रामधारी सिंह दिवाकर हिंदी के उन चंद महत्वपूर्ण लेखकों में हैं, जिनकी कहानियों, उपन्यासों और संस्मरण पुस्तकों ने जाति, वर्ग और पितृसत्तात्मक जड़ता को अपने तरीके से टारगेट किया है। वह चाहे मंडल आंदोलन के पहले और बाद के हुए बदलाव हों या पंचायतों में महिलाओं की हिस्सेदारी के बाद का बदलता हुआ बिहार– रामधारी सिंह दिवाकर के संपूर्ण लेखन में इन बदलावों के सूक्ष्मतम रूप अभिव्यक्त हुए हैं। ‘पंचमी तत्पुरुष’, ‘अकाल संध्या’, ‘आग’, ‘पानी आकाश’, ‘टूटते दायरे’, ‘दाखिल खारिज’ आदि उनके छह प्रकाशित उपन्यास हैं और ‘अंतिम अध्याय’ प्रकाशनाधीन उपन्यास। लगभग इतनी ही संख्या में उनकी कहानियों के भी संकलन प्रकाशित हैं, जिनमें ‘मखान पोखर’, ‘वर्णाश्रम’, ‘हड़ताली मोड़’, ‘छोटे-छोटे बड़े युद्ध’ आदि मुख्य हैं। उत्तर बिहार के गांवों पर लिखी उनकी टिप्पणियों का भी एक संकलन- ’जहां आपनो गांव’ के नाम से प्रकाशित है।
रचनात्मक मेधा के लिए उन्हें श्रीलाल शुक्ल इफको सम्मान, बिहार राजभाषा जैसे प्रतिष्ठित सम्मान भी मिल चुके हैं। 1 जनवरी, 1945 को बिहार के अररिया जिले के नरपतगंज में जन्में रामधारी सिंह दिवाकर की आरंभिक शिक्षा अपने गांव के विद्यालय से हुई। तत्पश्चात मुजफ्फरपुर और भागलपुर से उच्च शिक्षा की डिग्री ली। उन्होंने 1979 से अध्यापन के पेशे में आए। निर्मली और सीएम काॅलेज, दरभंगा में अध्यापन कार्य किया फिर बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक बने। संप्रति पटना में रहकर पूर्णकालिक लेखन के काम में अबाध रूप से सक्रिय हैं। बिहार के युवा साहित्यकार व समालोचक अरुण नारायण ने उनसे खास बातचीत की। प्रस्तुत है उनसे बातचीत की पहली किश्त
रामधारी सिंह दिवाकर का आंखों-देखा और अनकहा जीवन
- अरुण नारायण
इन दिनों आप क्या लिख रहे हैं?
पिछले डेढ़ सालों से मैं आत्मकथात्मक संस्मरण लिख रहा हूं। कोरोना संक्रमण के कारण इसमें बाधा पड़ी, लेकिन काम पूरा हो गया। लगभग चार सौ पृष्ठों की यह किताब मेरे प्राध्यापक बनने से लेकर सेवामुक्त होने तक के समय को समेटती है।