‘जारी रहेगा प्रतिरोध’ (कवि : डॉ. नरेंद्र वाल्मीकि) की भूमिका का अंश
नरेंद्र वाल्मीकि से मिले हुए ज्यादा दिन नहीं हुए, मगर लगता है उनसे परिचय बहुत पुराना है। साहित्य की तरफ उनकी बेचैनी और लगाव ने वक्त के लम्बे आयतन को बहुत छोटा कर दिया है। समर्थ कवि होना बड़ी बात नहीं है, समर्थ मनुष्य होना बड़ी बात है। मेरे जानते ‘नरेंद्र वाल्मीकि’ पहले कवि फिर आलोचक, संगठनकर्ता, शोधकर्ता हैं। ग्राम जेहरा, जनपद सहारनपुर, उत्तर प्रदेश में 3 फ़रवरी 1992 को प्रवेश कुमार और बबली देवी के यहाँ जन्म लेने वाले नरेंद्र वाल्मीकि फिलहाल हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय से पीएचडी शोध के अंतिम पडाव पर हैं। उनकी छवि गंभीर अध्येता की रही है।
इधर जो हिंदी की नई आमद हुई है, उनमें से नरेंद्र ने सबको आकर्षित व प्रभावित किया है। उनमें एक स्पष्ट बेबाकीपन है। यही हाल उनकी कविता में भी कि सधी हुई शैली में बिना किसी लाग लपेट के कठोर से कठोर बात कह जाना है। उनकी कविताओं का एक नया संकलन है– ‘जारी रहेगा प्रतिरोध’। इसमें संकलित एक कविता में वह लिखते हैं–
रोज घटित हो रही अमानवीय घटनाओं पर
कब तोड़ोगे अपनी चुप्पी
जब बंद हो जायेंगे सारे रास्ते
क्या तुम तब खोलोगे अपने होंठ?
आखिर कब करोगे व्यवस्था पर चोट
(‘व्यवस्था पर चोट’ कविता से)
वे आम आदमी की भाषा में आम आदमी के कथन को दर्ज करने के लिए लिखने वाले रचनाकार हैं। उनकी स्फुट रचनाओं से गुजरने का मौका मिलता रहा है। अपनी कुछ चुनिंदा कविताओं के साथ वे फलक पर आए जिसे पाठक समुदाय ने सराहा और हाथों-हाथ लिया। इसकी अगली कड़ी है उनका यह पहला काव्य संग्रह। सहज भाषा और स्पष्ट कथ्य उनकी कविताओं को मारक क्षमता प्रदान करते हैं।
उन्हें नही चाहिए
दलितों के नाम पर
वे साहसी और पढ़े-लिखे
चेहरे जो करते हो
सवाल, कहते हो
‘गाय की पूंछ तुम रखो
हमे हमारे अधिकार दो’।
(‘दलितों के नाम पर’ कविता से )

वंचित तबकों से आने वाले कवि रचनाकारों ने अपनी रचनाओं का विषय सबसे अधिक ‘जाति’ को बनाया है, क्योंकि जाति के कारण उन्हें सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, राजनैतिक, धार्मिक-सांस्कृतिक अपमान झेलने को मजबूर होना पड़ा है। जाति के कारण जो उनकी पहचान बन पायी है, उसी तरह से नकारात्मक व्यवहार उनके साथ देश समाज का रहा है। लेकिन नरेंद्र अब बदलाव की बात करते हैं–
आखिर कब तक
करते रहोगे अमानवीय काम
ढोते रहोगे मलमूत्र
मरते रहोगे सीवरों में
निकालते रहोगे गन्दी नालियाँ
ढोते रहोगे लाशें
आखिर कब तक
सहोगे ये जुल्म
कब तक रहोगे
खामोश ?
(‘आखिर कब तक’ शीर्षक कविता से )
नई पीढ़ियों में सामाजिक रूपांतरण और परिवर्तन की जो बलवती इच्छा दिखाई देती है, उससे नरेंद्र कहीं भी असम्पृक्त नहीं हैं। उनकी यही कामना रही है कि सम्पूर्ण मानवता को उजाले की ओर ले जाना हमारा कर्तव्य होना चाहिए। पूर्वजों की चिंताएं हमारी अपनी चिंताएं होनी चाहिए पर साथ ही हमें बदलावों को भी स्वीकार करते रहना होगा। वे पीढ़ियों के दर्द को महसूस करके लिखते हैं–
मेरे गाँव
का प्रगतिशील व्यक्ति
ऐलान करता है
कि वह जात-पांत
नही मानता है।
………………..
देता है तर्क
अपनी बात को
सिद्ध करने को
कि अब हम साथ में
बैठते हैं, खाते-पीते हैं।
……………………….
मगर
वहीं गाँव में
आज भी मुर्दे
नही जलाए जाते हैं
एक श्मशान में
एक साथ।
…………..
