इतिहास को बनाने में भले ही व्यापक आमजन की सबसे निर्णायक भूमिका होती है, लेकिन इतिहास लेखन अक्सर वर्चस्वशाली अभिजनों द्वारा किया जाता है, यह तथ्य भारतीय इतिहास लेखन पर हू-ब-हू लागू होता है। भारतीय इतिहास लेखन की परंपरागत तौर पर तीन स्थापित धाराएं रही हैं। पहला औपनिवेशिक इतिहास लेखन, दूसरा राष्ट्रवादी इतिहास लेखन और तीसरा वामपंथी इतिहास लेखन। यह स्थापित तथ्य है कि इतिहास लेखन के मानकों पर भारत में इतिहास लेखन की शुरुआत ब्रिटिश और अन्य यूरोपीय लेखकों ने किया, क्योंकि भारत में इतिहास लेखन की अपनी कोई सतत परंपरा नहीं रही है, मिथक और पुराणों को यहां इतिहास के स्थानापन्न के रूप में देखा जाता रहा है। भारत में भारतीयों द्वारा इतिहास लेखन मुख्यत: उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के शुरुआत की परिघटना है।
तमाम मतभेदों के बावजूद भी राष्ट्रवादी इतिहास लेखन और वामपंथी इतिहास लेखन में सबसे साझा तत्व यह रहा है कि करीब सभी इतिहासकार अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि और काफी हद तक अपने नजरिए में गहरे स्तर पर अभिजात्य विश्वदृष्टिकोण से प्रभावित रहे हैं, और उनके हित उसके केंद्र में थे। कुछ एक ही इसके अपवाद रहे हैं।
ऊंची जातियों के अभिजन नजरिए से लिखे गए राष्ट्रवादी और वामपंथी इतिहास लेखन को आधुनिक युग में व्यापक भारतीय जनों का प्रतिनिधित्व करने वाली बहुजन इतिहास दृष्टि द्वारा चुनौती दी जाती रही है। जोतीराव फुले ने अपनी किताब गुलामगिरी (1873) में बहुजन इतिहास दृष्टि का बीजारोपण किया। इस बीज को डॉ. आंबेडकर ने अपने इतिहास लेखन से एक नई ऊंचाई प्रदान की। फिर भी भारतीय इतिहास को देखने-समझने की अपरकॉस्ट वर्चस्वशाली अभिजन इतिहास दृष्टि ही प्रभावी बनी रही। जिस तरह जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में ऊंची जातियों के अभिजन विश्व दृष्टिकोण को बहुजनों द्वारा बहुजन नजरिए से चुनौती दी जा रही है, उसी तरह बहुजन सामाजिक पृष्ठभूमि से आए बहुजन इतिहासकार बहुजन नजरिए नए सिरे भारतीय इतिहास की प्रस्तुति कर रहे है। ऐसे इतिहासकारों में एक महत्वपूर्ण नाम सुभाष चन्द्र कुशवाहा का भी है, उनकी अभी हाल में आई किताब ‘भील विद्रोह : संघर्ष के सवा सौ साल’ इसका जीता-जागता सबूत है।
सुभाष चन्द्र कुशवाहा हाशिए पर फेंक दिए गए बहुसंख्यक बहुजन समाज के इतिहास का दस्तावेजीकरण करने वाले लेखक हैं। वे अपने इतिहास लेखन द्वारा फुले-आंबेडकर की इतिहास दृष्टि को आगे बढ़ा रहे हैं। इसके पहले उन्होंने अपनी इतिहास की पहली किताब ‘चौरी-चौरा: विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन’ में उत्पादक मेहनतकश बहुजन किसानों-मजदूरों (पिछड़, दलितों और मुसलमानों) की भूमिका की तथ्यपरक एवं वस्तुपरक प्रस्तुति की थी। उनकी दूसरी किताब ‘अवध का किसान विद्रोह (1920-22)’ बहुजन उत्पादक किसानों (पिछड़े वर्गों) के उच्च जातीय जमींदारों और ब्रिटिश सत्ता के गठजोड़ के खिलाफ संघर्ष की गाथा कहती है। उनकी यह तीसरी किताब (‘भील विद्रोह : संघर्ष के सवा सौ साल’) आदिवासियों के संघर्ष की कहानी से पाठकों को रू-ब-रू कराती है।
