वरिष्ठ पत्रकार व विमर्शकार उर्मिलेश की किताब “गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल” चर्चा में है। अपनी इस किताब में उर्मिलेश ने अतीत के अनुभवों को साझा किया है। समयानुकूल टिप्पणियों के कारण भी यह किताब ध्यान अनायास ही अपनी ओर खींचती है। फिर चाहे वह उच्च शिक्षण संस्थानाें में दलित-बहुजनों के प्रति व्यवहार का मामला हो या फिर साहित्य जगत का दोमुंहापन। वे वामपंथ को भी कटघरे में खड़ा करते हैं और समाजवादियों पर सवाल खड़ा करते हैं। इस किताब के संदर्भ में फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार ने उर्मिलेश से साक्षात्कार किया है।
साक्षात्कार
आपने अपनी किताब में यह बताया है कि जेएनयू जैसे संस्थान में भी जातिगत भेदभाव होता था। इसका शिकार आप भी हुए। तब उन दिनों जो पार्टियां और नेता पिछड़ा वर्ग या फिर दलित वर्ग को लेकर सक्रिय थे, उनकी तरफ से कोई हस्तक्षेप होता था?
मेरी स्मृति में ऐसा कोई दृष्टांत नही है। जहां तक याद है, दक्षिण भारत के किसी छात्र या छात्र-समूह के साथ अगर दिल्ली में कुछ अन्याय या कुछ भी अनुचित होता था तो वे जरूर बोलते थे। इसके अलावा थोड़ा-बहुत हस्तक्षेप कभी हुआ भी तो वह दलित समुदाय के नेताओं की तरफ से हुआ होगा। ओबीसी नेताओं के किसी ऐसे हस्तक्षेप की मुझे याद नहीं है। हमारे छात्र-जीवन में मंडल आयोग की आरक्षण सम्बन्धी सिफारिश भी लागू नहीं हुई थी।
शिक्षक के रूप में नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह और मैनेजर पांडे के बीच ऐसी कौन सी बात थी जो तीनों में साझा थीं और कौन सी ऐसी बात थी जो उन्हें एक-दूसरे से अलग करती थी?
तीनों अलग-अलग व्यक्ति थे इसलिए तीनों का अपना अलग व्यक्तित्व था। डॉ. नामवर सिंह इन तीनों में सबसे ज्यादा पढे-लिखे या ज्ञानी थे, इसमें कोई दो राय नहीं। वह बेहतरीन शिक्षक भी थे। पर उनकी कथित वैचारिकता और जीवन व कर्म की व्यावहारिकता में बहुत फर्क था। यानी उनके शब्द और कर्म में गहरा भेद नजर आता था। मार्क्सवादी दर्शन की उन्होंने पढ़ाई जरुर की थी पर वह किसी स्तर पर मार्क्सवादी नहीं थे।
केदारनाथ सिंह कवि ह्रदय थे। उनकी कुछ कविताएं बेजोड़ हैं पर वह वैचारिक व्यक्ति नहीं थे। मुझे तो वह किसी भी अन्य महकमे में काम करने वाले काव्यात्मक मिजाज के व्यक्ति की तरह दिखते थे। उस समय के डा मैनेजर पांडेय को आप ‘मिनी नामवर’ सिंह कह सकते हैं। वह पढ़ाई-लिखाई करने वाले शिक्षक थे। शिक्षक भी ठीक-ठाक थे। शोध निर्देशक भी अच्छे थे। लेकिन नामवर जी वाली समस्या उनके पास भी थी– शब्द और कर्म का फर्क।
यह सिर्फ नामवर जी या मैनेजर जी की समस्या नहीं रही है, हिंदी भाषी क्षेत्र के ज्यादातर ‘प्रगतिशील बुद्धिजीवियों’ की समस्या है कि वे ठीक से ‘डिक्लास’ भी नहीं पाते और ‘डिकास्ट’ होना तो वैसे भी भारतीय समाज में एक कठिन चुनौती है।
आपने बताया है कि नामवर जी ने कई तरह से आपका अहित किया? क्या उनके नजरिए में कोई बदलाव आया जब आप पत्रकारिता के क्षेत्र में आए और एक तरह से आपने अपनी प्रतिभा को साबित किया? क्या उसके बाद कोई ऐसी मुलाकात हुई नामवर सिंह जी से? और यदि हुई तो उनका व्यवहार कैसा था?
हाँ, नामवर जी से कई बार मुलाकात हुई। एक बार तो हम दोनों ने नागपुर विश्वविद्यालय में आयोजित एक कार्यक्रम में मंच भी साझा किया। संभवतः यह सन् 1993-94 की बात होगी। वह राहुल सांकृत्यायन की स्मृति में आयोजित था। उस कार्यक्रम में मेरे संबोधन की नामवर जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में जमकर तारीफ की थी और मुझे अपना ‘सुयोग्य शिष्य’ कहा था। वह भाषण रेडियो से प्रसारित भी हुआ और अगर मैं भूल नहीं रहा तो ‘पहल’ या इसी तरह की किसी पत्रिका में छपा भी था। उन दिनों मैं नवभारत टाइम्स में काम करता था और राहुल सांकृत्यायन पर मेरी एक किताब आ चुकी थी या आने वाली थी। उस समारोह के एक प्रमुख आयोजक थे–लेखक और वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश चंद्रायन जो अभी नागपुर में ही रहते हैं। एक अन्य कार्य क्रम में भी पटना में हम मिले थे। वह मेरी ही एक किताब का लोकार्पण था। किताब का प्रकाशन किया था–बिहार राष्ट्र भाषा परिषद ने। समारोह में नामवर जी के अलावा कमला सांकृत्यायन जी भी थीं। नामवर जी को आमंत्रित करने का फैसला परिषद ने किया था।

सन् 2013 में ‘समयांतर’ में नामवर जी पर केन्द्रित मेरे संस्मरणात्मक लेख छपने के बाद भी दो-तीन बार हमारा आमना-सामना हुआ। पर कोई खास बात नहीं हुई। नामवर जी के निधन के बाद मैं उनकी अंतिम यात्रा में भी शामिल हुआ था। मेरे अंदर उनको लेकर कभी कोई दुर्भावना या निरादर का भाव नहीं रहा। उनको लेकर शिकायत जरूर थी कि उनकी कथनी और करनी में इतना फर्क क्यों है? वह बौद्धिक रूप से इतने अनैतिक और व्यावहारिक स्तर पर इतने समझौतावादी क्यों हैं?
