h n

वेल्लुवर और शुचिता

ब्राह्मणों का कहना है कि धर्मशास्त्रों में जो लिखा है, वह ब्रह्म-वाक्य है और वह सत्य-सनातन यानी हर युग के लिए है। इस बात की परवाह किए बिना कि इन दोनों महान संतों (वेल्लुवर और अव्वई) ने क्या कहा है, या उनके विचारों में झूठ/सच की परवाह किए बिना, व्यक्ति को यह बात मान लेनी चाहिए कि इन विधि-संहिताओं (नीति-ग्रंथों) की रचना उस दौरान हुई थी, जब आर्य इस भूमि पर छा चुके थे। पढ़ें, पेरियार का यह आलेख

कुदीआरसु, 12 फरवरी, 1928 के अंक में प्रकाशित व ई. वी. रामासामी पेरियार की पुस्तक ‘पेन्न यीन अदीमाई आनल’ (स्त्रियों को किसलिए गुलाम बनाया गया?) के अंग्रेजी अनुवाद “व्हाई वुमेन वर एन्स्लेव्ड?” (अनुवाद मीना कंडासामी, प्रकाशक पेरियार सेल्फ रेसपेक्ट मूवमेंट, चेन्नई, तृतीय संस्करण, 2019) में संकलित दूसरे अध्याय का ओम प्रकाश कश्यप द्वारा हिंदी अनुवाद 

शुचिता पर प्रकाशित हमारे लेख का हमारे साथियों में से एक ने विस्तार सहित खंडन किया है। अपने तर्कों की पुष्टि में उन्होंने तिरुक्कुल से उद्धृण भी दिए हैं।  

उस निबंध में हमने लिखा था, “यदि वेल्लुवर एक स्त्री होते और उन्होंने तिरुक्कुल की रचना की होती, तब उनके विचार ऐसे नहीं होते।” आलोचना करने वाले हमारे साथी1 ने एक सीमा तक हमारी राय से सहमति जताई है। किंतु उन्होंने यह कहकर खंडन भी किया है कि, ‘किसी स्वार्थी समूह के अस्वीकार करने पर, क्या न्याय, अन्याय बन जाता है?’’’

स्त्रियों को उन्होंने ‘स्वार्थपूर्ण सरोकारों वाला समूह’ कहा है : क्या इसका अभिप्राय यह है कि उनके पक्ष में न्याय किया जा चुका है? पुरुष स्त्रीवादी लेखन के समर्थन में आगे आकर यदि यह दावा करने लगें कि उनके लिए क्या सही है—तो क्या यह स्वार्थपरता नहीं है? इन सवालों पर मंथन किया जाना चाहिए। हमारे साथी का कहना है– “तमिलनाडु की जानी-मानी, महिला हस्तियों ने इस अवधारणा का स्वागत किया है।” (उन्होंने यह नहीं बताया है कि ‘अवधारणा’ क्या है।)

यदि किसी महिला हस्ती ने यह स्वीकार लिया है कि वह पुरुषों के अधीन है, अथवा वह पुरुषों से कमतर है, या फिर नारीत्व का महत्व कम से कम मर्दानगी की तुलना में बहुत कम है – तो हम उसे महिला-हस्ती या स्त्रियों की प्रतिनिधि हरगिज नहीं पुकारेंगे।

हमारे मित्र कहते हैं कि अपने वक्तव्य में हमने स्त्रियों पर आरोप लगाया है कि, “स्त्रियों ने इन धारणाओं को शताब्दियों पुरानी परंपराओं के कारण स्वीकार लिया था।” इसकी तुलना दमित जातियों से करने पर, जिन्होंने अपनी हीनतर सामाजिक प्रस्थिति से समझौता कर लिया है – उन्होंने आपत्ति जताई है। उनका तर्क है– “दलित जातियां इसलिए अज्ञानी बनीं, क्योंकि उन्हें उनकी बुद्धिमत्ता के विकास के अवसरों से वंचित रखा गया था। यह तर्क स्त्रियों के मामले में लागू नहीं होगा।”

इस बात का पता नहीं चलता कि उन्होंने यह निष्कर्ष क्या किसी शोध के बाद निकाला है? हम यह समझने में असमर्थ हैं कि हमारे आलोचक मित्र यह क्यों नहीं समझ पाए हैं कि स्त्रियों को अपनी बुद्धि और तर्क-सामर्थ्य के माध्यमों का विकास करने से रोका गया था। उन्हें उन्हीं लोगों ने दमन और पराधीनता का शिकार बनाया था, जिन्होंने दलित वर्ग की श्रेणियों का निर्माण कर, उन्हें अपने बौद्धिक सामर्थ्य का विकास करने वाली युक्तियों/संसाधनों से वंचित रखा था। 

