महिला अधिकार कार्यकर्ता और जानीमानी लेखिका थीं। मेरी नानी बौद्ध थीं और इसलिए उन्होंने मेरी मां का नाम सुजाता रखा था। मेरी मां उनके माता-पिता की चौथी संतान थीं। तीन लड़कों के बाद मेरी मां का जन्म हुआ था। एक पड़ोसी ने मेरी नानी को कह दिया कि तीन लड़कों के बाद लड़की का जन्म अपशकुन होता है। कुछ ही दिनों बाद मेरी नानी का सबसे बड़ा लड़का काल के गाल में समा गया। मेरी नानी अपने पहले बच्चे की मौत को कभी स्वीकार न कर सकीं। यहीं से मेरी मां की यातना से भरी यात्रा की शुरुआत हुई। मेरी नानी आजीवन अपने बच्चे की मौत के लिए मेरी मां को ज़िम्मेदार ठहराती रहीं।
मेरे नाना हमेशा कहा करते थे कि उनकी चारों संतानों में से केवल मां में आइएएस अधिकारी या एक प्रसिद्ध लेखिका बनने की योग्यता है। वे स्वयं भी एक प्रतिष्ठित लेखक थे। मेरी मां हमेशा अपनी भावनाएं अपनी लेखनी से व्यक्त करती थीं।
वे स्वतंत्र ख्यालों की महिला थीं और रंगमंच उनका पहला प्यार। रेडियो, थिएटर और लेखन उनकी पसंदीदा गतिविधियां थीं। जब वे छठी कक्षा में थीं तब आकाशवाणी से उनके पहले नाटक का प्रसारण हुआ था। वह रवींद्रनाथ टैगोर की एक लघुकथा का नाट्य रूपांतरण था। मां ने उसमें मुख्य भूमिका निभायी थी और प्रसिद्ध अभिनेत्री सुधा शिवपुरी सह-कलाकार की भूमिका में थीं। घर का रेडियो काम नहीं कर रहा था, इसलिए मेरी मां को उनका नाटक सुनने के लिए पड़ोसी के घर में जाना पड़ा था। आगे चल कर उन्होंने रेडियो के लिए कई नाटक किए। जालंधर दूरदर्शन केंद्र का उद्घाटन मेरी मां के एक नाटक के प्रसारण से हुआ था।
उन्होंने पत्रकारिता में डिप्लोमा हासिल किया और सन 1974 में बिहार सरकार की छात्रवृत्ति पर भारतीय फिल्म और टेलीविज़न संस्थान (एफटीआईआई), पुणे, में दाखिल ले लिया। वहां उन्होंने सतीश शाह, राकेश बेदी और अपने अन्य सहपाठियों के साथ कई फिल्में बनाईं। उनके अन्य सहपाठियों में शामिल थे सुरेश ओबेरॉय, ओमपुरी, डेविड धवन और सुधीर पांडे। एफटीआईआई से निकलने के बाद वे फ़िल्मी दुनिया में अपनी किस्मत आज़माने मुंबई चलीं गईं, परंतु वहां की राजनीति और जोड़-तोड़ उनके वश की नहीं थी। अंततः उन्होंने फिल्मों में अपना कैरियर बनाने का इरादा त्याग दिया।
मेरे पिता की मेरी मां से मुलाक़ात उनके पुणे जाने से पहले हुई थी। उन्होंने मेरे पिता की कंपनी के लिए मॉडलिंग की थी। मेरे पिता ने उनसे वायदा किया था वे उन्हें एक बेहतरीन पारिवारिक जीवन और अपने सपनों को साकार करने की आज़ादी देंगे। परन्तु वह नहीं हो सका। यह परीकथा शुरू होने से पहले ही समाप्त हो गई। मेरे पिता की कंपनी को ज़बरदस्त घाटा हुआ और उन्हें अपने आप को दिवालिया घोषित किये जाने की दरखास्त लगानी पडी। मेरी मां ने बिना कोई शिकायत किए उन कठिन दिनों में मेरे पिता का साथ दिया। दोनों का जीवन मुसीबतों से भरा हुआ था और यह तो केवल शुरुआत थी। मेरी मां की और कठिन परीक्षाएं शेष थीं।
