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दलित-पिछड़े किसानों के सवाल भी महत्वपूर्ण, सरकार ने खो दिया है अपना इकबाल : धीरेंद्र झा

निश्चित तौर पर ये जो साठ फीसदी लोग हैं, जिन्होंने भारत की कृषि को संभाल रखा है, वे दलित और पिछड़े वर्ग के लोग हैं। ये वे लोग हैं, जिनमें से अधिकांश भूमिहीन हैं। बड़ी संख्या में वे हैं, जिनके पास रहने के लिए भी जमीन नहीं हैं। अखिल भारतीय खेत एवं ग्रामीण मजदूर सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष धीरेंद्र झा से खास बातचीत

[बीते 19 नवंबर, 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की बात कही। इसे किसानों के लिहाज से महत्वपूर्ण माना जा रहा है। लेकिन क्या इसके बाद सरकार की नीतियां कृषकों के पक्ष में हो जाएंगीं या फिर यह महज चुनावी पासा है? इस आंदोलन में दलित व पिछड़े वर्ग से आनेवाले छोटे किसानों व खेतिहर मजदूरों की भूमिका कैसी रही तथा उनके सवाल क्या हैं? इन सभी सवालों को लेकर फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार अखिल भारतीय खेत एवं ग्रामीण मजदूर सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष धीरेंद्र झा से बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत का संपादित अंश]

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा के आलोक में आपकी प्राथमिक प्रतिक्रिया क्या है?

निस्संदेह यह एक बड़ी जीत है। मोदी निजाम की कारपोरेटपरस्ती के खिलाफ संपूर्ण कृषक समाज की गोलबंदी हुई और इस गोलबंदी ने यह साबित कर दिया कि सरकार चाहे कितनी भी फासीवादी क्यों न हो, यदि समाज मिलकर उसका विरोध करे तो उसे पीछे हटना ही होता है। इस मायने में यह एक बड़ी जीत है और इसके लिए किसान आंदोलन में शामिल सभी लोगों को हमारा सलाम। अब सवाल है कि यह अभी मुकम्मिल जीत नहीं हैं। अभी लड़ाईयां शेष हैं। मसलन, न्यूनतम समर्थन मूल्य की सुनिश्चित करने के लिए एक विशेष कानून का बनया जाना आवश्यक है। इसके अलावा भी देश में कारपोरेट सेक्टर का हस्तक्षेप जिस तरह से बढ़ता जा रहा है, उसे देखते हुए अभी यह नहीं माना जा सकता है कि जो खतरा इस देश के अन्नदाताओं के समक्ष है, वह टल गया है। एक बड़ा सवाल खेतिहर मजदूरों, छोटे किसानों, बटाईदारों का है।

प्रधानमंत्री की घोषणा पर किसान संगठन विश्वास व्यक्त नहीं कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि जबतक संसद में तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने के लिए विधेयक पारित नहीं करा दिया जाता है, तब तक आंदोलन खत्म नहीं होगा। इस अविश्वास की वजह क्या है?

इसकी वजह तो बहुत साफ है। नरेंद्र मोदी निजाम का इकबाल समाप्त हो चुका है। इस देश के किसानों, मजदूरों, छात्रों और नौजवानों ने यह जान लिया है कि यह सरकार जुमलों की सरकार है। उपर से अप यह देखिए कि इस बेरहम सरकार ने किसानों के आंदोलन को कुचलने के क्या नहीं किया। सात सौ किसानों की जान चली गयी। इस सरकार ने किसानों को रोकने के लिए सड़कों पर गड्ढे खुदवा दिये। कंटीले तार से आंदोलन स्थलों को घेरा गया। सड़कों पर कीलें ठोंक दी गयीं। और तो और किसानों उपर गाड़ियां चढ़ा दी गयीं। यह सब पूरे देश ने देखा है। 

आपका संगठन खेत ग्रामीण मजदूरों की बात करता है। इसकी परिभाषा क्या है?

