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सत्यशोधक समाज व किसान आंदोलन, जिन्होंने छोड़ी अमिट छाप

इन दिनों देश में चल रहा किसान आंदोलन मूलतः शूद्रों और अतिशूद्रों का आंदोलन है. और यह हमें बरबस जोतीराव फुले के नेतृत्व में 1870 और 1880 के दशकों में शूद्रों और अतिशूद्रों के उस आंदोलन की याद दिलाता है, जिसने महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्रों में परिवर्तन की आंधी पैदा की थी। बता रहे हैं अनिल वर्गीज

‘गुलामगिरी’ के प्रकाशन के चार माह बाद, 20 सितम्बर 1873 को, जोतीराव फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की। इस नए संगठन ने उन्नतशील मराठी और तेलुगू (मालाकार जाति के) व्यवसायियों, दुकानदारों और ठेकेदारों के अतिरिक्त सली (बुनकर), शिम्पी (दर्जी), कुम्हार, अछूत महारों और मुसलमानों को एकजुट किया। इसके सदस्यों में वकील, सरकारी मुलाजिम और सिपाही भी शामिल थे। अध्येता गेल ऑम्वेट व रोसलिंड ओ हेनलान ने सत्यशोधक समाज को ‘गैर-ब्राह्मण’ आंदोलन’ बताया है। 

इस संगठन की स्थापना के करीब आधी सदी पहले तक महाराष्ट्र में पेशवाओं का राज था। पेशवाओं का स्थान अंग्रेजों ने ले लिया था, परंतु इसके बाद भी ग्रामीण इलाकों में ब्राह्मणों का दबदबा बना हुआ था। उन्होंने सरकारी तंत्र पर भी कब्जा कर लिया था। ब्राह्मणों ने अंग्रेजी सीखी और वे शिक्षित श्रेष्ठि वर्ग में शामिल हो गए। परंतु गैर-ब्राम्हणों, जिनमें शूद्रों और अति-शूद्रों की बहुतायत थी, की स्कूलों तक पहुंच ही नहीं थी। ब्राह्मण शिक्षक शूद्र व अति-शूद्र बच्चों को पढ़ाने को तैयार नहीं थे। ब्रिटिश सरकार के हस्तक्षेप के बाद ही वे इसके लिए राजी हुए। शूद्र, जो भी धार्मिक कर्मकांड करते थे, उसके लिए ब्राह्मण पुरोहितों की जरूरत होती थी। पूजा-पाठ और कर्मकांड के नाम पर ब्राह्मण शूद्रों को जमकर लूटते थे। इससे शूद्र कर्ज के जाल में फंस जाते थे और अक्सर अपनी गिरवी रखी हुई जमीनें खो बैठते थे। ग्राम स्तर पर सरकारी हिसाब-किताब रखने वाले ब्राह्मण, जो कुलकर्णी कहलाते थे, ब्राह्मण पुरोहितों और साहूकारों के साथ मिलकर श्रमजीवियों को कंगाल बना देते थे। 

आज 130 साल बाद, एक गैर-ब्राह्मण आंदोलन ने प्रचंड बहुमत वाली भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार, जो अपने पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की ब्राह्मणवादी विचारधारा से निर्देशित है, को तीन कृषि कानूनों को वापस लेने पर मजबूर कर दिया।

शोषित शूद्र न्याय पाने के लिए कहां जाते? ब्रिटिश अधिकारियों को उनसे कोई खास सहानुभूति नहीं थी और वैसे भी अधिकारियों के ब्राह्मण सहायक उनके कान भरने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ते थे। हाड़तोड़ मेहनत करने वाले बहुसंख्यक लोगों की कीमत पर चंद लोग ऐशोआराम की ज़िन्दगी बसर करते थे। परंतु फुले को ‘प्रबुद्ध अंग्रेज़ अधिकारियों’ व ब्रिटिश कानून तथा न्याय-व्यवस्था में आशा की एक किरण नजर आई और इसलिए उन्होंने अपनी पुस्तक ‘गुलामगिरी’ की भूमिका, जो उन्होंने अंग्रेजी में लिखी थी, में ब्रिटिश सरकार को संबोधित दलीलें देते हुए लिखा– “साथ ही, यह उन शूद्रों का भी कर्तव्य है, जिन्होंने कुछ शिक्षा प्राप्त की है, कि वे सरकार के सामने अपने बंधुओं की सत्य परिस्थिति पेश करें और हर संभव प्रयास करें ताकि वे उन्हें और खुद को भी ब्राह्मणों की गुलामी से मुक्त कर सकें। हर गांव में शूद्रों के लिए विद्यालय होने चाहिए। लेकिन सभी ब्राह्मण शिक्षकों को वहां से भगा दिया जाए। शूद्र ही देश का जीवन और उसका बाहुबल हैं। सरकार को हमेशा आर्थिक तथा राजनैतिक कठिनाईयों को मात देने के लिए केवल शूद्रों की ओर ही देखना चाहिए, ब्राम्हणों की ओर नहीं। अगर शूद्रों के दिल और दिमाग खुश किए जाएं और उन्हें खुश किया जाए तो ब्रिटिश सरकार भविष्य में उनकी निष्ठा के लिए निश्चिंत हो सकती है।”