पुनश्चः उन्होंने अव्वई को स्त्री-मेधा के प्रतीक के रूप में उद्धृत किया है। यदि उन्होंने वेल्लुवर को भी उसी निष्ठा के साथ उद्धृत किया होता तो उन्हें मानना पड़ता कि शोषित में जन्म लेकर भी व्यक्ति उत्कृष्ट मेधा-संपन्न हो सकता है। इसलिए हम चाहते हैं कि वे इस हकीकत को भली-भांति समझ लें कि हम एक या दो स्त्रियों की बात नहीं कर रहे हैं। हमारे सरोकार 99.75 प्रतिशत स्त्रियों से हैं। यदि वे कहते हैं कि अपने कथन द्वारा हम स्त्रियों पर दोषारोपण कर रहे हैं, तो समानांतर निष्कर्ष तक पहुंचते हुए हमें कहना पड़ेगा कि हमारे मित्र दलित जातियों पर अनुचित दोषारोपण कर रहे हैं। 

उन्होंने यह दावा भी किया है कि अव्वई ने स्वयं तिरुवेल्लवुर का बचाव किया था। इसके समर्थन में उन्होंने अव्वई के इस कथन को उद्धृत किया है– “थाइयल सोर्केलिल”, जिसका अभिप्राय है – “स्त्रियों की मत सुनो।” उन्होंने यह भी कहा है कि यह ‘तिरुवेल्लुवर’ के 91वें अध्याय की सूक्ति, ‘स्त्रियों के नेतृत्व में’ के अनुरूप है। उन्होंने अव्वई के पद ‘पेधैमाई इनाबाधु मातर्क्कु अनिक्लम’ (अज्ञानता स्त्रियों का आभूषण है) को भी उद्धृत किया है। इसलिए कोई भी यह स्वीकार कर सकता है कि हमारे मित्र ने अपने इस आखिरी हथियार को भी चला दिया है। 

ई. वी. रामासामी पेरियार (17 सितंबर, 1879 – 24 दिसंबर, 1973)

कोई भी व्यक्ति जो यह मानता है कि स्त्रियां मानवीय प्राणी हैं, उनमें सोचने-समझने और तर्क करने की शक्ति है, वह इन तीन कथनों को किसी निष्पक्ष व्यक्ति, अथवा ऐसे बुद्धिमान व्यक्ति के कथन के रूप में, जो सत्य की खोज कर हो – स्वीकार नहीं कर सकता। व्यक्ति को कम से कम यह तो कहना ही चाहिए कि इस प्रकार के कथन उनके समय में ही प्रासंगिक थे। हम जानते हैं कि इस मोड़ तक आते-आते हमारे कुछ पाठक थोड़ा असहज महसूस कर सकते हैं। यह अनुचित भी नहीं है।

अव्वई और तिरुवेल्लुवर के बारे में सबसे पहला मिथक यह है कि वे दोनों परस्पर बहन-भाई हैं। उस पुराकथा के अनुसार वे दोनों पुलायार स्त्री आधि और ब्राह्मण पुरुष भगवान की सात संतानों में से थे। इस मिथक की दूसरी अनोखी बात यह है कि आधि और भगवान के संभोग के तुरंत बाद उनकी संतान का जन्म हो चुका था। उसके बाद नवजात शिशु को वहीं छोड़कर वे दोनों आगे बढ़ गए। इसके अलावा भी, इससे मिलते-जुलते और भी कई मिथ है। इसके साथ-साथ लोग यह भी कहते हैं कि अव्वई अनेक थीं। 

यदि हम इन धर्मिक मिथों तथा अंधविश्वासों को किनारे कर दें, इस बात पर कतई ध्यान न दें कि इन कहावतों और पदों की रचना किसने की है, उन्हें महज एक वाक्य समझकर, अपनी तर्कबुद्धि का प्रयोग करते हुए उनके अर्थों की पड़ताल करें (जैसा कि हम दूसरे पदों के साथ करते ही हैं), तो हम जिन निष्कर्षों तक पहुंचेंगे उनका अभिप्राय होगा– “स्त्रियों की मत सुनो”, “अज्ञानता स्त्रियों का आभूषण है”। उनके चरित्र पर यही उपयुक्त लगता है। और “व्यक्ति को स्त्री की इच्छाओं के अनुसार नहीं चलना चाहिए।” 

