इसमें कोई दो राय नहीं कि जबतक जाति जनगणना नहीं होगी तब तक समुचित प्रीतिनिधित्व मिलना संभव नहीं है। यदि जातिगत जनगणना नहीं होगी तो सभी जातियां महज अनुमान के आधार पर ही अपनी-अपनी संख्या को बढ़ा-चढ़ाकर दावा करेंगी। जो जाति जितनी प्रभावशाली और समृद्ध है, वह अपने आप को उतना ही अधिक पीड़ित बताएगी। इसका ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश की राजनीति में दिखाई दे रहा है। गैंगस्टर विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद जिस तरह से उसके प्रति सहानुभूति दिखाकर कुछ स्वजातीय नेताओं ने सत्ता की सीढ़ी बनाने की कोशिश की है, वह अपराध को राजनीति की प्रक्रिया में बदलने के मामले में एक मिसाल है। यह अपराध को वैधता प्रदान करने जैसा है। इस लिहाज से सभी जातियाँ भविष्य में अपनी जाति के अपराधियों का महिमामंडन कर अपनी जाति की सहानुभूति बटोरने का प्रयास करेंगी।
इससे पहले कानून व्यवस्था को तोड़ने वाले अपराधियों के प्रति बहुत दबी-छिपी जातिगत सहानुभूति दिखाई देती थी, लेकिन अब तो खुलकर अपराधी के पक्ष में सम्मेलन हो रहे हैं। प्रबुद्ध वर्ग के नाम पर हुए, ब्राह्मण सम्मेलनों से पता चलता है कि ब्राह्मण वर्ग अपने सजातीय हितों को सर्वोपरि मानता है। अपनी किताब “जाति का विनाश” में डॉ. आंबेडकर कहते हैं कि “प्रत्येक देश में बुद्धजीवी वर्ग सर्वाधिक प्रभावशाली वर्ग रहा है, वह भले ही शासक वर्ग न रहा हो। वह दूरदर्शी होता है, सलाह दे सकता है और नेतृत्व प्रदान कर सकता है। किसी भी देश की अधिकांश जनता विचारशील एवं क्रियाशील जीवन व्यतीत नहीं करती। ऐसे लोग प्रायः बुद्धिजीवी वर्ग का अनुकरण और अनुगमन करते हैं। यदि बुद्धिजीवी वर्ग ईमानदार, स्वतंत्र और निस्पक्ष है तो उस पर भरोसा किया जा सकता है कि संकट की घड़ी में वह पहल करेगा और उचित नेतृत्व प्रदान करेगा। बुद्धिमान व्यक्ति भला हो सकता है, लेकिन वह दुष्ट भी हो सकता है। … आपको यह सोचकर खेद होगा कि भारत में बुद्धजीवी वर्ग ब्राह्मण जाति का ही दूसरा नाम है। आप इस बात पर खेद व्यक्त करेंगे कि ये दोनों एक हैं। जब ऐसा बुद्धिजीवी वर्ग जिसने शेष हिन्दू समाज पर नियंत्रण कर रखा है और जाति व्यवस्था में सुधार करने का विरोधी है, तभी मुझे जातिप्रथा समाप्त करने वाले आंदोलन का सफल होना नितांत असंभव दिखाई देता है।”
जिस देश का बुद्धिजीवी वर्ग अपनी जाति की श्रेष्ठता और वर्चस्व को बनाए रखना ही अपना बौद्धिक कर्तव्य मानता हो, भला वहां जातिगत जनगणना से परहेज क्यों होनी चाहिए?