करी गई है
व्यवस्था
अंतिम यात्रा में
भी अलग स्थान की
…………………….
फिर भी
मेरे गाँव का
प्रगतिशील व्यक्ति
इनकार करता है
कि वह जात-पांत
नही मानता है।
(‘ऐलान’ शीर्षक कविता से)
कवि के भीतर एक छटपटाहट है। वे जिस समुदाय से आते हैं, वह समुदाय सदियों से जहालत और मुफलिसी झेलता आ रहा है। लाख चाहने के बावजूद उसकी जिन्दगी की बजबजाती गलियाँ साफ़ और सुंदर नहीं हो पा रही हैं, तो इसपर पुनर्विचार करना होगा कि उसके मूल में आखिर कौन से कारण हैं? क्या हमें डॉ. आंबेडकर की उन उद्घोषणाओं पर ध्यान देने की जरुरत नहीं है कि सामाजिक रूप से घृणित माने जाने वाले व्यवसायों का त्याग करते हुए नए व्यवसाय अपनाने की कोशिश की जाय? यह तय है कि जब तक शम्बूक को न्याय नहीं मिलता, तब तक शम्बूक की हत्या पर बात होती रहेगी। ‘जारी रहेगा प्रतिरोध’ शीर्षक कविता में उनका यही प्रतिरोध दिखाई पड़ता है–
अब हमारे
हाथों में
आई है कलम
लिखने को उत्सुक हैं
तुम्हारी सड़ी-गली
व्यवस्थाओं के दो-मुँहे
चेहरों का सच।
………………….
अब ये कलम
कत्ल करेगी
उन मान्यताओं का
जो आज भी
फैली है कुकुरमुत्तों की
तरह, तुम्हारी शिराओं में।
(‘जारी रहेगा प्रतिरोध’ शीर्षक कविता से)
कवि अपनी कविताओं के माध्यम से यह कहने में सफल हैं कि अपने साहित्य और कलाओं में उसे सचेतक की भूमिका भी निभानी होगी। उत्तरशती के हथियारों में विचार सबसे प्रमुख हथियार हैं। नरेंद्र वाल्मीकि की कविताओं में वंचित समूहों की वह जिजीविषा, वह बेचैनी दिखाई देती है, जिसका निदर्शन अन्यत्र दुर्लभ है। वे अपने वैचारिक गुरुओं, यथा कबीर, रैदास, दीनाभाना, मातादीन, गंगू मेहतर, ओमप्रकाश वाल्मीकि, मलखान सिंह आदि से प्रेरित रचनाओं को सींचने का काम भी कर रहे हैं। अपने महबूब कवि ‘ओमप्रकाश वाल्मीकि’ को कवि ने खूब शिद्दत से याद किया है इस संग्रह में। ‘दंगों के व्यापारी’, ‘नदी’, ‘मातादीन’, ‘जूठन’, ‘अंबेडकर’, ‘हंस चला बगुले की चाल’, ‘व्यवस्था का मारा’, ‘योग्यता पर भारी जाति’ आदि कवितायें दलित साहित्य को और मजबूती देंगी।
बहरहाल, नरेंद्र वाल्मीकि व्यवस्था परिवर्तन के लिए अपनी कविता को हथियार बनाना चाहते हैं। वे जानते हैं कि सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन के परिणाम स्वरूप ही दमित-वंचित समुदाय अपने दायभाग को प्राप्त कर सकता है। उनका स्पष्ट मानना है कि ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का नारा लगाने वालों ने जितना गरीबों को अपमानित और प्रताड़ित किया है, उतना किसी अन्य ने न किया हो। हजारों-लाखों लोग सीवरों का मैला ढोते-ढोते शहीद हो गए, लेकिन देश के लिए किये गए उनके प्रतिदान के लिए देश ने उन्हें कभी भारतरत्न नहीं कहा। उनके सम्मान में वे दो शब्द भी नहीं कहे जो देश के लिए प्राणों का उत्सर्ग करने वालों के लिए कहे जाते हैं। जिन्होंने खुद गंदगी को अपने सिर पर इसलिए लादा ताकि यह कायनात कविता की तरह सुंदर दिखे उनके लिए भी दो शब्द शुक्रिया का नहीं बन पाया उनसे। प्रतिदान में आखिर दिया ही क्या … भूख … लाचारी … मज़बूरी … मानवता को शर्मशार करने वाली कुप्रथाओं का अंत होना ही चाहिए, हमारे समय के कवि नरेंद्र वाल्मीकि की बस यही कामना है। उनका काव्य संग्रह ऐसी ही भावनाओं और सामाजिक परिस्थितियों का समुच्चय है, जो युवाओं में प्रतिरोध की तैयर होती जमीन का द्योतक है।
(संपादन : नवल/अनिल)