आप देखिए कि कृषि का स्वरूप भारत के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है। पंजाब में जो कृषि के हालात हैं, वह हरियाणा, उत्तर प्रदेश के हालातों से अलग हैं। बिहार की कृषि अलग है। इसी तरह आसाम, झारखंड, छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु सहित अनेक राज्यों में कृषि संबंधी परिस्थितियां अलग हैं। लेकिन खेती करता कौन है, यह देखने की आवश्यकता है। बात चाहे बिहार की हो या पंजाब, खेती करनेवाले छोटे और खेतिहार मजदूर ही हैं। बटाईदार किसान हैं। आप देखिए कि ये जो साठ फीसदी लोग हैं, उनके उपर ही कृषि की पूरी जिम्मेदारी है। ये खेत जोतने से लेकर फसल कटाई तक का काम करते हैं। तो इनकी वाजिब मजदूरी का सवाल है। उनके हितों के संरक्षण का सवाल है। हमारा संगठन इन मजदूर किसानों के हितों के लिए काम करता है।

यदि सामाजिक पृष्ठभूमि के आधार पर बात करें तो ये कौन लोग हैं?

निश्चित तौर पर ये जो साठ फीसदी लोग हैं, जिन्होंने भारत की कृषि को संभाल रखा है, वे दलित और पिछड़े वर्ग के लोग हैं। ये वे लोग हैं, जिनमें से अधिकांश भूमिहीन हैं। बड़ी संख्या में वे हैं, जिनके पास रहने के लिए भी जमीन नहीं हैं। मैं आपको बिहार की बात बताता हूं। बिहार में हालात बहुत बुरे हैं। वहां कम जोत वाले किसानों की संख्या बहुत अधिक है। खेती लाभकारी नहीं रह गयी है। इसके बावजूद लोग बटाई के आधार पर खेती करते हैं। लेकिन उन्हें न तो केंद्र सरकार की किसी योजना का लाभ मिलता है और ना ही राज्य सरकार की योजनओं का। बिहार में बंद्योपध्याय आयाेग ने तो अपनी रिपोर्ट में इस बात की अनुशंसा की थी कि भूमिहीन खेतिहर मजदूरों को खेती के लिए जमीन मिले। इसके अलावा जो बटाईदारी खेती करते हैं, उन्हें खेती की जमीन पर सीमित अधिकार ही सही, दिया जाना चाहिए। आयोग का तर्क था कि यदि खेतिहर मजदूरों को जमीन पर सीमित अधिकार भी दे दिया गया तब वे खेती में अधिक श्रम करेंगे और इससे खेतों की उत्पादकता बढ़ेगी और उन्हें अधिक आर्थिक लाभ भी मिलेगा। भूमि सुधार का सवाल भी अहम सवाल है। हमारी लड़ाई अब भी यथावत है। हम चाहते हैं कि भूमि सुधार लागू हो। खाद-बीज के दाम कम हों। किसानों को उनकी उपज की वाजिब कीमत मिले। तो हम तो अपनी लड़ाई लड़ते रहेंगे।

क्या आपको लगता है कि यह जो किसानों का आंदोलन चल रहा है, उसमें इन खेतिहर मजदूरों के सवाल भी शामिल हैं?

देखिए, यह तो मानना ही पड़ेगा कि इस आंदोलन का नेतृत्व उन किसानों ने किया है, जो खेती करते हैं। प्रारंभ में तो इस आंदोलन में छोटे और भूमिहीन खेत मजदूरों के सवाल शामिल नहीं थे, लेकिन बाद में धीरे-धीरे किसान आंदोलन के शीर्ष नेतृत्व ने उनके सवालों को अपने विषयों में शामिल किया। यह अहम बात है। देखिए इसका फर्क पड़ा। केंद्र सरकार यह लगातार कहती रही कि यह केवल बड़े किसानें का आंदोलन है और उसके ऐसा कहने के पीछे आंदोलन को खारिज करना था। परंतु किसान आंदोलन नेतृत्व ने सभी तबके के किसानों को अपने में शामिल किया। बाद में यह बात भी लोगों को समझ में आयी कि तीनों कृषि कानून यदि लागू हो गए तब उसका असर भोजन के अधिकार पर पड़ेगा। जन वितरण प्रणाली को खत्म कर दिया जागा। तो इन कारणों से यह आंदोलन विस्तार पा सका और आज हुकूमत इसे वापस लेने को बाध्य हुई है। 

अब जबकि कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दी गयी है, आपको क्या लगता है कि अब खतरा टल गया है?

