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शैलेंद्र सागर मेरी नजर में : कंवल भारती

दलित विमर्श का मतलब दलितों के हित की बात करना भर नहीं है, बल्कि उस पूरी व्यवस्था पर आघात करना है, जो एक पूरी मनुष्य-आबादी को जन्म के आधार पर ऊंच और नीच में विभाजित करने के लिए जिम्मेदार है। मेरी नजर में शैलेंद्र सागर ने यह आघात ईमानदारीपूर्वक किया है। बता रहे हैं कंवल भारती

हिंदी में बहुत सारे, मैं समझता हूं कि असंख्य, मंच और संस्थान हैं। लेकिन सच कहूं, तो उनमें लोकतांत्रिक मंचों की संख्या उंगलियों पर गिनने लायक भी नहीं है। मैं अभी तक अपने साहित्यिक जीवन में केवल चार मंचों और व्यक्तियों से प्रभावित हुआ हूं, जिन्होंने पूरी ईमानदारी से अपने लेखन, संपादन और आयोजन में अपना लोकतांत्रिक विवेक साबित किया है। ये हैं– राजेंद्र यादव, रमणिका गुप्ता, शैलेंद्र सागर और विभूतिनारायण राय। अगर हम सामाजिक श्रेणी में विभाजन करें, तो इनमें राजेंद्र यादव को छोड़कर, जो ओबीसी थे, शेष में कोई भी दलित नहीं है। रमणिका गुप्ता, शैलेंद्र सागर और विभूतिनारायण राय तीनों अपर कास्ट के हैं। लेकिन चारों में गजब का लोकतांत्रिक विवेक है। मैंने रत्तीभर भी जातिवाद इनमें नहीं देखा। मगर इनमें से जिसने भी दलित विमर्श चलाया, उसे हिंदी के हर ब्राह्मण मठाधीश ने जातिवादी कहा। सबसे ज्यादा कुख्यात हुए राजेंद्र यादव। मगर यह राजेंद्र यादव ही थे, जो ओबीसी की उमा भारती से यह पूछने की हिम्मत दिखा सकते थे कि तुम्हारे मुंह में यह किसकी जुबान है? ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ जैसा विद्रोही लेख भी राजेंद्र यादव ही लिख सकते थे, जिसमें वे कहते हैं कि किसी विभाग में अगर सारे ब्राह्मण-ठाकुर भरे हुए हैं, तो यह जातिवाद नहीं है, पर अगर अखिलेश यादव ने किसी विभाग में यादव भर दिए, तो यह जातिवाद है। यह राजेंद्र यादव ही थे, जिन्होंने ‘हंस’ में दलित और स्त्री विमर्श को स्थान दिया, और ऐसा-वैसा स्थान नहीं, बल्कि उसे साहित्य की मुख्यधारा बनाने के लिए स्थान दिया। 

मैं समझता हूं कि जितना दलित साहित्य ‘हंस’ में छपा, उतना रमणिका गुप्ता की पत्रिका ‘युद्धरत आम आदमी’ के सिवा किसी में नहीं छपा। और रमणिका गुप्ता ने तो दलितों को नहीं, आदिवासी साहित्य को भी हिंदी में लाने का क्रान्तिकारी काम किया था। उन्होंने भारतीय भाषाओं के दलित-आदिवासी साहित्य को हिंदी में छापने के लिए अपने यहां अनुवाद विभाग खोल लिया था। उन्होंने तेलगु, मलयालम, कन्नड़, पंजाबी, बंगाली, असमिया, मराठी, गुजराती भाषाओं का दलित साहित्य, और हो, संथाल, खडिया आदि भाषाओं का आदिवासी साहित्य भी अनुवाद करके हिंदी में प्रकाशित किया। यह छोटा काम नहीं था, बल्कि वह महान काम था, जो अपर कास्ट के किसी अन्य ने लेखक ने नहीं किया।

