बात 6 फरवरी, 2010 की है तब मैं अपने इतिहासकार मित्र ओमप्रकाश गुप्ता के साथ दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में घूम रहा था। घूमते-घामते हम ‘महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय’, वर्धा के स्टॉल पर पहुंचे, तो वहां हमें विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय मिल गए। उन्होंने हमें स्टॉल पर बैठा लिया। मैंने उन्हें गुप्ता जी का परिचय कराया। फिर कुछ इधर-उधर की बातचीत के बाद वह मुझसे बोले, कहां ठहरे हो? मैंने कहा- कहीं नहीं। आज ही रात की ट्रेन से वापिस जाना है। वह बोले, आज रात को आप मेरे साथ रुकेंगे और सुबह मेरे साथ वर्धा चलेंगे। मैंने कहा मैं रुकने के हिसाब से आया नहीं हूं, और मेरे साथ मेरे मित्र हैं, उन्हें छोड़ना मुमकिन नहीं है। परंतु, गुप्ता जी ने काम आसान कर दिया। तुरंत बोले– कंवल, तुम चले जाओ। मेरी चिंता मत करो। अब मैं क्या करता। शाम छह बजे तक हम मेले में घूमे, कुछ किताबें खरीदीं और गुप्ता जी को विदा करके मैं राय साहेब के साथ चला गया। हालाँकि इससे पहले मैं कई बार वर्धा यूनिवर्सिटी में व्याख्यान देने गया हूँ, पर आज यह अचानक का जाना गले नहीं उतर रहा था।
लेखक के बारे में

कंवल भारती
कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।