अनेक पंडितजन इसपर विशेष टिप्पणी देने को उद्दत दिख सकते हैं। वे इसके आधार पर अलग दर्शन भी गढ़ सकते हैं। लेकिन हम सभी जानते हैं कि इस दुनिया में ऐसे शब्द, लेख या वाक्य मिलने अत्यंत दुर्लभ हैं, जिन्हें विशिष्ट अर्थ और दार्शनिक अर्थवत्ताएं दे पाना संभव न हो। इसलिए, बुद्धिमान लोग केवल इन्हीं पंक्तियों को विशेष महत्व देने को कभी स्वीकार न करेंगे।

यहां, किसी को यह नहीं देखना चाहिए कि अव्वई के सूत्र-वाक्यों अथवा वेल्लुवर के पदों का रचनाकार कौन है। उन्हें महानतम नीति-निर्धारक ग्रंथ माना गया है, यही कारण है कि आज हम उनपर चर्चा करने जा रहे हैं। मुश्किल यह है कि : क्या ये पहाड़ जैसी गलतियां उन लोगों ने की हैं, जो हमारे लिए न्यायशास्त्र पर भारी-भरकम दार्शनिक विचारधाराएं छोड़कर गए हैं? यदि इस हथियार का उपयोग प्रत्येक वस्तु के संदर्भ करने लगें तो एक समय आएगा जब यह अपने उपयोगकर्ता को ही नष्ट कर सकता है।

इसके अलावा किसी भी व्यक्ति का, अपने समय को ध्यान में रखते हुए कुछ भी कहा हुआ हो सकता है। मगर उसपर विचार करते समय उसके रचनाकाल, स्थान और परिवेश को ध्यान में रखना अत्यावश्यक है। अन्यथा वह वर्तमान समय के अनुकूल नहीं होगा। उदाहरण के लिए ब्राह्मण को लीजिए, उनका कहना है कि धर्मशास्त्रों में जो लिखा है, वह ब्रह्म-वाक्य है और वह सत्य-सनातन यानी हर युग के लिए है। इस बात की परवाह किए बिना कि इन दोनों महान संतों (वेल्लुवर और अव्वई) ने क्या कहा है, या उनके विचारों में झूठ/सच की परवाह किए बिना, व्यक्ति को यह बात मान लेनी चाहिए कि इन विधि-संहिताओं (नीति-ग्रंथों) की रचना उस दौरान हुई थी, जब आर्य इस भूमि पर छा चुके थे।

सर्वप्रथम, हमें यह मान लेना चाहिए कि वेल्लूवर और अव्वई के नाम पर मिलने वाली ये विधि-संहिताएं यानी कानून की किताबें, हमारे जैसे ही साधारण मृत्य मानवों की रचना हैं। हम सचाई तक केवल तभी पहुंच सकते हैं, जब हम इस पूर्वाग्रह से बाहर निकल आएं कि वे; यानी हमारे पूर्वज दैवी गुणों से संपन्न थे, यानी कि उनमें मानवीय प्रकृति से कुछ अधिक था। अन्यथा इससे किसी के लिए कुछ भी कह देने का अवसर मिल जाएगा। इसलिए, उन्होंने जो कुछ भी कहा, उसे हम केवल इसी कसौटी पर आकलन करके न्याय-संगत ठहरा सकते हैं। हम इस निष्कर्ष पर भी पहुंच सकते हैं कि उस दौर में रहने वाला कोई भी व्यक्ति, हमें इसी तरह के न्याय-सिद्धांत दे सकता था। 

इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि कंबर प्रतिभाशाली कवि हैं। चूंकि उन्होंने रामायण (तमिल) के गीतों को उस दौर में रचा था, जब आर्यों का वर्चस्व अपने चरम पर था और लोग आर्यों के बढ़ते प्रभुत्व पर आनंदोत्सव मना रहे थे, इसलिए उन्होंने वाल्मीकि रामायण के हिस्सों को बदल दिया। रामायण से अश्लील हिस्सों को हटाकर, आर्यों के चौमुखी उभार और प्रभुत्व को इस तरह से महिमामंडित किया कि लोग उसका उत्सव मनाया करें। 

