बीते 26 नवंबर, 2021 को संविधान दिवस के मौक़े पर समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने बहुजन महापंचायत रैली को संबोधित किया। इस रैली एक आम चुनावी सभा कहकर नहीं टाला जा सकता है। दरअसल, यह राज्य में पिछड़े और दलितों के बीच पनप रहे नए राजनीतिक समीकरणों की एक आहट है। हालांकि राजनीतिक विश्लेषक मंच पर मौजूद लोगों को ज़्यादा महत्व देने के मूड में न हों, लेकिन अगर यह जुगलबंदी जारी रही तो न सिर्फ राजनीतिक बल्कि सामाजिक तौर पर भी उत्तर प्रदेश में लंबे समय तक इसकी आहट महसूस की जाएगी।
बहुजन महापंचायत का महत्व समझने के लिए हमें 2014 से थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा। इस बीच उत्तर प्रदेश में हुए पिछले तीन चुनाव यानी 2017 में विधानसभा और 2014 के बाद 2019 के लोक सभा चुनावों में लोगों के नए समीकरण देखने को मिले। इससे पहले दलित और अति पिछ़ड़े वोटों पर मायावती की बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस की दावेदारी रहा करती थी। लेकिन भाजपा ने छोटे दलों को तरजीह दी। इसके साथ ही समाजवादी पार्टी और बीएसपी से कई नेताओं को तोड़कर अपने पाले में कर लिया। इसका नतीजा यह हुआ कि राज्य के ग़ैर जाटव और ग़ैर यादव वोटों का भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण हुआ। इस आंधी में जाटव और यादवों का भी एक तबक़ा बहकर भाजपा की तरफ चला गया। हालांकि इसके अलावा भी कई कारण रहे होंगे, मगर नतीजे में भाजपा के उम्मीदवारों का जीत का फासला कई सीट पर इतना था, जितना पिछले चुनावों में कुल वोट पड़ता था।
अब हम वापस लौट कर लखनऊ आते हैं, जहां प्रकाश आंबेडकर समेत डॉण् भीमराव आंबेडकर के दोनों पौत्र, दिल्ली सरकार में मंत्री राजेंद्र पाल गौतम, सुहेलदेव भारती समाज पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर, अपना दल की उपाध्यक्ष कृष्णा पटेल, भाजपा की पूर्व सांसद सावित्रीबाई फुले समेत पिछड़े और दलितों के कई नेता अखिलेश यादव के साथ मंच साझा कर रहे थे। राम अचल राजभर, इंद्रजीत सरोज, लालजी वर्मा, और वीर सिंह जैसे तमाम नेता पहले से ही समाजवादी पार्टी में शामिल हो चुके हैं। हालांकि बहुजन समाज पार्टी के तमान नेता पहले भी पार्टी छोड़ते रहे हैं लेकिन इस बार जो हो रहा है उसकी अनदेखी करना आसान नहीं है।
दरअसल, उत्तर प्रदेश के पिछड़े और दलित वर्गों में एक अजीब सी बेचैनी है। आप किसी वोटर से बात कीजिए, वह भाजपा को वोट करने को लेकर पहले जितना सहज नहीं दिखेगा। इसके तमाम कारण हो सकते हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश मे जिस तरह दलित और पिछड़े पिछले पांच साल में दबंग और अपराधी प्रवृत्ति के लोगो का निशाना बने हैं, उससे उनमें नाराज़गी तो है। हालांकि यह नाराज़गी 2019 के लोक सभा चुनाव के वक़्त भी थी, लेकिन राजनीतिक विकल्प के अभाव में यह सत्ता विरोधी रूझान में तब्दील नहीं हो पाई। दलित और पिछड़ों ने समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन को पूरी तरह स्वीकार नहीं किया।

इसकी एक वजह दोनों पार्टियों के कोर वोटर माने जाने वाले यादव और जाटव समूहों के आपसी टकराव था। इसके अलावा भाजपा यादव और जाटवों के ख़िलाफ दूसरे जातीय समूहों को लामबंद करने में भी कामयाब रही। अन्य समूहों में यह नॅरेटिव चुनाव में बिक गया कि यादव और जाटव अपने दबंग चरित्र के चलते दूसरी जातियों का हिस्सा दबा लेते हैं। दूसरी वजह यह भी थी कि बसपा के कई बड़े जिताऊ चेहरे गठबंधन के चलते टिकट खोने की वजह से भाजपा में चले गए। लेकिन अब परिस्थितियां अलग हैं। बसपा पहले जितनी मज़बूत नज़र नहीं आ रही और भाजपा गले से नीचे नहीं उतर रही। अखिलेश यादव में यह हालात कांग्रेस से पहले भांप लिए हैं।
उत्तर प्रदेश में हालात यह हैं कि दलित और पिछड़े इस समय विकल्पहीनता का शिकार नज़र आ रहे हैं। ऐसे में समाजवादी पार्टी ने जैसे ही हाथ बढ़ाया, तुरंत कई नेताओं और वोटरों को एक मज़बूत विकल्प दिखने लगा। जातियों में बंटे और सत्ता के साथ जातीय प्रभुत्व बदलने वाले उत्तर प्रदेश में वैचारिक निष्ठा से ज़्यादा अहम यह भाव है कि किस सरकार में हम यानी जातीय समूह न सिर्फ सुरक्षित रहेंगे बल्कि सत्ता की हनक में हिस्सेदार बनेंगे? यहां अखिलेश यादव अपनी पिछली ग़लतियों से सबक़ लेते दिख रहे हैं। वह कम संख्या वाले पिछड़े जातीय समूहों को समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि समाजवादी सरकार आती है तो उनको यादव या जाटव प्रभुत्व का शिकार नहीं होना पड़ेगा। इसके साथ ही वह बता रहे हैं कि कमज़ोर वर्गों को सवर्ण समूहों के उत्पीड़न से भी सरकार बदलते ही निजात मिल जाएगी।
हालांकि राजनीति में एक और एक दो नहीं होते। कभी-कभी एक और सिफर हो जाता है और कभी एक और एक मिलकर ग्यारह भी बन जाते हैं। लखनऊ में संविधान दिवस के मौक़े पर बहुजन समाज से जुड़े लोगों का जमावड़ा अगर वोटों में तब्दील होता है तो एक और एक ग्यारह से किसी भी हाल कम नहीं होगा। लेकिन सियासत के गणित हमेशा इतने आसान नहीं होते। जिस तरह दलित और पिछड़ी जातियों के अहम आपस में टकराते हैं, वह इस तरह के समीकरण बनने से रोक देते हैं। परंतु यह भी सच है कि यूपी में दलित और पिछड़े मिलकर हमेशा बड़े राजनीतिक बदलाव लाते रहे हैं।
(संपादन : नवल/अनिल)
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