इस प्रकार उनकी तीनों इतिहासपरक किताबों के केंद्रक पिछड़े उत्पादक किसान, मेहनकश दलित मजदूर-किसान और आदिवासी हैं, जिन्हें इन वर्गों द्वारा देशी ऊंची जाति वर्ग की वर्चस्वशाली सत्ता और विदेशी औपनिवेशिक सत्ता के गठजोड़ के खिलाफ संघर्ष के दस्तावेजों की ट्रिलोजी (त्रयी) कह सकते हैं।
गौर तलब है कि औपनिवेशिक काल में जहां अभिजात्यवर्ग सिर्फ ब्रिटिश सत्ता को हटाकर उसकी जगह भारत में अपनी राजनीतिक सत्ता स्थापित करना और अपने वर्चस्व को मुकम्मल करना चाहता था, वहीं पिछड़े, दलित और आदिवासी ऊंची जातियों की देशी सत्ता और विदेशी ब्रिटिश सत्ता के गठजोड़ के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे और इन दोनों सत्ताओं के गठजोड़ को पदास्थापित करके न्यायपूर्ण, समता मूलक और शोषण-उत्पीड़न विहीन भारतीय समाज की स्थापना करने का स्वप्न देखते थे।
‘भील विद्रोह : संघर्ष के सवा सौ साल’ देशी वर्चस्वशाली सत्ताओं और ब्रिटिश सत्ता के गठजोड़ के खिलाफ आदिवासी भीलों के सवा सौ वर्ष के अनवरत संघर्ष का पहला मुकम्मल दस्तावेज है, जो मूल स्रोतों पर आधारित है, न कि किस्सा-कहानियों पर।
किताब की संरचना की बात करें तो इसमें कुल तीन भाग हैं। पहले भाग में छह अध्याय हैं– ‘भील जनजाति : सामान्य परिचय’, ‘खानदेश और खानदेश के भील’, ‘मध्य भारत और खानदेश के भीलों के प्रति अंग्रेजों की नीति’, ‘खानदेश, मध्य भारत का भील विद्रोह और उसके नायक’, ‘खानदेश सीमांत और महाराष्ट्र के भील नायकों का 1858 के बाद विद्रोह’, ‘खानदेश सीमांत, बड़वानी और अलीराजपुर के भील नायकों का 1833 के बाद विद्रोह’।
वहीं, दूसरे भाग के दो अध्यायों में राजपूताना, रेवाकांटा और माहीकांटा (गुजरात) के भील समुदाय, उनके नायकों व विद्रोह की जानकारी सिलसिलेवार ढंग से दी गयी है।
तीसारा भाग वस्तुत: किताब को मुकम्मल स्वरूप प्रदान करता है, जिसके केंद्र में जननायक टंट्या भील हैं। इसके तहत चार अध्याय हैं– ‘टंट्या भील : द ग्रेट इंडियन मूनलाइटर’, ‘खेमा नायक द्वारा टंट्या को संरक्षण और सजा’, ‘टंट्या भील का अंत’ और अंत में ‘ऑस्ट्रेलियाई अखबारों में जननायक टंट्या भील की बहादुरी के किस्से’।

इस प्रकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा भील समुदाय के गौरवमयी इतिहास को सामने लेकर आते हैं, जिसे अभिजत्य वर्ग ने कभी तवज्जो नहीं दी। इस संदर्भ में वे लिखते हैं– “आदिवासी समुदाय के प्रति हमारी दृष्टि, अभिजन बनाम अभिशप्तजन में विभाजित रही है। यह सुघड़ और फूहड़ के मनोरोग से ग्रसित रही है।”
वे भील समुदाय को यहां के मूल निवासियों के रूप में देखते हैं और लिखते हैं कि “भारतीय भू-भाग पर बाहर से आए अश्वरोही आक्रमणकारियों (राजपूतों) ने मैदानी सैन्य कुशलता के बल पर जब भील प्रांतों पर कब्जा जमाया, तब उन्होंने काली चमड़ी वाले मूल निवासियों को छल-बल से बेदखल करने के लिए, उनकी सत्ता में सेंध लगा दी। यह एक प्रकार की आर्थिक और सामाजिक डकैती थी, जिसके द्वारा अभिजनों ने, अभिशप्त जनों के हिस्से की सामान्य और सामूहिक खुशियों पर कब्जा कर, उनकी प्राकृतिक जीवन-संपदा को हथिया लिया।”