आज भी, यद्यपि अनेक पंडित परिपक्व बुद्धिमान, विवेकशील तथा वैचारिक दृष्टि से समृद्ध हैं, तथापि वे आर्यों की सर्वश्रेष्ठता का नकारने से डरते हैं, वे आर्यो की सदैव प्रशंसा ही करते हैं। वे यह कह सकते हैं कि वे आर्यो से भयभीत नहीं हैं। वे इस तरह का बर्ताव बस इसलिए करते हैं, क्योंकि वे आर्यों के रीति-रिवाजों का पालन करते हैं, उनके द्वारा रचित पुराकथाओं को पढ़ते तथा आर्यों की संप्रभुता दर्शाने के लिए गढ़े गए देवताओं की प्रार्थना करते हैं, और आर्यों के महाकाव्यों की प्रशस्ति में गाते, लिखते हैं। 

अतएव, जो लोग बचपन से ही ऐसे परिवेश में पले-बढ़े हों, जिन्होंने आर्यवाद को तन-मन से अंगीकार कर लिया हो, जो उनके दिमाग में, उनके रोम-रोम में समाया हुआ हो, वे भला इससे अधिक और क्या कर सकते हैं? इसलिए यह निष्कर्ष पर पहुंचना ही बेहतर होगा कि – चूंकि उनमें पवित्रता और महानता थी, इसलिए उन्होंने जो कुछ कहा, अपने समय के साथ, सुर से सुर मिलाते हुए कहा। इसके विपरीत यह कहना कि उन्होंने जो भी कहा था, वह सार्वकालिक सत्य है – गलत है। भले ही इसके घातक परिणाम क्यों न हों।  

आगे हमारे मित्र ने समानता के बारे में ढेर सारी अप्रासंगिक बातें कही हैं। यद्यपि उसके बारे में यहां हमें बहुत ज्यादा बहस की आवश्यकता नहीं है, लेकिन यदि हम उनके अंतिम वाक्य को देखें तो आसानी से यह समझ सकते हैं कि वे समानता के दर्शन के बारे में बिना कुछ ठोस और आधारभूत चर्चा के ही – भाग खड़े हुए हैं। उन्होंने कहा है, “स्त्री एवं पुरुष के बीच समानता का अर्थ है कि स्त्री अपने अधिकार एवं जरूरतें, पुरुषों के व्यवधान के बिना प्राप्त कर सकती है, इसी तरह पुरुष भी अपने अधिकार एवं जरूरतें बिना स्त्रियों के व्यवधान अथवा उन्हें दुख पहुंचाए प्राप्त कर सकता है। इस तरह दोनों एक-दूसरे का सहयोग करते हुए जीवनयापन कर सकते हैं।” लेकिन उसी झटके में उन्होंने लिखा है, “मनुष्यों के अधिकार क्या हैं? स्त्रियों के अधिकार क्या हैं? उनकी व्यक्तिगत आवश्यकताएं क्या हैं? उन सब पर अलग से विचार किया जाना चाहिए।”

इस तरह, इस लेख का निचोड़ है– “मनुष्य के अधिकार क्या हैं? स्त्री और पुरुष दोनों के बीच भेदभाव क्यों होना चाहिए?” जब हमारे साथी कहते हैं कि यह पूरी तरह से अलग मामला है, तो इसका एकमात्र अर्थ है कि वे इसके आंतरिक सत्य को बाहर लाने, उसकी सविस्तार चर्चा करने से डरते हैं। 

आगे, उन्होंने लिखा है– “‘पुरुषत्व’(मर्दानगी) में वीरता, ताकत, गुस्सा, नेतृत्व की क्षमता शामिल है। इसी तरह प्रेम, धैर्य, शांति तथा देखभाल करने की प्रवृत्ति स्त्रीत्व के लक्षण हैं।” केवल इसी निष्कर्ष से हम समझ सकते हैं कि हमारे वे मित्र तिरुवेल्लुवर से क्या सीखने वाले; तथा हमें किस तरह की खंडनात्मक प्रतिक्रिया लिखने वाले हैं।