विभूतिनारायण राय पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अपने कुलपतित्व-काल में महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में सबसे पहले दलित साहित्य पाठ्यक्रम में लगवाया था। स्वामी अछूतानन्द रचनावली को हिंदी में लाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। उन्होंने मुझे फोन करके यह काम करने का दायित्व सौंपा था, और बड़ा काम यह कि उस रचनावली को उन्होंने अपने विश्वविद्यालय की ओर से छपवाया था। किसी भी अन्य विश्वविद्यालय ने इस तरह का दलित साहित्य छापने का काम नहीं किया। अगर वह अन्य कुलपतियों की तरह जातिवादी होते, तो हरगिज यह काम नहीं करते।

अब मैं शैलेंद्र सागर के ‘कथाक्रम’ पर आता हूं। साहित्य में उनके लोकतांत्रिक विवेक का मैं कायल हूं। वह अपने पिता आनंद सागर की स्मृति में प्रत्येक वर्ष एक कथाकार का सम्मान करते हैं। पहला ही सम्मान उन्होंने संजीव को दिया। जाति देखकर नहीं, काम देखकर। संजीव ब्राह्मण नहीं हैं? हिंदी के लगभग सभी मंचों के सम्मान जहां अपर कास्ट के लिए आरक्षित हैं, वहां तीन मंच ऐसे हैं, जो हमेशा लोकतांत्रिक विवेक से चले, जातिवादी अहंकार से नहीं। एक ‘हंस’, दूसरा ‘रमणिका फाउंडेशन’ और तीसरा ‘कथाक्रम’। इन तीनों मंचों ने जाति को कभी महत्व नहीं दिया। अगर मैं यह कहूं कि सबसे ज्यादा दलित-ओबीसी के लेखक इन्हीं तीन मंचों से प्रकाशित और सम्मानित हुए, तो इसमें कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं है।

दलित विमर्श का मतलब दलितों के हित की बात करना भर नहीं है, बल्कि उस पूरी व्यवस्था पर आघात करना है, जो एक पूरी मनुष्य-आबादी को जन्म के आधार पर ऊंच और नीच में विभाजित करने के लिए जिम्मेदार है। उस अमानवीय व्यवस्था को सही और संसार की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था मानने वाले लोग दलितों को कभी भी बराबर का दर्जा नहीं दे सकते, वे इस पर लोकतांत्रिक विवेक से विचार करना ही नहीं चाहते, क्योंकि वे इसी व्यवस्था के बल पर लोकतंत्र में भी देश के शासन-प्रशासन और संसाधनों पर अपना वर्चस्व कायम किए हुए हैं।

इन तीन मंचों के अलावा सबके अपने जातिवादी एजेंडे हैं। नामवर सिंह का भी जातिवादी एजेंडा था, जिसे उन्होंने, जिस पद पर भी रहे, खूब निभाया – आलोचना में भी, नौकरियां देने में भी और पुस्तकों की खरीद में भी। अभी गत दिनों अशोक वाजपेयी का युवा साहित्य सम्मेलन दिल्ली में हुआ, कोई भी उसे देखकर कह सकता है कि वह जातिवादी विवेक से हुआ, लोकतांत्रिक विवेक से नहीं। भरमार है हिंदी में ऐसे अलोकतांत्रिक मंचों और मठों की। इन मठों को स्त्री-विमर्श से कोई फर्क नहीं पड़ता, उसे वे अपने घर की ही समस्या मानते हैं। पर, दलित विमर्श से उन्हें बहुत फर्क पड़ता है, क्योंकि उससे वे सिर से पांव तक हिल जाते हैं। उनका वर्चस्ववादी वजूद उससे कटघरे में खड़ा हो जाता है, और उनके सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की जड़ों में मट्ठा पड़ जाता है। इसलिए दलित विमर्श से वे भागते हैं। ऐसा नहीं है कि वे परिवर्तन-विरोधी हैं। वे परिवर्तन-विरोधी नहीं हैं, बल्कि प्रगतिशीलता का दम्भ भरते हैं। लेकिन वे उसी सीमा तक प्रगति और परिवर्तन पसंद करते हैं, जिस सीमा तक उनके वर्चस्ववाद अर्थात जातिवाद पर आंच न आए। अगर आपमें मूल्यांकन करने की इच्छा-शक्ति है, तो उनके लेखों और विमर्शों पर जरा गौर से नजर डालकर देखें, उनके शब्द-शब्द में उनका वर्चस्ववाद समुद्र की लहरों की तरह हिलोरें लेता हुआ दिखाई देगा।

