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पिछड़े वर्ग की महान नेत्री सुमित्रा देवी, जिन्हें बिहार की इंदिरा गांधी कहा गया

वर्ष 1977 में सुमित्रा देवी केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने वाली बिहार की पहली महिला रहीं। तब उन्हें केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गयी थी। राजनीतिक क्षेत्र में परचम फहराने के अलावा सुमित्रा देवी ने बिहार में दलितों-पिछड़ों को गोलबंद करने में अहम भूमिका का निर्वहन किया। बता रही हैं प्रियंका प्रियदर्शिनी

सुमित्रा देवी (25 सितम्बर,1922 – 5 फरवरी , 2001) 

बिहार के राजनीतिक इतिहास में अपना स्थान सुनिश्चित करनेवाली सुमित्रा देवी का जन्म कुशवाहा (ओबीसी) परिवार में हुआ। इन्हें बिहार की इंदिरा गांधी भी कहा जाता है। वजह यह कि जब इंदिरा गांधी भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री बनीं, तब उन्हीं के समानान्तर सुमित्रा देवी भी बिहार सरकार में प्रथम महिला कैबिनेट मंत्री बनीं। पिछड़े समाज से आने वाली सुमित्रा देवी ने अपने समय में समाज की रूढ़ियों को तोड़ा और यह साबित किया कि पिछड़े समाज की महिलाएं भी सामाजिक क्षेत्र में आगे बढ़ सकती हैं। उन्होंने राजनीति में सक्रिय भागीदारी किया और अपने नेतृत्व का लोहा मनवाया। 

वाकपटुता के अलावा उनकी खासियत थी जनता के साथ उनका प्रत्यक्ष जुड़ाव। वे मानवीय मूल्यों को तरजीह देती थीं। जो एक बार भी उनसे मिला उनकी हाजिर-जवाबी से परास्त हुआ, सदा के लिए उनका मुरीद और अनुगामी हो गया। समय के पट पर उनकी छाप का अनूठापन आज भी लोगों के दिल-दिमाग में विस्मय पैदा करता है। 

बिहार में मुंगेर जिले के महेशपुर गांव में सुमित्रा देवी का जन्म 25 सितंबर 1922 को हुआ। इनका परिवार सादा व मूल्यों के साथ जीवन जीने वाला था। इनके पिता सिद्धेश्वर प्रसाद अपनी बेटी की पढ़ाई में कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। इसलिए उन्होंने सुमित्रा का नामांकन हाथरस, उत्तर प्रदेश के गुरुकुल में करा दिया। इसे लेकर गांव में लोग उनकी खिल्ली उड़ाते थे कि उन्होंने कहीं बेटी को भगा दिया। यह वह समय था जब कोई सोच भी नहीं सकता था कि कुशवाहा समाज की कोई लड़की शिक्षा ग्रहण कर सकती है। सुमित्रा देवी ने भी अपने पिता को निराश नहीं किया। उन्होंने 1936 में हाथरस से चौदह वर्ष की आयु में ही मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। उन दिनों समाज में बच्चियों को कम उम्र में ही ब्याह देने की प्रथा थी। सुमित्रा जी को ज्ञानेश्वर प्रसाद के साथ विवाह के बंधन में बंधना पड़ा। पति एक क्रांतिकारी युवा होने के साथ ही कानून के विद्यार्थी भी थे। यह शादी भोजपुर जिले के जगदीशपुर क्षेत्र में हुई। 

वह चाहती थीं कि तमाम पिछड़ी जातियां गोलबंद होकर आगे आएं और शसन-प्रशासन में भागीदार बनें। उन्होंने वीरचंद पटेल के साथ मिलकर राजनीति में इन जातियों की गोलबंदी का प्रयास किया। हालांकि उनके उपर यह आरोप भी लगा कि वह केवल कुशवाहा और कुर्मी जाति के लोगों के लिए राजनीति करती हैं।

लेकिन सुमित्रा देवी ने अपना रास्ता पहले ही सोच रखा था। उन दिनों असहयोग आंदोलन की जोरों पर थाथ। हाथरस के गुरुकुल में रहकर वह परिपक्व हो चुकी थीं। वह अंग्रेजी की छात्रा थीं। उनका जीवन समाज और संस्थाओं से प्रभावशाली तरीके से जुड़ गया। उनके कदम नारी-मुक्ति व बहुसंख्यक समाज के कल्याण की दिशा में बढ़ने लगें। यह कुशवाहा समाज में एक अनहोनी बात थी। पति के पढ़े-लिखे व प्रगतिशील होने के कारण सुमित्रा जी को उनका पूरा सहयोग व साथ मिलता रहा। उन्होंने इनके राजनीतिक जीवन में कोई बाधा नहीं डाली, न ही कभी घर की चारदीवारी में बंद होने को कहा।