यह कहना कि ताकत, गुस्सा और नेतृत्व-क्षमता पुरुष के नैसर्गिक लक्षण हैं, तथा धैर्य, शांति, मौन और देखभाल करना स्त्री के लक्षण हैं – सिवाय इसके कुछ नहीं कि बहादुरी, ताकत, गुस्सा, नेतृत्व का सामर्थ्य चीते से है, जबकि शांति, धैर्य, मौन, और सबकी देखभाल जैसे गुण बकरी से संबंधित हैं। स्त्री-अधिकारों के अंतर्गत हमारी मांग है कि पुरुषों को इस हकीकत को स्वीकार लेना चाहिए कि वीरता, शक्ति-सामर्थ्य, क्रोध और नेतृत्व की क्षमता स्त्रियों में भी मौजूद होती है। दूसरे, हमारी राय है कि स्त्री-पुरुष दोनों में सभी गुण होने चाहिए। उसी अवस्था में वे समाज के विकास में अपना योगदान दे सकते हैं। प्राकृतिक विधान के अनुसार भी स्त्री-पुरुषों को बराबर होना चाहिए। किंतु पुरुष के स्वार्थ एवं षड्यंत्र के चलते उसे कृत्रिम रूप से बदल दिया गया है। 

सिर्फ इस कारण स्त्रियां 9 महीने के लिए गर्भ धारण करती और बच्चों को जन्म देती हैं, यह कहना अनुचित होगा कि वीरता, क्रोध, नेतृत्व और शक्ति के संबंध में, पुरुष के मुकाबले स्त्रियों की स्थिति में अंतर अवश्य होगा। अथवा सिर्फ इस कारण कि पुरुष गर्भ धारण नहीं कर सकते, न ही बच्चां को जन्म दे सकते हैं, इसलिए उनका प्यार, धैर्य, शांति, देखभाल करने की क्षमता किसी भी मामले में स्त्रियों से कम नहीं होगी। 

यदि हम समानता की अवधारणा को वास्तविक और सच्चा सम्मान देना चाहते हैं, और यदि दोनों के बीच सच्चा प्रेमानुराग है – तो निश्चित रूप से, हर काम को एक समान तरीके से करेंगे, सिवाय बच्चे को जन्म देने के।

पुनश्चः उन्होंने (हमारे मित्र ने) ‘तारकोंदल’ शब्द को ‘स्नेहमयी स्त्री’ का अर्थ दिया है। इसका एकमात्र उद्देश्य तिरुवेल्लुवर का बचाव करना है। लेकिन इससे ‘तिरुक्कुरल’ के प्रति न्याय नहीं हो पाता। दूसरे यह कहना पूर्णतः अर्थहीन है कि पुरुष के पास स्त्री से सीखने के लिए कुछ नहीं है। इसीलिए ‘तारकोंदल’ शब्द के प्रचलन की आवश्यकता महसूस की गई है। 

इसके साथ-साथ, यह कहना भी अनुचित है कि ‘इबादत करना’ पुरुष से संबंधित नहीं है। यदि एक पुरुष को स्त्री की हत्या करने का अधिकार है, तो एक स्त्री के पास भी पुरुष को जान से मार देने का अधिकार होना चाहिए। यदि स्त्री द्वारा पुरुष के पैरों में गिरना अत्यावश्क है तो पुरुष को भी स्त्री के पैरों में गिर जाना चाहिए। स्त्री और पुरुष के यही समान अधिकार हैं। 

इसके अलावा और जो कुछ भी है, वह स्वार्थपरकता और मूर्खता है। प्यार नहीं है। 

हमारे मित्र ने कहा है कि तिरुवेल्लुवर ने ‘तिरुक्कुरल’ में पुरुष की ‘शुचिता’ के बारे में भी उल्लेख किया है। हालांकि ‘तिरुक्कुरल’ में इसका जिक्र किया गया है, तो भी यह ठीक वैसा और उसी रूप में नहीं है जैसा स्त्री के ऊपर लागू होता है। ‘तिरुक्कुरल’ के जिन पदों में पुरुष की शुचिता का उल्लेख है, हमारे साथी उनका उदाहरण के रूप में उल्लेख भी किया है–

“सिराइकाक्कम, कापेवन सइयुम मगालिर

निराकाक्कुम कापे थलाई”

सख्त पहरे में कारावास की क्या जरूरत? स्त्री की आत्मनियंत्रित शुद्धता सबसे पहले है। 

नीराई नेंजामील्लावर तोइवार पीरनेनजिर

पेनी पुन्नारभावर थोल

खोखले दिल की एकमात्र चाहत 

कहीं भी वेश्या की बाहें सच्चे प्यार के साथ

हमारे मित्र कहते हैं कि उपर्युक्त पद पुरुष की चारित्रिक शुचिता की आवश्यकता पर जोर देते हैं। हमारी राय में इन पदों की रचना के पीछे यह मंतव्य नहीं है। तदनुसार पहले दोहे का अर्थ होना चाहिए–

‘पहरे में रहने के कारण स्त्री के पवित्र रहने की कोई उपयोगिता नहीं है। स्त्रियों को स्वयं पवित्र रहना चाहिए।’