फारवर्ड प्रेस द्वारा हाल में प्रकाशित ‘गुलामगिरी’ के एनोटेटिड संस्करण का मुखपृष्ठ; किसान आंदोलन के समर्थन में एक राजमार्ग पर चक्काजाम करती महिलाएं

सत्यशोधक समाज का उद्देश्य श्रमजीवी वर्ग को ब्राह्मणों के चंगुल से मुक्त करना, उन्हें शिक्षित और सशक्त बनाना और समानता पर आधारित समाज का निर्माण करना था। फुले सहित अनेक सत्यशोधक व्यापारी, दुकानदार और ठेकेदार थे और अपने काम के सिलसिले में वे ग्रामीण लोगों और सरकारी अधिकारियों दोनों के संपर्क में आते थे। इस कारण वे समाज और सरकार की कार्यप्रणाली और स्थिति का समालोचनात्मक अध्ययन करने की स्थिति में थे। सत्यशोधक समाज के सदस्यों को अपने-अपने कार्यक्रम बनाने और संचालित करने की स्वतंत्रता थी, बशर्ते वे कार्यक्रम कुछ साझा सिद्धांतों पर आधारित हों। इनमें शामिल थे– समानता (जातिवाद और पितृसत्तात्मकता का विरोध) व तार्किकता (अंधश्रद्धा और अंधविश्वास का विरोध)। इस तरह समाज में मतभेद और असहमति की गुंजाइश थी और सदस्यों में मतभेद और असहमतियां थीं भी। उदाहरण के लिए इस मुद्दे पर कि सत्यशोधक समाज को ब्रिटिश सरकार और ब्राह्मणें की किस हद तक आलोचना करनी चाहिए। सत्यशोधक समाज के कई प्रमुख सदस्यों ने अपने-अपने अलग संगठन स्थापित कर लिए परंतु वे आंदोलन का हिस्सा बने रहे। इस आंदोलन के सबसे प्रभावशाली नेताओं में शामिल थे– ‘दीनबंधु’ समाचारपत्र के संस्थापक और संपादक कृष्णराव भालेकर और उनके उत्तराधिकारी नारायण मेघाजी लोखंडे। सत्यशोधकों को गांवों में ब्राह्मण पुरोहितों का बहिष्कार करवाने में सफलता मिली और वे सरकार पर दबाव बनाकर शूद्र विद्यार्थियों के लिए वजीफों का एक हिस्सा आरक्षित करवाने में भी सफल रहे। इस आंदोलन ने महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों पर गहरी छाप छोड़ी। 

रोसलिंड हेनलान ने अपनी पुस्तक ‘कास्ट, कंफ्लिक्ट, एंड आइडियोलॉजी : महात्मा जोतीराव फुले एंड लो कास्ट प्रोटेस्ट इन नाइनटीन्थ सेंचुरी वेस्टर्न इंडिया’ में सत्यशोधक समाज के प्रभाव के बारे में लिखा– “विचारधारा के स्तर पर सत्यशोधक यह स्वीकार करते थे कि निम्न जातियां अन्यों से पिछड़ी हैं। परन्तु उनका यह मानना था कि ब्राह्मण अपनी धार्मिक सत्ता और हाल में हासिल की गई प्रशासनिक और राजनैतिक सत्ता का प्रयोग इस अंतर को बनाये रखने के लिए करते हैं … बैरभाव पर आधारित इस तरह का प्रचार प्रभावी नहीं होता … परन्तु इस शत्रुता भाव को जब स्वतंत्रता के अभाव और हाड़तोड़ मेहनत करने वाले किसान के रूपक से जोड़ दिया गया तो उसे समाज का भारी समर्थन हासिल हुआ। यह विशेषकर ग्रामीण इलाकों के बारे में सही था, क्योंकि वहां सत्यशोधक समाज की विचारधारा, किसानों के ऋणग्रस्तता के मुद्दे से जुड़ती थी।” 

