डॉ. मोतीरावण कंगाली जयंती विशेष (2 फरवरी, 1949 – 30 अक्टूबर, 2015)
आचार्य मोतीरावण कंगाली गोंडी साहित्य, इतिहास, संस्कृति के लिहाज से प्रकाशपुंज के समान हैं, जिनकी दिखायी रोशनी में गोंड समुदाय के विविध आयामों को विस्तार से जाना जा सकता है। उनका पूरा जीवन गोंडी भाषा, इतिहास, लिपि, पुरावशेषों के लिए समर्पित रहा। मेरी उनसे पहली मुलाकात 1985 में हुई। तब नागपुर में गोंडवाना भवन में एक बैठक हुई थी। ऐसी बैठकें पहले भी होती रही थीं। इन बैठकों में गोंडी भाषा, साहित्य, इतिहास आदि से सरोकार रखनेवाले लोग जुटते थे। सुन्हेर सिंह ताराम जी के संपादन में ‘गोंडवाना दर्शन’ पत्रिका का प्रकाशन भी यहीं से होता था। बैठकों में चर्चा भी यही होती थी कि कैसे हम अपनी संस्कृति और भाषा को बचाए रख सकते हैं और विस्तार कर सकते हैं। दूसरी मुलाकात जो मुझे याद है, वह 1988 में चंद्रपुर जिले के भद्रावती गांव में आयोजित गोंडी साहित्य सम्मेलन के दौरान हुई। भद्रावती मेरा मायका है। उस मौके पर कंगाली भाऊ को मैंने विस्तार से जाना और समझा।
कंगाली भाऊ की खासियत यह थी कि उन्होंने गोंडी भाषा, इतिहास और संस्कृति को एकदम जड़ से समझा और लोगों को बताया। वह उन गिने-चुने लोगों में रहे, सिंधु सभ्यता की लिपियां जो हमारे गोंडवाना के पहाड़ों में बने गुफाओं में चित्रलिपि के रूप में आज भी दर्ज हैं, समझते थे। उन्होंने यह स्थापित किया कि सिंधु सभ्यता हमारी अपनी सभ्यता है। उसकी चित्रिलिपि हम गोंड समुदाय की लिपि है। सबसे महत्वपूर्ण यह कि कंगाली भाऊ के अध्ययन व उनके निष्कर्षों का किसी ने विरोध नहीं किया। इसकी वजह यह रही कि भाऊ ने कभी कोई बात बिना किसी प्रमाण के नहीं कही। जो उन्हें अपने शोध के दौरान मिला, उसे ही लिखा और लोगों को बताया। इसके लिए वह जंगलों और पहाड़ों में जाते रहते थे।
भाऊ एकदम सहज रहनेवाले इंसान थे। हमेशा मुस्कुराते रहते थे। वे कलाकार थे। ढोल बजाते और गोंडी गीत भी गाते। वे हमेशा कहते कि यह जीवन गोंडी भाषा के लिए है और इसका हरपल उपयोग मैं इसी उद्देश्य से करना चाहता हूं। सुरों को लेकर भी उनकी समझ बहुत अच्छी थी।
गोंडी भाषा के इतिहासकार, व्याकरणकार के अलावा कंगाली भाऊ भारतीय रिजर्व बैंक में बड़े अधिकारी थे। लेकिन उन्हें अहंकार नहीं था। वह ‘मैं’ की भाषा में बात नहीं करते थे। वह हमेशा ‘हम’ कहते और जब कहते तो लगता था कि वह पूरे समुदाय की तरफ से बोल रहे हैं। मुझे एक घटना की याद आ रही है। मैं अपने जीवनसंगी सुन्हेर सिंह ताराम जी के साथ एक बार उनके घर गयी। वहां भाऊ अपनी चप्पल ठीक कर रहे थे। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि इतने बड़े अधिकारी और इतने बड़े इतिहासकार अपनी चप्पल खुद क्यों ठीक कर रहे हैं। लेकिन यह भाऊ की खासियत थी कि वे कभी भी अपना काम दूसरों से नहीं कराते थे। यहां तक कि घर में राजमिस्त्री से लेकर बढ़ई तक का काम वह खुद करते थे। उनके घर में ये सारे औजार होते थे।
व्यक्तिगत रूप से यदि मैं अपनी बात कहूं तो मेरे जीवन पर उनका बहुत प्रभाव रहा है। मेरी दिलचस्पी साहित्य में थी। लेकिन मैं मराठी में लिखती थी। एक बार मैंने अपनी कविताएं मराठी में लिखकर उन्हें दिखाने गयी। बात 1993 की है। तब उन्होंने कहा कि मुझे गोंडी भाषा में लिखना चाहिए। तो मैंने कहा कि मुझे गोंडी नहीं आती है। तब एक सप्ताह तक मैं, ताराम जी के साथ उनके घर पर रही। इस दौरान कंगाली ताई (चंद्रलेखा कंगाली), भाऊ और ताराम जी ने मिलकर न केवल मेरी कविताओं का गोंडी में अनुवाद किया, बल्कि मुझे गोंडी सिखाया भी। इन सभी के प्रयास से गोंडी भाषा में मेरी पहली कृति ‘मोटियारन’ प्रकाशित हुई।
भाऊ एकदम सहज रहनेवाले इंसान थे। हमेशा मुस्कुराते रहते थे। वे कलाकार थे। ढोल बजाते और गोंडी गीत भी गाते। वे हमेशा कहते कि यह जीवन गोंडी भाषा के लिए है और इसका हरपल उपयोग मैं इसी उद्देश्य से करना चाहता हूं। सुरों को लेकर भी उनकी समझ बहुत अच्छी थी।
गोंडी भाषा के इस महान अध्येत्ता ने समाज को प्रामाणिक इतिहास से लेकर व्याकरण तक सबकुछ दिया। लेकिन उनके योगदानों को लेकर सरकारें उदासीन रही हैं। उन्हें कोई शासकीय सम्मान नहीं दिया गया। जबकि वे पद्म विभूषण और भारत रत्न जैसे सम्मान के हकदार रहे। मुझे लगता है कि इसके पीछे एक ही वजह है। यह वजह यह कि हम आदिवासियों के प्रति सत्ता में बैठे लोगों की हेय दृष्टि है, जो यह समझते हैं कि हमारी अपनी कोई भाषा नहीं है, साहित्य नहीं है, संस्कृति नहीं है, इतिहास नहीं है। जबकि गोंड समुदाय के इस महान पुरखे ने अपने जीवन में सबकुछ प्रमाण के साथ लाकर हमारे सामने रख दिया।
(संपादन : नवल/अनिल)