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अभय खाखा ने जगाया था आदिवासियों में आत्मविश्वास : प्रो. वर्जीनियस खाखा

प्रो. वर्जीनियस खाखा ने अपने संबोधन में कहा कि अभय चाहते थे कि दिल्ली में जैसे दलित अध्ययन के लिये इंस्टीट्यूट है, वैसे ही आदिवासी अध्ययन के लिये इंस्टीट्यूट बने। वो ऐसा इंस्टीट्यूट बनाना चाहते थे, जो न सिर्फ़ रिसर्च करवाए, बल्कि ज़मीनी स्तर पर आदिवासियों से जुड़ा भी रहे। सुशील मानव की खबर

बीते 28 नवंबर, 2021 को दिल्ली के ग्रेटर कैलाश के विजडम क्लब में आदिवासी बुद्धिजीवी व सामाजिक कार्यकर्ता रहे अभय फ्लेवियन खाखा को याद किया गया। इस मौके पर अभय व जी. एन. देवी द्वारा संपादित किताब “बीइंग आदिवासी : एक्जिस्टेंस, एनटाइटिलमेंट, एक्सक्लूजन” का लोकार्पण तथा आदिवासी समाज के लिये अभय खाखा के योगदान पर परिचर्चा कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस किताब का प्रकाशन पेंग्विन इंडिया ने किया है। इस कार्यक्रम में प्रो. वर्जीनियस खाखा व प्रो. नंदिनी सुंदर सहित अनेक बुद्धिजीवियों ने भाग लिया।

गौर तलब है कि अभय खाखा को गुज़रे एक साल बीत गये। पिछले साल 15 मार्च 2020 को अचानक हुए हृदयाघात के चलते महज 37 वर्ष की अल्पायु में ही अभय की मौत हो गई थी। वे फोर्ड फाउंडेशन फेलोशिप पर विदेश में पढ़ाई करने वाले पहले आदिवासी थे। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के वनाधिकार को लेकर वह लगातार कार्य करते रहे। 

किताब के लोकार्पण समारोह को संबोधित करते हुए डॉ. वर्जीनियस खाखा ने कहा कि कि साल 2009 में देवनाथन के साथ हमने मिलकर ‘ट्राइबल इंटिलेक्चुअल कलेक्टिव’ नाम से एक फोरम बनाया। इसके पीछे विचार यही थी कि यूनिवर्सिटी व कॉलेज में जो आदिवासी समुदाय के लोग आ रहे हैं, उन्हें एक मंच मिले ताकि वे अपने विचार साझा कर सकें। वे अपनी समस्याओं के बारे में बात करें। साल 2018 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस (टिस्स), मुंबई में फोरम का एक कार्यक्रम हुआ। वहां पर अभय खाखा से मुलाकात हुई। 2019 में दिल्ली आया तो उनसे काफी बातें करने का वक्त मिला। फिर 2020 में भोपाल में मुलाकात हुई वहां उन्होंने मुझसे बताया कि मैं किताब संपादित कर रहा हूं और उसमें आपका सहयोग चाहिये। अक्टूबर 2019 में उनका ईमेल आया कि आप किताब के लिए अपना एक आलेख भेजें। लेकिन इससे पहले कि किताब का प्रकाशित होती, अभय के मौत की दुखद खबर आयी। 

प्रो नंदिनी सुंदर ने अभय खाखा को याद करते हुये कहा कि आदिवासी धर्म पर खामोशी क्यों है? आदिवासी धर्म की खासियत और आदिवासियत की खासियत को कैसे मंच पर आगे लाया जाये, वह बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होनें आगे कहा कि अमूमन हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई की बात चलती है, लेकिन आदिवासी समुदाय इतना बड़ा समुदाय है, इसके बावजूद उस पर बात नहीं होती।

डॉ. खाखा ने कहा कि आदिवासी अध्ययन के लिये एक ‘नेशनल आदिवासी इंस्टीट्यूट’ बनाने का उनका सपना था। अभय खाखा चाहते थे कि दिल्ली में जैसे दलित अध्ययन के लिये इंस्टीट्यूट है, वैसे आदिवासी अध्ययन के लिये इंस्टीट्यूट बने। वो ऐसा इंस्टीट्यूट बनाना चाहते थे, जो न सिर्फ़ रिसर्च ही करवाए, बल्कि ज़मीनी स्तर पर आदिवासियों से जुड़ा भी रहे। वो तमाम ज़मीनी आंदोलनों से उसे जोड़कर रखना चाहते थे। वो आइडियोलॉजिकल स्ट्रक्चर और ज़मीनी अनुभव और ज़मीनी आंदोलन उससे लिंक करना चाहते थे। 

