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1886 का उड़ीसा अकाल और त्रासदियों का यथार्थपरक विश्लेषण

सबसे गंभीर प्रभावितों को भोजन उपलब्ध करवाने वाले केंद्रों में शरण लेनी पड़ी, जहां वे औपनिवेशिक प्रशासन और परोपकारी संस्थारओं की मदद से जिंदा भर रह सके। उनमें से कुछ को तो उनकी जाति से बाहर कर दिया गया, क्योंकि उन्होंने अन्य जातियों के लोगों के साथ भोजन किया था। बिद्युत मोहंती की पुस्‍तक 'ए होन्‍टिंग ट्रेजेडी' की ज्यां द्रेज द्वारा समीक्षा

पुस्तक समीक्षा

बहुत समय नही गुज़रा जब भारत में अकाल में स्‍थानीय आबादी का एक-तिहाई हिस्‍सा काल कवलित हो जाता था। सन् 1866 में उड़ीसा में एक भयावह अकाल पड़ा था। वह एक ‘होन्‍टिंग ट्रेजेडी’ (लम्‍बे समय तक याद रहने वाली त्रासदी) थी। और यही बिद्युत मोहंती की इस विषय पर‍ लिखी गई विचारोत्‍तेजक पुस्‍तक का शीर्षक है।

19वीं सदी के इस व अन्‍य अकालों के बारें में ढेर सारे ऐतिहासिक अभिलेख उपलब्‍ध हैं। परंतु वे धूल-धूसरित पुस्तकालयोंऔर दुरूह अभिलेखागारो में बिखरे हुए हैं। बिद्युत मोहंती ने 1866 के अकाल के संबंध में तथ्‍यों को इकट्ठा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस पुस्‍तक में उन्होंने इस घटना (जिसे वे प्रक्रिया कहतीं हैं) का पैना व सूक्ष्‍म विवरण प्रस्तुत किया है। इसके साथ ही उन्होंने उड़ीसा में इसके बाद पड़े अकालों का विश्लेषण भी किया है। 

अकाल का समाज के विभि‍न्‍न तबकों पर अलग-अलग असर पड़ना स्‍वाभाविक है। यह पुस्‍तक अकाल के लैंगिक, जातिगत और वर्गीय आयामों पर विस्‍तार से प्रकाश डालती है। जैसी कि हम अपेक्षा कर सकते हैं, भुखमरी के सबसे ज्‍़यादा शिकार श्रमिक वर्ग और दमित जातियों के लोग हुए। सबसे गंभीर प्रभावितों को भोजन उपलब्ध करवाने वाले केंद्रों में शरण लेनी पड़ी, जहां वे औपनिवेशिक प्रशासन और परोपकारी संस्थारओं की मदद से जिंदा भर रह सके। उनमें से कुछ को तो उनकी जाति से बाहर कर दिया गया, क्योंकि उन्होंने अन्य जातियों के लोगों के साथ भोजन किया था। इन जातिच्‍युतों ने अपनी एक अलग जाति बना ली, जिसे छत्राखिया कहा जाता हैं। यह जाति अब भी अस्‍तित्‍व में है। दुर्भिक्ष से गंभीर रूप से प्रभावित लोगो के साथ जो व्‍यवहार हुआ, वह जाति प्रथा के निष्‍ठुर चरित्र को जाहिर करता है।

सन् 1866 के उड़ीसा अकाल की एक झलक; ‘ए होन्‍टिंग ट्रेजेडी’, बिद्युत मोहंती, रटलेज, 2021.

यह पुस्तक अकाल के लैंगिक आयाम पर विशेष ध्यान देती है। इस सन्दर्भ में मोहंती कई स्थापित मान्यताओं को चुनौती देतीं हैं। इनमें यह मान्यता शामिल है कि अकाल में महिलाओं की मृत्यु दर में वृद्धि, पुरुषों की तुलना में कम होती है। आकंड़ों और पूर्व अध्ययनों के विस्तार से विश्लेषण से वह इस निष्कर्ष पर पहुंचतीं हैं कि ऐसा हमेशा नहीं होता और यह अक्सर स्थितियों पर निर्भर करता है। अकाल के कारण आबादी का पुरुष : महिला अनुपात बढ़ भी सकता है और नहीं भी। यह अनेक कारकों पर निर्भर करता है, जैसे पुरुष और महिलाएं किस हद तक अकाल से जुड़े विभिन्न रोगों के शिकार होते हैं। अगर पुरुष और महिला अनुपात बढ़ता भी है तो इसका कारण यह भी हो सकता है कि महिलाओं और पुरुषों के अकालग्रस्त क्षेत्र से पलायन की दर में अंतर हो। 

अकाल के कई आयाम होते हैं। यह ज्ञानवर्द्धक अध्ययन हमें बताता है उनकी उत्पत्ति और प्रभाव, जिन्हें हम जितना समझते हैं, उससे कहीं अधिक जटिल होते हैं। अकालों के दौरान के घटनाक्रम को ध्यान से देखने और यह समझने से कि वे आबादी के विभिन्न तबकों को कैसे प्रभावित करते हैं, हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। जैसा कि लेखिका ने भी कहा है, इससे हम यह सुनिश्चित भी कर सकते हैं कि इस तरह की त्रासदियां भविष्य में न हों।  

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

ज्यां द्रेज

ज्यां द्रेज बेल्जियन मूल के भारतीय नागरिक हैं और सम्मानित विकास अर्थशास्त्री हैं। वे रांची विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के अतिथि प्राध्यापक हैं और दिल्ली स्कूल आॅफ इकानामिक्स में आनरेरी प्रोफेसर हैं। वे लंदन स्कूल आॅफ इकानामिक्स और इलाहबाद विश्वविद्यालय में शिक्षण कार्य कर चुके हैं। भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की स्थिति के दस्तावेजीकरण में उनकी महती भूमिका रही है। वे (महात्मा गांधी) राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के प्रमुख निर्माताओं में से एक हैं। उन्हाेंने नोबेल पुरस्कार विजेता अर्मत्य सेन के साथ कई पुस्तकों का सहलेखन किया है जिनमें ‘हंगर एंड पब्लिक एक्शन‘ व ‘एन अनसरटेन ग्लोरी : इंडिया एंड इटस कोन्ट्राडिक्शंस‘ शामिल हैं। सामाजिक असमानता, प्राथमिक शिक्षा, बाल पोषण, स्वास्थ्य सुविधाओं व खाद्य सुरक्षा जैसे विषयों पर शोध में उनकी विशेष रूचि है

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