सन् 1977 के 19 नवम्बर को मेरे बड़े भाई अभिजीत का जन्म मेरी मां के लिए घुप्प अंधेरे में आशा की एक नन्हीं किरण की तरह था। वे उसे एक पवित्र आत्मा कहतीं थी – एक सुन्दर और सौम्य बालक। परंतु उनकी ख़ुशी ज्यादा दिन नहीं रही। मेरे भाई को ब्लड कैंसर हो गया और केवल दो वर्ष की आयु में वह चल बसा। मम्मी की मानों दुनिया ही उजड़ गई। जब वे मेरे बीमार भाई की देखभाल के लिए अस्पताल में थीं, तभी उनका गर्भपात हो गया।
मेरा जन्म इसके बाद हुआ। बचपन में मैं हाइपरएक्टिव थी और पढ़ाई-लिखाई में मेरी तनिक भी दिलचस्पी नहीं थी। मां ने नृत्य, चित्रकारी और नाट्य कला में मेरी रूचि जगाने का हर संभव प्रयास किया। वे मुझे तैराकी, घुड़सवारी और साइकिलिंग की क्लासों में ले जातीं थीं।
दिल्ली में सन् 1984 के सिक्ख-विरोधी दंगे उन्होंने काफी नज़दीक से देखा और वे अत्यंत व्याकुल हो गईं। वे स्वयं को असहाय महसूस कर रहीं थीं। वह कुछ करना चाहतीं थीं। वह अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए किसी माध्यम की तलाश में थीं। यह तलाश ‘आह्वान’ थिएटर सिनेमा और मास मीडिया की स्थापना के साथ समाप्त हुई। उनके कई दोस्त और साथी कार्यकर्ता ‘आह्वान’ रंग समूह की स्थापना में मदद करने के लिए आगे आए।
‘आह्वान’ रंग समूह उस समय दिल्ली में अपनी तरह का एकमात्र थिएटर और मीडिया समूह था। समूह ने अपना पहला नाटक, ‘देवदासी’, श्रीराम सेंटर में खेला, जो दो दिनों तक चला। उसने ढेर सारी प्रशंसा बटोरी। इसके बाद कमानी ऑडिटोरियम में अफ़्रीकी-अमरीकी नाटक ‘मुलट्टो’ मंचित किया गया। मां ने कलाकार चुने, सेट डिजाइनिंग की, निर्देशन किया और अभिनय भी किया। नाटक सफल रहा और समीक्षकों ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की।
इसके बाद ‘जाति’ पर एक फिल्म समारोह का आयोजन किया गया। इस समारोह में फीचर फिल्में और डाक्यूमेंट्री प्रदर्शित कीं गईं। प्रकाश झा द्वारा निर्देशित ‘दामुल’ भी उनमें से एक थी। ‘आह्वान’ रंग समूह ने मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के दौर में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों और हाउस ऑफ़ सोवियत कल्चर के सहयोग से कई विचार गोष्ठियों का आयोजन किया।
‘आह्वान’ रंग समूह और हाउस ऑफ़ सोवियत कल्चर ने ‘मैग्नीफीशेंट दलित एंड आदिवासी फोक लोर ऑफ़ इंडिया’ की शुरुआत की। इसके अंतर्गत तीजनबाई को उनकी कला का प्रदर्शन करने के लिए आमंत्रित किया गया। पुरुलिया छऊ नृत्य का प्रदर्शन भी हुआ। तत्समय के कई शीर्ष राजनीतिज्ञों को कार्यक्रमों में बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित किया गया। इनमें शामिल थे तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह, एच.के.एल. भगत एवं राम रतन राम। जल्दी ही मेरी मां का स्वास्थ्य उनके काम के आड़े आने लगा और मां को ‘आह्वान’ थिएटर बंद करना पड़ा। यह एक कठिन निर्णय था, परंतु और कोई रास्ता भी नहीं था।
मेरी माता-पिता के परस्पर संबंध बिगड़ते जा रहे थे और इस रिश्ते में मां घुटन महसूस करने लगी थीं। मुझे बोर्डिंग स्कूल भेज दिया गया ताकि घर के तनाव का असर मेरी पढ़ाई पर न पड़े। मां ने अपने वैवाहिक रिश्ते को बचाने की बहुत कोशिश की, परंतु पानी सिर से ऊपर जा चुका था।
