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आदिवासी समुदाय की सांस्कृतिक चेतना काल्पनिक ‘भगवान’ में नहीं, वास्तविक ‘धरती आबा’ में है

‘जनजातीय गौरव दिवस’ आदिवासियों के साम्राज्यवाद और दिकू-आर्य विरोधी ऐतिहासिक संघर्ष चेतना को, बीसवीं सदी में जिसके सबसे बड़े नायक बिरसा मुंडा हैं, सरकारी मशीनरी के सहयोग से कुंद कर देने की साजिश है। बता रहे हैं अश्विनी कुमार पंकज

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के राजनीतिक संगठन भाजपा की केंद्रीय सरकार ने आदिवासियों के सबसे लोकप्रिय नायक बिरसा मुंडा (15 नवंबर, 1875 – 9 जून, 1900) की जयंती 15 नवंबर को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की है। देश के आदिवासी समुदाय को वनवासी और हिंदू मानने वाली हिंदुत्ववादी संगठन के सरकार का यह फैसला कोई पहेली नहीं है। कोई भी जागरुक आम नागरिक इस घोषणा के निहितार्थों को आसानी से समझ सकता है। आदिवासियों को यह झुनझुना सिर्फ आनेवाले चुनाव को ध्यान में रखकर नहीं थमाया गया है, बल्कि यह हिंदू राष्ट्रवाद की उस दीर्घकालीन परियोजना का हिस्सा है, जिसके खिलाफ आदिवासी लोग 1930 के दशक से लगातार लड़ रहे हैं। नतीजतन सम्राज्यविरोधी क्रांतिकारी योद्धा बिरसा मुंडा को ‘भगवान’ और ‘स्वतंत्रता सेनानी’ बनाने की अब तक की तमाम सांप्रदायिक और राष्ट्रवादी कोशिशें नाकाम रही हैं। 

सन् 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी की भाजपानीत राजग सरकार ने झारखंड, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों का गठन कर और 2003 में दो आदिवासी भाषाओं संताली व बोड़ो को आठवीं अनुसूची में शामिल कर आदिवासियों को भरमाने की जो चाल चली थी, ‘जनजातीय गौरव दिवस’ उसी की अगली कड़ी है। इसे समझने के लिए सात साल पूर्व 2014 में दिए गए भाजपा के उस बयान को याद करना चाहिए जिसमें कहा गया था कि मोदी ‘पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजेपयी की तर्ज पर सरकार चलाएंगे।’ लेकिन वाजपेयी की चाल राजनीतिक थी, जबकि मोदी का यह कदम खुल्लमखुल्ला संघ और विहिप के सांस्कृतिक-धार्मिक रूपांतरण के एजेंडे के अनुरूप है। इस अर्थ में ‘जनजातीय गौरव दिवस’ न सिर्फ हिंदुत्ववादियों के ‘गर्व से कहो हिंदू हैं’ को प्रतिध्वनित करता है, वरन् क्रांतिकारी बिरसा मुंडा को ‘भगवान’ के रूप में सरकारी तौर पर स्वीकृत और प्रतिष्ठित करता है। साथ ही यह बिरसा मुंडा को ‘स्वतंत्रता सेनानी’ घोषित कर देश के राष्ट्रवादियों को भी तुष्ट करता है। 

भाजपा की यह सरकारी घोषणा तब आई है जब देशभर के आदिवासी समुदाय सरना धर्मकोड की मांग पर उद्वेलित हैं। मोदी के रणनीतिकार अच्छी तरह से यह जानते हैं कि सार्वजनिक तौर पर उनकी सरकार क्या कोई दूसरी सरकार भी इस मांग को खारिज नहीं कर सकती। पर इससे कैसे निपटा जा सकता है, इसी का तोड़ वाजपेयी सरकार की तर्ज पर मोदी के रणनीतिकारों ने ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में ढूंढ निकाला है।

सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर के अनुसार आदिवासी समुदाय के इतिहास, संस्कृति और उपलब्धियों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए मोदी सरकार ने यह निर्णय लिया है। इसके तहत सरकार द्वारा 15 से 22 नवंबर तक बिरसा मुंडा के साथ-साथ अनुसूचित जनजातियों की संस्कृति और उसके गौरवशाली इतिहास की याद में सप्ताह भर कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। मुख्य आयोजन 15 नवंबर को मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में ‘जनजातीय गौरव दिवस महासम्मेलन’ के रूप में होगा जिसमें प्रधानमंत्री मोदी भाग लेंगे। जिसे सफल बनाने के लिए मप्र सरकार ने 13 करोड़ रुपए की राशि दी है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के अनुसार, ‘‘प्रधानमंत्री मोदी 15 नवंबर को भोपाल में आयोजित जनजातीय गौरव दिवस महासम्मेलन में शामिल होंगे एवं जनजातीय कल्याण से संबंधित विभिन्न योजनाओं को आरंभ करेंगे।’’