उनके मुताबिक, भीलों ने कभी भी अपनी पराधीनता की स्थिति को दिल से स्वीकार नहीं किया, वे निरंतर अपनी स्वाधीनता को बनाए रखने के लिए संघर्ष करते रहे। भीलों का पहला संघर्ष राजपूतों से हुआ। राजपूतों की अश्वसेना से भीलों का संघर्ष नया-नया था। वे उनके सामने मैदानी क्षेत्रों में मुश्किल में पड़ रहे थे। घोड़ों की रफ्तार उन्हें मोर्चाबंदी में कमजोर कर रही थी। इसलिए साहसिक संघर्ष के वावजूद, वे मैदानी क्षेत्रों में पीछे हटते गए। उन्होंने जंगलों और पहाड़ियों में जाकर अपनी मोर्चाबंदी संभाल ली। राजपूतों के आक्रमण से पहले भीलों के अपने स्वतंत्र राज्य थे। राजपूतों के आक्रामण के बाद ज्यादात्तर भीलों की सत्ता उनसे पहली बार छीन ली गई। कुछ राजा से सामान्य पटेल की हैसियत में आ गए, बहुत कम भील राजा बचे, जिन्होंने अपनी सत्ता बचा पाई, लेकिन उनमें भी कई को राजपूतों को कर देना पड़ता। लेकिन भीलों में कभी भी अंतिम पराजय स्वीकार नहीं की, वे अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते रहे। लेकिन 1800 से पूर्व, जो विद्रोह राजपूत राजाओं के खिलाफ भीलों ने किया, उनके दस्तावेजी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है, भीलों के लोकगीतों और लोकगाथाओं और अन्य मिथकों एवं प्रतीकों में उसके साक्ष्य मिलते हैं। हम सभी जानते हैं कि भारत में ब्रिटिश सत्ता स्थापित होने के बाद ही प्रमाणिक साक्ष्यों के उपलब्ध होने की शुरुआत होती है। ब्रिटिश शासकों की एक खासियत यह भी रही है कि उन्होंने अपने प्रशासनिक दस्तावेजों को संभाल कर रखा।
ब्रिटिश सत्ता और स्थानीय देशी सत्ता के गठजोड़ के खिलाफ भीलों के विद्रोह एवं संघर्ष के दस्तावेज प्रमाणिक तौर पर उपलब्ध हैं। ये दस्तावेज गजेटियरों, कार्यालीय पत्र-व्यवहार एवं समाचार-पत्र और लिखित दस्तावेज के रूप में भारत सहित ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया और अमेरिका आदि देशों के अभिलेखागारों में सुरक्षित हैं। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने इन्हीं मूल दस्तावेजों के आधार पर भीलों के सवा सौ वर्षों के विद्रोह एवं संघर्ष की गाथा को तथ्यपरक और वस्तुगत तौर पर प्रस्तुत किया है।
वे साफ शब्दों में कहते हैं कि कर्मशील आदिवासियों के हाथों से जल, जमीन और जंगल छीन लेने वाला तथाकथित कुलीन तबका मनुष्य विरोधी रहा है। वह सबसे पहले निम्न वर्ग को सताता है और फिर उसके मांस को निचोड़कर निकाले गए रक्त से अपने चेहरे की लाली को चमकाता है।
भारत के बहुसंख्यक बहुजनों के न केवल इतिहास बल्कि उनके बेहतर भविष्य की चाहत रखने वाले हर व्यक्ति को यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए, जो भारतीय इतिहास को देखने के लिए नई दृष्टि प्रदान करती है।
समीक्षित पुस्तक – भील विद्रोह :संघर्ष के सवा सौ साल
लेखक – सुभाष चन्द्र कुशवाहा
प्रकाशक – हिंदी युग्म, नोएडा
मूल्य – 249 रुपए
(संपादन : अनिल/नवल)
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