सुमित्रा देवी (25 सितम्बर, 1922 – 5 फरवरी, 2001)

उस समय एम.एन. राय के भारतीय संदर्भ में परिवर्तन के विचार हवा में तैर रहे थे। उनकी पार्टी का नाम था “रेडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी”। अपने मुक्त विचारों के धरातल पर सुमित्रा जी ने इस पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत की। अपने खुले वयक्तित्व व सहभागितापूर्ण आचरण के कारण वह जल्द ही लोकप्रिय होने लगीं। परिणाम हुआ कि वर्ष 1939 में शाहाबाद (उस समय के संयुक्त भोजपुर, बक्सर, भभुआ, कैमूर, रोहतास जिला का नाम) जिला परिषद में शिक्षा समिति की सदस्य मनोनीत हो गईं। उन्होंने इस समिति के माध्यम से पिछड़ों, दलितों के शैक्षणिक विकास का रोड मैप तैयार कर उसको लागू करना शुरु किया। सुदूर गरीब इलाकों में कई स्कूल चलने लगे। इनकी कार्यक्षमता और योग्यता का दायरा बढ़ता गया। बाद में 1942 में वह आरा नगरपालिका की भी सदस्य बन गईं। 

जमीनी राजनीति का इनका यही अनुभव इनके राजनीतिक भविष्य का निर्धारक बना। कांग्रेस के जितने बिहार के नेता थे, वे भी इनको जानने लगे। सब चाहते थे कि ऐसी प्रतिभाशाली, जागरूक महिला कांग्रेस में आ जाए। लेकिन सुमित्रा जी गरीबों, पिछड़ों के अपने सेवा-व्रत पर कायम रहीं। इसी बीच इन्हें अपने पहले पुत्र मंजुल कुमार की प्राप्ति हुई, जो आज दिल्ली में नामी वकील और पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार के पति हैं। 

सुमित्रा जी का जनतांत्रिक मूल्यों में अटूट विश्वास था। यही कारण था कि आपातकाल लागू होने के बाद उन्होंने इंदिरा कांग्रेस को छोड़ दिया और ‘कांग्रेस फ़ॉर डेमोक्रेसी’ की सदस्यता ग्रहण कर ली।

उस दृश्य की मात्र कल्पना ही की जा सकती है जब गोद में मंजुल कुमार को लेकर वे 1946 में पटना सिटी के विधान सभा क्षेत्र के चुनाव में रैडिकल पार्टी की तरफ से कांग्रेस के विरूद्ध अपना नामाकंन करने पहुंच गईं। सभी विस्मित रह गए एक प्रगतिशील मां की इस सरलता और मातृ परंपरा के प्रति उनका झुकाव देखकर। गोद के बच्चे को किसके हवाले करतीं। गांव का यह चरित्र होता है। श्रमिक गरीब महिला अपने काम के स्थान पर भी अपने नवजात को ले जाती है। 

स्वतंत्रता के बाद रैडिकल पार्टी का कांग्रेस में विलय हो गया। 1950 में इनकी पुत्री कामना का जन्म हुआ। गणतंत्र लागू होने के बाद जब 1952 में भारत का प्रथम चुनाव हुआ तो सुमित्रा भारी बहुमत से जीतीं। वह 1957 और 1962 के दूसरे और तीसरे चुनाव में भी सहज रूप से निर्वाचित होकर आईं। वे अब जननेत्री बन चुकी थीं। उनका राजनीतिक जीवन परवान चढ़ चुका था।