मेरे माता-पिता के अलग हो जाने के बाद उनकी ज़िन्दगी और कठिन हो गई। मेरे पिता ने मेरी मां को परेशान करने में कोई कसर नहीं छोडी। उन्होंने मेरी मां को बदनाम किया। उन्होंने मुंबई के सान्ताक्रुज़ में स्थित होटल सेंटूर में मेरी मां को अनुसूचित जाति कोटे के अंतर्गत आवंटित बुटीक को उनसे छीनने का प्रयास किया। उन्होंने मेरे मां के खिलाफ दो मुकदमे भी दायर कर दिए – एक दिल्ली में और एक हैदराबाद के पास।
मां ने उनसे याचना की कि वे उन्हें अकेला छोड़ दें। उन्होंने यह प्रस्ताव भी रखा कि वे मुंबई का बुटीक छोड़ देंगीं यदि मेरे पिता उनके और उन दोनों की एकमात्र संतान अर्थात, मेरे, जीवनयापन के लिए गुज़ारा भत्ता देने लगें। परन्तु मेरी मां को शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना के अलावा कुछ हाथ नहीं लगा। वे हर महीने दिल्ली और हैदराबाद जाकर अदालतों में अपना बचाव करने और अपने आप को निर्दोष साबित करने का प्रयास करतीं रहीं। कई बार तो दोनों जगहों पर पेशियां आसपास होती थीं। वकीलों की फीस चुकाने के लिए उन्होंने अपना एक-एक गहना बेच दिया। उनकी सेहत गिरती जा रही थी। उस समय मैं भी उनके साथ नहीं थी क्योंकि मैं अपने पिता के प्रभाव में थी। परंतु उन्होंने कभी मुझे नहीं छोड़ा। मुझे याद है कि वे तीन दिन की ट्रेन यात्रा कर मुझसे मिलने मसूरी, जहां मेरा बोर्डिंग स्कूल था, आती थीं।
जब मैं नवमी में थी तब मुझे बोर्डिंग स्कूल से वापस बुलवा लिया गया। मैं अपने पिता के साथ रहने लगी। मेरी मां का संघर्ष जारी रहा।
कुछ साल बाद यह पता चला कि मुझे गालस्टोन्स हैं। मेरे पिता ने बहुत आसानी से मेरी मां से मुझे ले जाने को कह दिया क्योंकि वे मेरी देखभाल नहीं कर सकते थे। मेरी मां ने एक मिनट भी बर्बाद नहीं किया और वे तुरंत मुझे लेकर चेन्नई गईं, जहां मेरे सबसे छोटे मामा रहते थे। उन्होंने मेरा ऑपरेशन करवाया।
इस घटना ने मेरी आंखें खोल दीं। मुझे समझ आ गया कि मेरी मां मुझसे कितना प्यार करतीं हैं और मैं कई सालों से उनके बारे में कितना कुछ गलत सोच रही थी। हम लोग मुंबई लौट आए और इसके कुछ ही समय बाद हमारा बुटीक बंद हो गया। हमारे पास अब कुछ भी नहीं बचा था।
मेरी मां ने अपने बड़े भाई से संपर्क किया और यह अनुरोध किया कि उनके पिता की संपत्ति में उनका हिस्सा उन्हें दिया जाए ताकि वे ठीक ढंग से मेरी देखभाल कर सकें। परंतु मेरे मामा ने साफ़ इंकार कर दिया। उन्होंने मेरी मां का फ़ोन ही उठाना बंद कर दिया।
हमने नए सिरे से शुरुआत की। मैंने एक साल के लिए अपनी पढ़ाई भी बंद कर दी। इससे मेरी मां का दिल टूट गया। वे चाहतीं थीं कि मैं अपनी शिक्षा पूरी करूं और एक सफल व्यक्ति बनूं, जिससे मुझे वे परेशानियाँ न झेलनी पड़ें जो उन्हें झेलनी पडीं थीं। मैंने काम करना शुरू कर दिया और अपनी शिक्षा भी पूरी की। धीरे-धीरे हमारे हालात बेहतर होने लगे। हम कई सालों तक एक कमरे के फ्लैट में रहे। हमारे पास पैसा तो नहीं था परंतु हम खुश थे मैंने देखा कि मेरी मां को शांति मिल गई थी। उन्होंने मुझसे कहा कि वे इससे पहले कभी इतनी खुश नहीं थीं। वे अपने आप को आज़ाद महसूस कर रहीं थीं। वे अत्यंत दयालु और भली महिला थीं और सभी का स्वागत मुस्कुराते हुए करतीं थीं। उनके कई मित्र हमारे घर आया करते थे और वहां ठहरा करते थे।