राजेंद्र यादव जी को आप दो तरीके से देखने और समझने की बात कहते हैं। एक अस्सी के पहले और दूसरे उसके बाद के काल के। एक कहानीकार के रूप में आप उन्हें नई कहानी के अन्य साहित्यकारों से अलग कैसे पाते हैं?
राजेंद्र जी के बारे में पूछे आपके इस सवाल पर मैने अपनी इस किताब के एक चैप्टर में बहुत विस्तार से अपनी बात कही है।
आपने एक जगह लिखा है कि राजेंद्र यादव जी पर पश्चिम के साहित्य का असर था। क्या उनके उपर भारतीय समाज में हो रहे बदलाव खासकर दलितों व पिछड़ों में जागृति का असर भी था? उनके द्वारा रचे गए साहित्य को आप वामपंथ के अधिक करीब मानते हैं या फिर समाजवाद के? या इनमें से कोई भी नहीं?
राजेंद्र जी के दो रूपों या उनके जीवन के दो चरणों की बात मैने की है, उसमें दूसरा मुझे ज्यादा आकर्षित करता है। ‘हंस’ के संपादक के रूप में राजेंद्र यादव। इस रूप में उन्होंने बहुत बड़ा काम किया। इस दौर में लिखे उनके संपादकीय या लेख जनता, देश और समाज के बड़े सवालों को संबोधित करते हैं। लेखक की अपनी कोई विचारधारा हो सकती है पर उसका लेखन विचारधारा के पास या दूर होने से नहीं पढ़ा जाता, वह समाज और जनता के कितना करीब है, इससे पहचाना या पढ़ा जाता है।

आपने उन दिनों पत्रकारिता की शुरूआत की जब देश में मंडल कमीशन लागू हो रहा था। उन दिनों न्यूज रूम में किस तरह की बहसें होती थीं? और अखबारों का नजरिया क्या होता था?
नहीं, मैने पत्रकारिता की शुरुआत मंडल आयोग की एक सिफारिश के लागू किये जाने से दस साल पहले की थी। लागू होते समय तो पत्रकारिता में था ही। न्यूज़ रूम में आज की तरह उस दौर में भी एफमरेटिव एक्शन और आरक्षण आदि के खिलाफ़ बडा ही उग्र माहौल था। अखबार क्या संपूर्ण मीडिया ही, उसमें काम करने वाले चंद व्यक्तियों को छोड़कर, आरक्षण विरोधी था और है।
ओबीसी साहित्य को लेकर आप सोचते हैं? क्या आपको लगता है कि जिस तरह से दलित साहित्य और आदिवासी साहित्य का स्पेस बनता जा रहा है, वैसा ओबीसी साहित्य के मामले में भी होगा?
साहित्य, लेखन और पत्रकारिता में इस तरह का श्रेणीकरण और विशेषण किसी आंदोलन या अभियान विशेष को संबोधित करने के लिए खोजे जाते हैं। मै एक पत्रकार और लेखक हूँ, कोई आंदोलनकारी या अभियान-संचालक नहीं, इसलिए ओबीसी साहित्य या लेखन जैसा श्रेणीकरण या विशेषण मुझे बहुत प्रासंगिक या अर्थपूर्ण नहीं लगता। दलित साहित्य का एक विशिष्ट संदर्भ रहा है। ओबीसी साहित्य का वैसा कोई संदर्भ नहीं नजर आता।
लंबे समय तक आपने ओबीसी राजनेताओं को देखा है। ओबीसी के सवालों को लेकर पहले के नेताओं और आज के नेताओं में आप क्या कोई अंतर पाते हैं?
ओबीसी क्या आज तो दलित राजनीतिक नेतृत्व भी नहीं रह गया है। कांशीराम के बाद मुझे तो दलित नेतृत्व भी नहीं दिखता। हिंदी भाषी क्षेत्र में ओबीसी की कोई सुगठित और सुसंगत लीडरशिप नही है।
आज ओबीसी की ऊंची जातियों के बारे में तर्क दिया जाता है कि आरक्षण का सबसे अधिक लाभ इन जातियों को ही मिला है। इस संबंध में विश्वविद्यालयों में नौकरी मिलने में जो चुनौतियां आपके समक्ष आयीं और पत्रकारिता में आने के बाद जो कुछ आपने देखा है, उसके आधार पर क्या कहेंगे?
ये सब सामाजिक न्याय, समता और सद्भाव के बुनियादी उसूलो से लोगों का ध्यान हटाने के लिए कहा जा रहा है। दलित, ओबीसी और अन्य वंचित समूहों को न्याय और हिस्सेदारी हासिल करने के लिए लंबा संघर्ष करना होगा।
(संपादन : अनिल)
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