जल्दी ही वह भूमिहीन किसान मजदूरों की समस्याओं से जुड़ गई थीं। इनके संघर्ष का असर होना शुरु हुआ। इनका विधानसभा क्षेत्र जगदीशपुर ‘धान का कटोरा’ कहा जाता था। वहां मजदूरों ने अधिक मजदूरी की मांग को लेकर व्यापक हड़ताल का आह्वान कर दिया। सुमित्रा इस आंदोलन की प्रवक्ता बनीं और लोगों के बीच छा गईं। वर्ष 1960 में वह कांग्रेस संसदीय सचिव चुनी गईं। इनकी सूझ-बूझ और राजनीतिक मसलों पर गहरी पकड़ का असर यह हुआ कि एक महिला के रूप में 1963 में सूचना-प्रसारण व परिवार नियोजन विभाग की मंत्री बनीं। यह बिहार में दो तरह का कीर्तिमान था। एक तो मंत्री बनने वाली प्रथम महिला का, दूसरा एक पिछड़ी जाति की महिला का मंत्री के रूप में पहचान पाना। अपने उत्तरदायित्वों के निर्वहन में ये किसी से पीछे नहीं रहीं। बिहार की पहली महिला मंत्री के रूप में प्रतिष्ठित होकर उन्होंने स्वयं को जनता के उत्थान में लगा दिया। 

वह चाहती थीं कि तमाम पिछड़ी जातियां गोलबंद होकर आगे आएं और शसन-प्रशासन में भागीदार बनें। उन्होंने वीरचंद पटेल के साथ मिलकर राजनीति में इन जातियों की गोलबंदी का प्रयास किया। हालांकि उनके उपर यह आरोप भी लगा कि वह केवल कुशवाहा और कुर्मी जाति के लोगों के लिए राजनीति करती हैं। परंतु अपने उपर आरोपों को दरकिनार करते हुए सुमित्रा देवी ने खुद को बदलाव का वाहक बना दिया था।

सुमित्रा देवी ने शिक्षा को महत्वपूर्ण माना था। उनका अपना प्रभाव भी था। यही कारण रहा कि बिहार शरीफ के चुवा महतो नामक एक धनी व्यक्ति उन्हें अपनी बेटी मानते थे और उन्होंने अपनी सारी संपत्ति सुमित्रा जी को सौंप दिया। सुमित्रा जी ने उस संपत्ति से कुशवाहा समाज के युवाओं के लिए एक महाविद्यालय का निर्माण करा दिया। आज भी यह कॉलेज किसान कॉलेज, सोहसराय के नाम से प्रसिद्ध है। 

सुमित्रा जी का जनतांत्रिक मूल्यों में अटूट विश्वास था। यही कारण था कि आपातकाल लागू होने के बाद उन्होंने इंदिरा कांग्रेस को छोड़ दिया और ‘कांग्रेस फ़ॉर डेमोक्रेसी’ की सदस्यता ग्रहण कर ली। इस दौरान वह जगजीवन राम के सम्पर्क में आईं। 1977 में जनता पार्टी के उम्मीदवार की हैसियत से वह जीतीं और केंद्र सरकार में शहरी विकास मंत्री बनाई गईं। 

शहरी विकास मंत्री के रूप में इनका योगदान अप्रतिम रहा। गरीब महिलाओं की सबसे बड़ी समस्या का अनुभव इन्हें अपने सुबह टहलने के क्रम में हुआ। इन्होंने शौचालय निर्माण में सक्रिय और अपने शोध से सुलभ शौचालय का आंदोलन खड़ा करनेवाली डॉ. विन्देश्वरी पाठक की स्वायत्त संस्था सुलभ इंटरनेशनल को 80 लाख रुपयों का एकमुस्त अनुदान शौचालयों के निर्माण के लिए स्वीकृत किया। इसी अनुदान के बल पर बिहार गरीबों के लिए स्नानागार और शौचालय के निर्माण में देश का पहला अग्रणी राज्य बन गया। सुलभ आंदोलन को पूरे देश-विदेश में फैलने का संबल प्राप्त हो गया। परंतु, 1980 के दशक में वह पुनः कांग्रेस में शामिल हो गई। कांग्रेस ये के ही टिकट पर 1985 में विधायक के रूप में चुनकर आईं। इनका जगजीवन राम से संबंधों का शिखर था कि उनकी बेटी मीरा कुमार इनकी पहली पुत्रवधु बनीं। जाति-पाति रहित समाज के लिहाज से यह एक महत्वपूर्ण कदम था। 

उन्हें रूढ़िवादिता और जातिवाद से सख्त घृणा थी। यह कहा जा सकता है कि पिछड़े वर्ग की एक साधारण परिवार से आने वाली इस महिला ने हिम्मत किया और अपने लक्ष्यों को तो प्राप्त किया ही, समाज को भी संदेश दिया। 5 फरवरी, 2001 को समाज को झकझोरने और राह दिखानेवाली सुमित्रा देवी का निधन हो गया।

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

प्रियंका प्रियदर्शिनी

लेखिका हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य की छात्रा हैं

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