जाति-व्यवस्था भारतीय समाज की ऐसी सच्चाई है कि यह कई बार प्रगतिशील चेहरे को भी बेनकाब करने से नहीं चूकती है। इससे मुंह मोड़ना यानी कि खुद के साथ दूसरों को भी धोखे में रखने जैसा है। हमारे जीवन का बहुत सारा हिस्सा जाति ही निर्धारित कर देती है। मसलन रीति-रिवाज, सामाजिक संस्कार, विवाह, व्यवसाय से लेकर मतदान तक कमोवेश इसी से निर्धारण होता है। जाति आधारित हमारी सीढ़ीदार सामाजिक बुनावट को बहुत आसानी से देखा और समझा जा सकता है।
आजादी के सात दशक बाद भी समाज का एक बड़ा हिस्सा सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से बेहद पिछड़ा हुआ है। किस जाति के लोगों की संख्या कितनी है, उनके पास जमीन कितनी है, उनकी नौकरियों में और शिक्षा में भागीदारी कितनी है, इन सबका कोई भी प्रामाणिक आंकड़ा हमारे पास उपलब्ध नहीं है। यदि आंकड़ा सरकार के पास प्रामाणिक रूप से उपलब्ध होता तो तमाम सरकारी योजनाओं को क्रियान्वयन करने में उसे सहूलियत होती। किन्तु जातिवाद की मानसिकता में आकंठ डूबे हुए इस देश के ठेकेदारों की मंशा है कि जातिगत जनगणना हो ही नहीं, क्योंकि इससे निकलकर जो सच्चाई सामने आएगी वह अनेक सवालों को जन्म देगी। देश के संसाधनों और महत्वपूर्ण संस्थानों पर कौन से लोग कुंडली मारकर बैठे हैं, मुट्ठी भर लोग जो शासन, न्यायालय, नौकरशाही और मीडिया में हैं, वे किस जाति के हैं और जो आज भी मछ्ली और चूहा मारकर पेट भर रहे हैं, भैंस, भेड़ तथा बकरी पालकर घर चला रहे हैं, वे कौन हैं? खेत से लेकर कारखानों तक कौन लोग दिन-रात मजदूरी करके मर-खप रहे हैं, झुग्गी-झोपड़ियों में कौन लोग रह रहे हैं? यह सब तभी स्पष्ट होगा जब जातिगत जनगणना होगी। हाल के दिनों में भाजपा जैसी घोर दक्षिणपंथी पार्टी के नेतागण वामपंथियों की तर्ज पर समाज को दो वर्गों में बांटने की बात करने लगे हैं। एक अमीर और दूसरा गरीब। वैसे अमीरी-गरीबी सभी समाजों में होती है, लेकिन भारत में इसका जाति से भी संबंध है। इसलिए बीमारी की सही-सही जानकारी होनी चाहिए, तभी उसका सही निदान निकाला जा सकता है।

यह भी अजीब विडम्बना है कि पिछड़ी जाति को संवैधानिक आरक्षण जाति के आधार पर दिया जा रहा है, लेकिन जाति के लोगों की गणना करने से सरकार पीछे हट रही है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि नीति बनाने के लिए विभिन्न जातियों के लोगों की आबादी व उनकी स्थिति आदि के प्रामाणिक आंकड़े जरूरी हैं, लेकिन सरकार के पास कोई भी प्रामाणिक आकड़ा उपलब्ध ही नहीं है। इस बात से सभी अवगत है कि अंग्रेजों के समय 1931 में अंतिम बार जातिगत जनगणना हुई थी, उसी आकड़े को आज भी इस्तेमाल किया जाता है। 90 साल पुराने आंकड़े से अब काम नहीं चलाया जा सकता। तब भारत का बंटवारा नहीं हुआ था और अब वह भारत तीन अलग-अलग देश है। उस समय सामाजिक और शेक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों के लोगोंकी आबादी 52 फीसदी थी, किन्तु अब गंगा और यमुना में पानी बहुत बह चुकाहै। यही कारण है कि चुनाव आते ही पार्टियां जाति के आधार पर सत्ता पाने के लिए गोटियां बिछाने लगती हैं। मीडिया चैनल भी चुनावी विश्लेषक के साथ दिन-रात जाति के विश्लेषण में लगे रहते हैं कि किस जाति समुदाय का वोट किस दल को जा रहा है। लेकिन जातिगत जनगणना से जातिवाद हावी हो जाएगा, इस तरह का भ्रम हमेशा से फैलाया जा रहा है। जबकि देश में धर्म के आधार पर गणना होती है तो क्या उस आधार पर ही धार्मिक दंगे होते हैं? व्यावहारिक धरातल पर सबकुछ जाति निर्धारित कर रही है लेकिन सिद्धांततः इस गंभीर बीमारी से आंख चुराने की कवायद की जा रही है।