शैलेंद्र सागर

‘कथाक्रम सम्मान’ से सम्मानित होने वाले कथाकारों पर आप एक नजर डालिए। यह सम्मान आपको किसी वर्ग विशेष के लिए आरक्षित दृष्टि से दिया गया दिखाई नहीं देगा। संजीव से लेकर ओमप्रकाश वाल्मीकि, शिवमूर्ति, असगर वजाहत, भगवान दास मोरवाल, प्रियंवद, मधु कांकरिया, महेश कटारे, अब्दुल बिस्मिल्लाह, स्वयं प्रकाश, तेजिन्दर, जयनन्दन, नासिरा शर्मा, अखिलेश, राकेश कुमार सिंह, जया जादवानी, मनोज रूपड़ा, एस. आर. हरनोट, और नवीन जोशी तक एक नाम भी ऐसा नहीं है, जिसे जातिवादी चयन कहकर आप आलोचना कर सकें। ये सभी नाम कथा-जगत के चर्चित और सशक्त हस्ताक्षर हैं।

शैलेंद्र सागर का ‘कथाक्रम’ आयोजन सिर्फ सम्मान के लिए ही चर्चित नहीं है, बल्कि हिंदी में लोकतांत्रिक विमर्श के लिए भी चर्चित है। शैलेंद्र जी 1990 से 2020 तक ‘कथाक्रम’ की ओर से 28 बहसें करा चुके हैं, क्योंकि कुछ कारणों से 1992, 1993 और 1994 में ‘कथाक्रम’ का आयोजन नहीं हो सका था। इनमें ‘पठनीयता का संकट’, ‘उपभोक्ता संस्कृति’, ‘प्रतिबद्धता और कला की चुनौती’, ‘आलोचना के सरोकार’, ‘व्यवस्था के विद्रूप’, ‘प्रेमचंद से आज तक के गांव’, ‘बदलते सरोकार’, ‘साहित्य की आज़ादी’, ‘वर्तमान समाज’, ‘भविष्य का समाज’, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’, ‘वर्तमान प्रश्न और रचनाकारों की भूमिका’, ‘असहमति के स्वर और लोकतंत्र’, ‘भूमंडलीकरण’, ‘संस्कृति का संकट’, ‘सोशल मीडिया’, ‘सत्ता और साहित्य’, ‘भीड़तंत्र बनाम लोकतंत्र’, ‘नए भारत का नया राष्ट्रवाद’ तथा ‘कथा-साहित्य में आंचलिकता की प्रासंगिकता’ जैसे बेहद जरूरी लोकतांत्रिक विषयों पर जबर्दस्त बहस इन आयोजनों में हुई है। यही नहीं, शैलेंद्र जी ने उन विमर्शों को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया, जिसे हिंदी के वर्चस्ववादी मठ और मंच जातिवादी बताकर उपेक्षित करते हैं। उन्होंने वर्ष 2000 में ‘दलित विमर्श’ को चर्चा के केन्द्र में रखा, 2001 में ‘स्त्री अस्मिता’ पर चर्चा करवाई और 2002 में ‘सांप्रदायिकता की चुनौतियां’ विषय पर विचारोत्तेजक बहस करवाई। ये तीनों विमर्श लोकतंत्र के लिहाज से आज भी सबसे प्रासंगिक विषय हैं। हिंदी के वर्चस्ववादी मंचों पर  ये विषय आज भी वर्जित हैं। स्री विमर्श को तो खैर आज की मठवादी लेखिकाओं ने ही गैर-जरूरी करार देकर छोड़ दिया है। सांप्रदायिकता वामपंथी विमर्श का आज भी प्रिय विषय है, मगर उसकी दृष्टि में यह हिंदू-मुस्लिम दंगा और घृणा से ज्यादा कुछ नहीं है। इसमें वह मुलिम कट्टरवाद का भी समर्थक बन जाता है। किन्तु ‘कथाक्रम’ में इस पर इससे आगे की बहस हुई थी। सांप्रदायिकता का मतलब बहुसंख्यक वर्ग का यह विश्वास है कि उसे अल्पसंख्यकों पर शासन करने का दैवी अधिकार प्राप्त है। बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों के अधिकारों का दमन ही सांप्रदायिकता है। ‘कथाक्रम’ ने यह बहस ऐसे नाजुक दौर में कराई थी, जब गुजरात में राज्य-सत्ता के बल पर अल्पसंख्यकों का सरेआम नरसंहार हुआ था।