बिरसा मुंडा की प्रतिमा

जाहिर है कि मोदी सरकार ‘जनजातीय गौरव दिवस’ से न केवल आपने मातृसंगठन के लिए चिरप्रतिक्षित सांस्कृतिक-धार्मिक लक्ष्य को हासिल करना चाहती है, बल्कि वह आनेवाले चुनाव में भाजपा के लिए तात्कालिक राजनीतिक फायदा भी चाहती है। पिछले कई दशकों में वनवासी कल्याण आश्रमों जैसे सैंकड़ों सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, शैक्षणिक व स्वयंसेवी संगठनों के जरिए संघ और विहिप आदिवासियों के हिंदू धर्मांतरण में संलग्न है। फिर भी वह उसे पूरी तरह से आत्मसात कर पाने में असफल रही है। देश के आदिवासी समुदाय अपनी आदिवासियत की ऐतिहासिक संघर्ष चेतना के साथ आज भी उसके प्रबल विरोधी बने हुए हैं। वे न तो पूर्णतया हिंदू बन पाए और न ही भाजपा के ठोस विश्वासी वोटर। मोदी की प्रचंड लहर के बीच हुए पिछले दोनों आम चुनावों में आदिवासी मतदाताओं के बड़े हिस्से ने भाजपा को निमर्मतापूर्वक ठुकरा दिया। लिहाजा, तीसरे आम चुनाव के पहले भाजपा ने ‘जनजातीय गौरव दिवस’ का पासा फेंका है ताकि वे अपने धार्मिक-सांस्कृतिक अभियान का तात्कालिक राजनीतिक लाभ भी उठा सकें।

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भाजपा की यह सरकारी घोषणा तब आई है जब देशभर के आदिवासी समुदाय सरना धर्मकोड की मांग पर उद्वेलित हैं। मोदी के रणनीतिकार अच्छी तरह से यह जानते हैं कि सार्वजनिक तौर पर उनकी सरकार क्या कोई दूसरी सरकार भी इस मांग को खारिज नहीं कर सकती। पर इससे कैसे निपटा जा सकता है, इसी का तोड़ वाजपेयी सरकार की तर्ज पर मोदी के रणनीतिकारों ने ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में ढूंढ निकाला है। यह गौरव दिवस आदिवासियों के साम्राज्यवाद और दिकू-आर्य विरोधी ऐतिहासिक संघर्ष चेतना को, बीसवीं सदी में जिसके सबसे बड़े नायक बिरसा मुंडा हैं, सरकारी मशीनरी के सहयोग से कुंद कर देने की साजिश है। धरती आबा बिरसा को ‘भगवान’ और ‘स्वतंत्रता सेनानी’ बना उन्हें ‘हिंदू’ और ‘राष्ट्रवादी’ स्थापित कर देना है, जिससे कि आदिवासी स्वशासन के लिए लड़ी जा रही जल-जंगल-जमीन की पुरखा लड़ाई और आदिवासी अस्तित्व के लिए धर्मकोड की संगठित मांग को हमेशा के लिए दबा दिया जा सके। पर मोदी के रणनीतिकारों को शायद यह इतिहास नहीं पता है, या वे भूल गए हैं कि ब्रिटिश सरकार को जिन्होंने हर युद्ध में झुकने को मजबूर किया, और 40 के दशक में जयपाल सिंह मुंडा की अगुआई में जिन्होंने हिंदुत्ववादी राष्ट्रवादियों के सांस्कृतिक-धार्मिक सांप्रदायिक मंसूबों पर पानी फेर दिया? उस आदिवासी समुदाय को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के झुनझुने से कभी नहीं बहलाया जा सकता।

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

अश्विनी कुमार पंकज

कहानीकार व कवि अश्विनी कुमार पंकज पाक्षिक बहुभाषी आदिवासी अखबार ‘जोहार दिसुम खबर’ तथा रंगमंच प्रदशर्नी कलाओं की त्रैमासिक पत्रिका ‘रंग वार्ता’ के संपादक हैं।

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