जब कई बार अनुरोध करने के बाद भी उन्हें अपने पिता की संपत्ति में उनका हिस्सा नहीं मिला तो उन्हें मजबूर होकर मेरे मामा राजीव रंजन बैसंत्री के खिलाफ अदालत में मामला दर्ज करवाना पड़ा। मुझे याद है कि उन्हें दो बसें बदल कर और फिर 15 मिनट पैदल चल कर अदालत पहुंचना पड़ता था। कई साल लगे। अंततः अदालत ने मेरी मां के पक्ष में फैसला दिया। इसके बाद भी मामा ने पिता की संपत्ति में उनका हिस्सा उन्हें नहीं दिया। वे फिर से अदालत गईं और उन्हें वह मकान मिल गया, जिसकी उन्हें बेहद ज़रुरत थी।
अब हमारे पास अपना मकान था। परन्तु मेरी मां का स्वास्थ्य गिरता ही जा रहा था। उनके गुर्दों ने जवाब दे दिया था। उन्हें हर हफ्ते तीन बार डायलिसिस करवाने पड़ता था। उन्हें ऑटोइम्यून हेमोलिटिक एनीमिया भी था। परंतु वह एक मज़बूत महिला थीं। मेरे प्रति उनके प्यार ने उन्हें जिंदा रखा। डाक्टरों को यह समझ नहीं आ रहा था कि इतनी ख़राब हालत में भी वे जिंदा कैसे थीं।
मां बहुत शानदार कुक थीं। कोई भी मेहमान हमारे यहां से बिना कुछ खाए वापस नहीं जाता था। वे साधारण व्यंजनों को भी एक नया रूप देने में सिद्धहस्त थीं। अपने जीवन के अंत तक उन्होंने एक नियम का पालन किया – वे हर रोज़ कम से कम एक व्यक्ति को खाना खिलाती थीं।
बहुत से लोग नहीं जानते कि मेरे कारण ही मेरे माता-पिता फिर से एक हो सके। मेरे पिता के पास उनका खर्च चलाने लायक पैसे नहीं थे। उनका खर्च भी मैं ही उठाती थी। परंतु मेरी ऐसी स्थिति नहीं थी कि मैं अपने माता-पिता का उनके अलग-अलग रहते हुए खर्च उठा सकूं। मैं पढ़ भी रही थी और काम भी कर रही थी। मेरी मां ने मेरा बोझ हल्का करने के लिए मेरे पिता के साथ रहने का कठिन निर्णय लिया और इसी कारण मैं एमबीए की अपनी पढ़ाईं पूरी कर सकी।
वे सबसे अच्छी मां, एक शानदार दोस्त, अद्भुत कलाकार, प्रतिभाशाली महिला, निष्ठावान कार्यकर्ता, सच्ची बौद्ध और और भी बहुत कुछ थीं। जब उनके अपने उनके बारे में व्यर्थ की गप्पबाज़ी करते थे तो उनका दिल टूट जाता था। वह परेशान हो जातीं थीं, परंतु वह उन लोगों को माफ़ कर देती थीं। मां की याददाश्त बहुत अच्छी नहीं थी – या वे शायद उन्हें चोट पहुँचाने वाले लोगों और घटनाओं को याद रखना ही नहीं चाहतीं थीं। वे कई बार कहती थीं कि कमज़ोर याददाश्त एक नियामत है। उन चीज़ों को हम क्यों याद रखें जो हमें नाखुश करतीं हैं?
मेरी मां के साथ मेरे संबंध अनूठे थे। हम लोग बहनों की तरह एक-दूसरे से लड़ते थे और मांओं की तरह एक-दूसरे की फिक्र करते थे। उन्होंने मुझसे कहा था, “जिस दिन तुम मुझसे चीज़ें छुपाने लगोगी, उस दिन मैं मां के रूप में असफल हो जाऊंगीं।”
मां की मुस्कान संक्रामक थी। वे उसी के साथ जिंदा रहीं और उसी के साथ चली गईं।
(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)
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