आज 130 साल बाद, एक गैर-ब्राह्मण आंदोलन ने प्रचंड बहुमत वाली भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार, जो अपने पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की ब्राह्मणवादी विचारधारा से निर्देशित है, को तीन कृषि कानूनों को वापस लेने पर मजबूर कर दिया। कृषि को बाज़ार अर्थव्यवस्था के अनुकूल बनाने वाले ये नए कानून, किसानों को दलालों और खून चूसने वाले साहूकारों के चंगुल में फंसा देते और आम लोगों को सस्ती दर पर खाद्यान्न उपलब्ध करवाने वाली सार्वजनिक वितरण प्रणाली को समाप्त कर देते। किसान एक साल तक सड़कों पर रहे। उन्होंने दिल्ली पर घेरा डाला और राजमार्गों को प्रदर्शन स्थलों में बदल दिया। सैकड़ों किसानों ने अपनी जान गंवाई। और तब जाकर सरकार को समझ में आया कि जिन तीन कानूनों को कोरोना महामारी के दरमियान बिना किसी चर्चा के संसद में पारित करवाया था, वे उसके गले की राजनैतिक फांस बन गए हैं। सरकार में शामिल एक राजनैतिक दल ने उसका साथ छोड़ दिया और किसानों के प्रति सहानुभूति और सरकार की आलोचना बढ़ने लगी। इस बीच दो महत्वपूर्ण राज्यों में विधानसभा चुनाव भी नज़दीक आते जा रहे थे।   

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में देश में उभरे सत्यशोधक और अन्य गैर-ब्राह्मण आंदोलनों की तरह, किसानों के आंदोलन ने भी ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था द्वारा शूद्रों और अति-शूद्रों की श्रेणी में रखे गए समुदायों को एक किया। इनमें शामिल थे– जाट सिक्ख, गैर-जाट सिक्ख, पसमांदा मुसलमान और दलित। सिक्ख धर्म श्रम की गरिमा पर जोर देता है और मेहनत के फल को बांट कर खाने पर भी। इसके दर्शन के तीन मूल सिद्धांतों – कीरत करो (अर्थात ईमानदारी से कड़ी मेहनत करो); वंड छको (अर्थात बांट कर खाओ) और नाम जपो (अर्थात निराकार प्रभु का स्मरण करो) – ने आंदोलनकारियों को सरकार के असमतावादी और शोषक कानूनों को चुनौती देने का नैतिक बल दिया। यह आंदोलन, आक्रान्ताओं और शासकों के अन्यायपूर्ण क़दमों और कानूनों के प्रतिरोध के सिक्खों के पिछली अनेक सदियों के इतिहास की विरासत भी है।

परन्तु प्रश्न यह है कि सरकार ने आखिर श्रमजीवी वर्गों के हितों को क्षति पहुंचाने वाले इन कानूनों को बनाया ही क्यों? 

गेल ऑम्वेट ने 1971 में इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली में प्रकाशित अपने शोधप्रबंध ‘जोतीराव फुले एंड द आइडियोलॉजी ऑफ़ सोशल रेवोलुशन इन इंडिया’ में, 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध के ब्राह्मण कुलीन वर्ग के बारे में लिखा था– “उन्होंने एक नई वैचारिकी का विकास किया, जो नवीन उर्जा से लैस हिन्दू धार्मिक परंपरा को ऐसे आध्यात्मिक और नैतिक केंद्र के रूप में देखती थी, जिस पर पश्चिम की उदारवादी आधुनिकता का लेप चढ़ाया जा सकता था – ‘पूर्व की नैतिकता और पश्चिम का विज्ञान’। वे आर्यों के नस्ल संबंधी सिद्धांत को मानते थे, जिसका अभिप्राय यह था कि नस्लीय दृष्टि से वे अपने ब्रिटिश विजेताओं के नज़दीक थे न कि अपने अन्य देशवासियों के। यह सिद्धांत मानता था कि भारत में सभ्यता की शुरुआत आर्यों के आगमन से हुई। इसके अलावा वह वर्ण को नस्ल से जोड़ कर जातिगत पदक्रम को एक छद्म औचित्य प्रदान करता था। उन्होंने अपने आर्थिक सिद्धांत भी गढ़े जो विनाशकारी ब्रिटिश साम्राज्यवाद से भारत की मुक्ति के बाद उसके पूंजीवादी विकास के हामी थे। वे विदेशियों द्वारा भारत के शोषण के विरोधी थे, परन्तु देशी पूंजीपतियों द्वारा श्रमिकों के शोषण और ज़मींदारों व सरकारी मुलाज़िमों द्वारा किसानों के शोषण से उन्हें कोई परेशानी नहीं थी।” 