हमारे विचार में दूसरे पद को उन पुरुषों के लिए रचा गया था जो वेश्यागामी हो चुके थे। न कि उन पुरुषों के लिए जो परस्त्री के साथ प्यार करते तथा उनके साथ अय्याशी में समय गुजारते हैं। यद्यपि यहां ‘नीरई’ (सद्गुण) शब्द का उल्लेख है, किंतु वह पुरुष की बाध्यता नहीं है। इसलिए हम ‘तिरुक्कुरल’ से इस तरह के और भी कई दोहे उदाहरण स्वरूप दे सकते हैं, जो दिखाते हैं कि उसमें स्त्री और पुरुष की शुचिता को लेकर एक जैसे नियम नहीं दिए गए हैं।

अंत में अपने मित्र द्वारा दी गई सलाह हेतु आभार-ज्ञापन के लिए कर्तव्य-बद्ध हैं। उनकी दी गई सलाह के अनुसार, महान लोगों द्वारा रहे ग्रंथों को लेकर हमें जब, जहां भी कोई शंका हो – हम केवल सवाल उठाते आए हैं। लेकिन शुचिता के मुद्दे पर, जिन पदों का उल्लेख हमने ऊपर किया है, उनके बारे में हमें कोई संदेह नहीं है। इसके साथ-साथ हम दूसरे विद्वानों की राय भी ले चुके हैं, जो हमारे मत की पुष्टि करती है।

आगे, भले ही ‘तिरुक्कुरल’ और तिरुवेल्लुवर के प्रति हमारी आस्था, हमारे मित्र की आस्था से भले ही ज्यादा न हो, मगर हम पूरी विनम्रता के साथ कहते हैं कि यह उनकी आस्था से कम भी नहीं है। इसके समर्थन में अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। अन्यथा हमारे मित्र ने जिन दो पदों का उल्लेख ऊपर किया है, उनके मंतव्य को लेकर हमें मामूली-सी फिक्र भी नहीं होती–

“बहुसंख्यक की राय से अलग राय रखना मूर्खता है।” तथा दो अन्य पद जिनका मंतव्य है, “महान लोगों में कमियां खोजना मूर्खता है।”

यदि किसी व्यक्ति में जैसा वह सोचता है, ठीक वैसा ही कहने की प्रवृत्ति हो तो हमें उसकी कोई चिंता नहीं है, लेकिन उसे न इन दो पदों, अपितु और भी अनेक कार्रवाहियों के लिए तैयार रहना चाहिए।

(संपादन नवल) 

लेखक के बारे में

पेरियार ई.वी. रामासामी

पेरियार ई. वी. आर. (जन्म : 17 सितंबर 1879 - निधन : 24 दिसंबर 1975)

संबंधित आलेख

राष्ट्रीय स्तर पर शोषितों का संघ ऐसे बनाना चाहते थे जगदेव प्रसाद
‘ऊंची जाति के साम्राज्यवादियों से मुक्ति दिलाने के लिए मद्रास में डीएमके, बिहार में शोषित दल और उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय शोषित संघ बना...
‘बाबा साहब की किताबों पर प्रतिबंध के खिलाफ लड़ने और जीतनेवाले महान योद्धा थे ललई सिंह यादव’
बाबा साहब की किताब ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’ और ‘जाति का विनाश’ को जब तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने जब्त कर लिया तब...
जननायक को भारत रत्न का सम्मान देकर स्वयं सम्मानित हुई भारत सरकार
17 फरवरी, 1988 को ठाकुर जी का जब निधन हुआ तब उनके समान प्रतिष्ठा और समाज पर पकड़ रखनेवाला तथा सामाजिक न्याय की राजनीति...
जगदेव प्रसाद की नजर में केवल सांप्रदायिक हिंसा-घृणा तक सीमित नहीं रहा जनसंघ और आरएसएस
जगदेव प्रसाद हिंदू-मुसलमान के बायनरी में नहीं फंसते हैं। वह ऊंची जात बनाम शोषित वर्ग के बायनरी में एक वर्गीय राजनीति गढ़ने की पहल...
समाजिक न्याय के सांस्कृतिक पुरोधा भिखारी ठाकुर को अब भी नहीं मिल रहा समुचित सम्मान
प्रेमचंद के इस प्रसिद्ध वक्तव्य कि “संस्कृति राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है” को आधार बनाएं तो यह कहा जा सकता है कि...