डॉ. खाखा ने आगे कहा कि अभय सिर्फ़ वैचारिक मुद्दे पर ही नहीं, बल्कि व्यवहारिक मुद्दे और लोगों के संघर्ष के मुद्दे से भी जुड़े हुये थे। इसे वे अपने लेखन के माध्यम से अभिव्यक्त कर रहे थे। अपनी छोटी सी आयु में अभय ने आदिवासी समुदाय में उन्होंने आत्मविश्वास पैदा किया। वह आदिवासियत की बात करते थे। एक दार्शनिक, सामाजिक आर्थिक, राजनीतिक ऐतिहासिक मनोवैज्ञानिक के एक पूर्वग्रह रहता है, हम उसे आदिवासियत ज़मीनी अनुभव के हिसाब से देखने की ज़रूरत है। 

प्रो गोमती हेमब्रोम ने बताया कि अभय खाखा जेएनयू या कहीं किसी के घर में होने वाली कार्यक्रमों ओर छोटी से छोटी सभाओं तक में बहुत मन से शामिल होते थे। वे बहुत ही उर्जावान थे। जोएनयू में बिरसा मुंडा जयंती, आदिवासी दिवस आदि पर वो कार्यक्रम करते थे और तमाम एक्टिविस्ट और विद्वानों को मंच पर ले आते थे। उन्होंने आदिवासी समुदाय के लिये कई समाजिक आंदोलन शुरु किये। आदिवासियत दर्शन उनके दिल के बहुत क़रीब था। 

कार्यक्रम को संबोधित करते प्रो. वर्जीनियस खाखा

कार्यक्रम में प्रो नंदिनी सुंदर ने अभय खाखा को याद करते हुये कहा कि आदिवासी धर्म पर खामोशी क्यों है? आदिवासी धर्म की खासियत और आदिवासियत की खासियत को कैसे मंच पर आगे लाया जाये, वह बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होनें आगे कहा कि अमूमन हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई की बात चलती है, लेकिन आदिवासी समुदाय इतना बड़ा समुदाय है, इसके बावजूद उस पर बात नहीं होती। आस्ट्रेलिया में 46 हजार साल का एक जुक्कान ग़ॉज गुफा, जिसे रियो टिंटो मानाइनिंग कंपनी ने नष्ट कर दी। लोगों की आपत्ति के बाद एक कमीशन बैठी। उस गुफा में पुट्टु कुंटी कुर्रामा और पिनिकुरा दो समुदायाें के लोगों के 4 हजार साल पुराने बालों का एक अवशेष मिल था, वो खत्म हो गया। आदिवासी लोगों के पूर्वजों के निशान और धार्मिक स्थलों को माइनिंग कंपनियां खत्म कर रही हैं। हम इसके ख़िलाफ़ कैसे मोबिलाइज करें। झारखंड में पहाड़ों पर सिगबोंगा देवता पर माइनिंग शुरु हो गई तो वो खत्म हो गया। छत्तीसगढ़ में बेलाडेला है, नियमगिरि पर्वत पर नंदराज है, नियमराजा है, सुरजागढ़ में। माने सारे पाहड़ों पर आदिवासियों के देवता हैं जब पहाड़ों को नष्ट कर दिया जायेगा तो सारा धर्म नष्ट हो जायेगा। इस तरह के मुद्दे अभय खाखा उठाया करते थे। आदिवासी धर्म को कैसे बचाया जाये, इन पर उनका पूरा फोकस होता था। साथ ही आदिवासी और दलित में एकता स्थापित करने का उनका प्रयास था। 

अभय की जीवनसाथी रहीं वाणी खाखा ने कार्यक्रम की शुरुआत में कहा कि अभय के सारी फाइलें मेरे पास थीं। आज वो नहीं है जब उनकी किताब हमारे हाथों में है। उन्होंने आगे कहा कि अभय के पास बहुत बड़ा दिल था, बड़ा दिमाग था, बड़ा विजन था। वो बहुत कुछ करना चाहते थे। मैंने उससे धैर्य रखना, दूसरों के प्रति सम्मान दिखाना, ह्युमर (हर हाल में हँसते रहने) सीखा। 