नहीं, अभी यह नहीं कहा जा सकता है। वजह यह कि मौजूदा सरकार कारपोरेट परस्त सरकार है। अभी तो नरेंद्र मोदी को यह जवाब देना होगा कि अडाणी को एफसीआई के गोदाम और जमीनें कैसे दे दी गयीं। आप यह भी देखिए कि पंजाब में सरकारी मंडियों की व्यवस्था है। लेकिन बिहार को देखिए वर्ष 2006 में ही वहां की हुकूमत ने मंडी व्यवस्था को खत्म कर दिया है। अभी आज देखिए कि मक्का उत्पादन के मामले में बिहार ने रिकार्ड बनाया है, लेकिन मक्का की सरकारी खरीद नहीं की गयी है। वहीं धान-गेहूं की खरीद भी नहीं हुई है। तो अभी समस्याएं बहुत हैं और मुझे लगता है कि यह जो जीत किसान आंदोलन को मिली है, उससे ये सवाल आने वाले समय में महत्वपूर्ण होंगे। 

सियासी गलियारे में यह भी चर्चा है कि केंद्र सरकार ने चुनावी राजनीति को ध्यान में रखकर पहल किया है। आपको लगता है कि इसका चुनावों पर असर पड़ेगा?

बिल्कुल, आज आप देखिए कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ जनता खड़ी है। वह सरकार के फैसलों का विरोध कर रही है। आप यह देखिए कि इस सरकार के द्वारा थोपी जा रही महंगाई से किसान व अन्य लोग किस तरह से परेशान हुए हैं। पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ गए हैं। खाद-बीज का दाम बढ़ा दिया गया है। सिंचाई महंगी हो गई है। खेत की जुताई महंगी हो गई है। खेतों में जो फसल तैयार होती है, उसके बदले किसानों को वाजिब दाम नहीं मिल रहे हैं। तो पूरे देश में इसका असर है और इसमें तो कोई शक ही नहीं कि देश की आम जनता सरकार की कारपोरेटपरस्त नीतियों से परेशान है। यह तो कहिए कि सरकार ने अभी ही कृषि कानूनों को वापस लेने का एलान चुनावी राजनीति को ध्यान में रखकर कर दिया है। नहीं तो इस आंदोलन के समर्थन हिंदी प्रदेशों के सुदूर इलाकों में यह आंदोलन और तेज होता।

अंतिम सवाल, संसद के शीतकालीन सत्र में यदि सरकार तीनों कानून वापस ले भी लेती है तब जो स्थिति बनेगी, उसके बारे में आप क्या कहेंगे?

मैंने पहले ही कहा कि इस देश में कृषि का स्वरूप एक जैसा नहीं है। इसमें विविधता है और यह भी कि हर विविधता के साथ चुनौतियां जुड़ी हैं। जो छोटे किसान हैं, उनकी समसया कुछ और है। जो भूमिहीन किसान हैं, उनकी चुनौतियां अलग हैं। उनके सामने तो रोजी-रोटी का संकट है। वैसे भी देश की जनता जान चुकी है कि यह जो हुकूमत इस समय है, उसका चरित्र कैसा है। अभी देश के किसान इस बात को समझ चुके हैं कि उन्हें प्रति वर्ष 6000 रुपए की धनराशि देकर बदले में पेट्रोल-डीजल, खाद-बीज आदि में महांगाई के जरिए 60 हजार रुपए वसूला जा रहा है। तो मुझे लगता है कि आंदोलन अभी और विस्तारित होगी और इसके दमन का प्रयास करनेवाली भाजपा को विरोध झेलना ही होगा। जनता अब खामोश नहीं रहेगी।

(संपादन : अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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