यह भी पढ़ें : मेरी दृष्टि में दलित-बहुजनों के अघोषित मित्र विभूतिनारायण राय

दलित विमर्श का मतलब दलितों के हित की बात करना भर नहीं है, बल्कि उस पूरी व्यवस्था पर आघात करना है, जो एक पूरी मनुष्य-आबादी को जन्म के आधार पर ऊंच और नीच में विभाजित करने के लिए जिम्मेदार है। उस अमानवीय व्यवस्था को सही और संसार की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था मानने वाले लोग दलितों को कभी भी बराबर का दर्जा नहीं दे सकते, वे इस पर लोकतांत्रिक विवेक से विचार करना ही नहीं चाहते, क्योंकि वे इसी व्यवस्था के बल पर लोकतंत्र में भी देश के शासन-प्रशासन और संसाधनों पर अपना वर्चस्व कायम किए हुए हैं। शैलेंद्र सागर ने ‘कथाक्रम’ के मंच से न केवल इस विषय पर लोकतांत्रिक बहस चलाई, बल्कि मुद्राराक्षस के अतिथि संपादन में ‘कथाक्रम’ पत्रिका का उसी वर्ष दलित-साहित्य विशेषांक भी निकाला।

मैं 2019 के ‘कथाक्रम’-विमर्श का भी जिक्र करना चाहूंगा, जो ‘नए भारत का नया राष्ट्रवाद’ विषय पर आयोजित किया गया था। सब जानते हैं कि 2019 में सत्ता ने जो एक नया राष्ट्रवाद उभारा था, उसने पूरे देश की फिजा में अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ नफ़रत का उन्माद भर दिया था। इस नए राष्ट्रवाद ने आक्रामक हिंदू राष्ट्रवाद के रूप में धर्मनिरपेक्षतावादी लोकतंत्र के समर्थकों के विरुद्ध कितना घातक माहौल पैदा कर दिया था, कि जो भी विरोध करता, उसी को इन राष्ट्रवादियों द्वारा देशद्रोही घोषित कर दिया जाता था। यह माहौल आज भी खत्म नहीं हुआ है। ऐसे माहौल में इस नए राष्ट्रवाद पर चर्चा वही करा सकता था, जो अपने कर्म में लोकतांत्रिक विवेक के मूल्य को महत्व देता है। यह लोकतांत्रिक विवेक तब बनता है, जब सच को सच कहने का साहस पैदा होता है। शैलेंद्र सागर में यह साहस है।

‘कथाक्रम’ को मैं एक अवसर के रूप में भी याद करता हूं। राजेंद्र यादव, नामवर सिंह, मुद्राराक्षस, काशीनाथ सिंह, मैत्रेयी पुष्पा, शिवमूर्ति, दूधनाथ सिंह, नासिरा शर्मा, गिरिराज किशोर, जया जादवानी, शशिभूषण द्विवेदी, अदम गौंडवी, अखिलेश, सुशील सिद्धार्थ, राकेश, रजनी गुप्त, वीरेंद्र सारंग, भगवान दास मोरवाल को पहली बार देखने और उनसे मिलने का सुअवसर भी मुझे ‘कथाक्रम’ ने ही दिया।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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