आदिवासी एक्टिविस्ट, साहित्यकार नीतिशा खलखो ने अभय खाखा को याद करते हुये कहा कि “उनमें एक बहुत अपनापन था। वो बड़े के साथ बड़े और छोटे के साथ छोटे हो जाते थे। ये उनका बहुत स्वाभाविक सा व्यवहार था। मैंने जेएनयू से लेकर आंदोलनों तक में उनकरे साथ रहते हुये सीखा।”

नीतिशा बहुमत के सिद्धांत पर अभय खाखा के वक्तव्य को याद करते हुए कहा कि “वो हमेशा कहते थे कि बहुमत और अल्पमत वाला खेल इस तथाकथित राजनीतिक व्यवस्था के लिय़े ठीक है। लेकिन हम आदिवासी लोगों के बीच क्या मान्यता है कि जब तक एक मुंडी भी हां में न बदल जाये, हम लोग उसे समझाने की कोशिश करते हैं। तो डेमोक्रेसी असल में हमारे पास है, जिससे कि अन्य लोगों को सीखना चाहिये।”

नीतिशा कहती हैं उनसे असहमतियां होती थी उनके साथ लड़ाईयां भी होती थी। और उनकी राय भी लेती, मानती थी। उन्होंने आगे कहा कि “मैंने अपनी पीएचडी का शोध विषय उनके कहने पर व उनके दबाव में चुना। अभय भैय्या ने मुझसे कहा था कि नीतिशा झारखंड में चर्च के जो मैग्जीन छप रहे हैं, उनमें आदिवासी लोग कैसे दिखाई देते हैं। पहले क्या लिखा-पढ़ा जा रहा थ? आदिवासी समुदाय में वो कौन से लोग थे, जिन्होंने लिखा-पढ़ा? चर्च ने कुछ गड़बड़ लिखा है तो उसको खोजो। आदिवासी लोगों ने कुछ अच्छा लिखा है तो उसको खोजो। ‘निषकलंका’ मैगजीन का 100 साल पूरा हो चुका है। पादरी लोग हमारे बारे क्या लिखते हैं? तो मैंने इसे ही अपनी पीएचडी का विषय बनाया कि ‘झारखंड में इसाई पत्रिकाओं का कंटेट क्या है’।” 

नीतिशा खलखो ने अभय खाखा से जुड़ी एक घटना को याद करते हुए कहा कि “हम लोग सेंट जोसेफ कॉलेज, रांची में इंटरव्यू के लिये गये थे। वहां स्थायी पदों के लिये हम लोग शार्टलिस्ट हुये थे वहां पर। लेकिन इंटरव्यू के बाद अभय खाखा का समाजशास्त्र और मेरा हिंदी में चयन नहीं हुआ। और हम लोग वापिस दिल्ली में आकर मिले। अभय भैय्या बोले कि चेयरपर्सन ने उन्हें वहां बोला कि आपका क्वालिफिकेशन हमारे इंस्टीट्यूट के लिये बहुत बेहतरीन है, लेकिन हम लोगों को एकडमिशियन चाहिये एक्टिविस्ट नहीं। हम लोगों को दुख हुआ। जो लोग हमें मंच दे सकते हैं, हमसे लेक्चर दिलवा सकते हैं, लेकिन जब हमारी रोटी की बारी आती है तो वो ख़ौफ़ज़दा माहौल में आकर अपना हाथ पीछे खींच लेते हैं।”  

नीतिशा खलखो ने कहा कि “1871-1941 तक जो जनगणना हुई है, उसमें आदिवासी समुदाय को तीसरी बड़ी समुदाय बताया जाता है। आज़ादी के बाद 1961 में आदिवासी कॉलम ग़ायब करके हमें अन्य या हिंदू या ईसाई में डाल दिया जाता है। तो यह जो अकादमिक बदमाशी हुई है आदिवासियों के साथ, इस पर हमें सोचना होगा। यही अभय भैय्या के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।” 

कार्यक्रम को प्रो मरूना मुर्मू, चित्रांगदा चौधरी, डॉ. विक्तांत भुरिया, पुष्पराज देशपांडे, हेनरी टिफगने, जी. एन. देवी और अनिकेत आगा ने भी संबोधित किया।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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