आश्चर्य नहीं कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार अपने आप को पिछड़ी जाति का नेता बताकर पिछड़ी जाति का वोट और सहानुभूति पाने में सफल रहे हैं। लेकिन जातिगत जनगणना से अब वे कतरा रहे हैं।
ओबीसी जातियों को लेकर कांग्रेस की मंशा भी ठीक नहीं रही है। मंडल आयोग का गठन 1979 में जनता पार्टी की सरकार में हुआ जबकि उसकी सिफ़ारिश को 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने लागू किया। यानी मंडल आयोग का गठन और सिफ़ारिश दोनों गैर कांग्रेस सरकार में ही संभव हुआ। यही स्थिति वर्तमान भाजपा सरकार की भी है। भाजपा सरकार की कई नीतियां आरक्षण और सामाजिक न्याय के खिलाफ रही हैं। एक तरफ बिना किसी आयोग की सिफ़ारिश के 10 प्रतिशत सवर्ण आरक्षण देकर उन्हें खुश करने की कोशिश की गई। दूसरी तरफ ओबीसी को खुश करने के लिए कुछ ओबीसी नेताओं को मंत्री बना दिया गया है। लेकिन ओबीसी की दीर्घकालीन और व्यापक भलाई जिस जातिगत जनगणना में है, उसके लिए कदम नहीं उठाए जा रहे हैं।
जातिगत जनगणना के विरुद्ध एक तर्क दिया जा रहा है कि इससे जातिवाद बढ़ जाएगा, लोगों के अंदर जातिगत चेतना बढ़ जाएगी। थोड़ी देर के लिए इस मुद्दे पर सोचिए कि क्या जातिगत जनगणना नहीं हो रही है तो क्या जातिवाद खत्म हो गया है? ऊची जातियों में जाति की चेतना पहले से ही है। जातिगत जनगणना के बाद यह होगा कि अन्य जातियों में भी चेतना आ जाएगी। अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक अधिकारों के प्रति इन जातियों के लोग अधिक सजग हो जाएंगे। अब तक जो जातियां हाशिये पर हैं, राजनीतिक पार्टियों को उनके बारे में भी मजबूरन सोचना पड़ेगा। जातिगत जनगणना का सबसे ज्यादा मुखर विरोध संघ, सवर्ण और भाजपा ही क्यों करती है? यदि वह मानते हैं कि सवर्ण भी गरीब हैं तो फिर जाति जनगणना से भय कैसा है? किन्तु द्विजों को भय है कि जाति जनगणना के बाद सच्चाई से पर्दा उठ जाएगा। लोग प्रत्येक जाति की सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक पहलुओं से वाकिफ हो जाएंगे। ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का नारा एक बार फिर बुलंद होने लगेगा जो कि अभी राष्ट्रवाद की लहर में खो गया है। सवर्णों को भय है कि मंडल कमीशन के बाद जिस तरह मंडल बनाम कमंडल की राजनीति में कमंडल पीछे छूट गया था, वैसी हालत जातिगत जनगणना के बाद न हो जाए।
बहरहाल, यह तो स्पष्ट है कि जिसे समाज विज्ञानी ‘मंडल आंदोलन 2.0’ कह रहे हैं, यह वर्तमान राजनीति के स्वरूप को बदल देगा। भाजपा के रथ का पहिया धर्म की राजनीति में जिस तेजी से चलता है, जाति की राजनीति में उतनी ही तेजी से धंसने और फंसने लगता है। इसलिए यह गलती भाजपा सरकार शायद ही दुहराएगी। यदि अत्यधिक दबाव पड़ने पर उसने जातिगत जनगणना करवा भी दिया तो उसे सार्वजनिक भी करेगी, इसमें संदेह ही है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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