महाराष्ट्र में शिक्षा के अधिकार को लेकर शूद्रों के ज़बरदस्त आंदोलन के बीच, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पहला अधिवेशन 1885 में बम्बई में हुआ। 

कांग्रेस के मंच पर मुख्यतः शिक्षित, ऊंची जातियों के लोग इकठ्ठा हुए, जिनमें से अधिकांश ब्राह्मण थे। यह श्रेष्ठी वर्ग देश किए शासन में अधिक भागीदारी चाहता था। शूद्रों ने मराठा क्षेत्रीय (भूमि के रक्षक) परंपरा पर अपना दावा पेश किया और छत्रपति शिवाजी को अपना नायक बनाया तो बालगंगाधर तिलक, जो कांग्रेस में थे, ने शिवाजी पर कब्ज़ा ज़माने का अभियान शुरू कर दिया। उन्होंने हर वर्ष शिवाजी उत्सव मनाने की परंपरा की नींव डाली। इसके जवाब में लोखंडे के नेतृत्व वाले ‘दीनबंधु’ ने लेखों और पत्रों की एक श्रृंखला प्रकाशित की। सत्यशोधक समाज के एक कार्यकर्ता धोंडीराम नामदेव कुम्भार ने इसी विषय पर अपने लेख का अंत इस गथागीत से किया:

इन बेईमानों के मन में छत्रपति के प्रति कैसा सम्मान?
वे दूसरों को ज्ञान नहीं देते
उन्होंने तो छत्रपति को भी अँधेरे में रखा …
उन्होंने शिवाजी के उत्तराधिकारियों को बर्बाद कर दिया
उन्होंने शिवाजी के सम्मान पर हमला किया …
दरअसल क्षेत्रियों के मन में शिवाजी के प्रति सम्मान होना चाहिए
ब्राह्मणों को तो पेशवाओं का गुणगान करना चाहिए

(रोसलिंड ओ हेनलान, ‘कास्ट, कंफ्लिक्ट, एंड आइडियोलॉजी: महात्मा जोतीराव फुले एंड लो कास्ट प्रोटेस्ट इन नाइनटीन्थ सेंचुरी वेस्टर्न इंडिया’)

उन्होंने अपने पत्र का अंत इन शब्दों में किया: “मेरे गैर-ब्राह्मण बंधुओं, मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि जोश में आकर देश के साथ द्रोह मत करिए। हमें अंग्रेजों जैसी सरकार फिर नहीं मिलेगी।” (वही)

परन्तु सत्यशोधक समाज के कार्यकर्ताओं का ब्रिटिश सरकार पर भरोसा खोखला सिद्ध हुआ। अंग्रेजों ने शूद्र आंदोलन को कोई महत्व नहीं दिया और कांग्रेस के अपने आर्य बंधुओं से ही बातचीत की। नतीजे में स्वतंत्रता भारत में श्रमजीवियों की सरकार नहीं बन सकी। आज, स्वाधीनता के 75 साल बाद भी, हमारी कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका सही अर्थों में देश की जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करती। किसानों को जो कुछ भोगना पड़ा, यह इसका सुबूत है। राज्य तंत्र और मीडिया पर उच्च जातियों के दबदबे के चलते निम्न जातियों के प्रति तिरस्कार का भाव सब ओर व्याप्त है और यही कारण है कि राष्ट्र निर्माण में उनकी भूमिका की अनदेखी की जाती है।  

(अनुवादः अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

अनिल वर्गीज

अनिल वर्गीज फारवर्ड प्रेस के प्रधान संपादक हैं

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