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‘तब जब राहुल सांकृत्यायन ने मुझसे कहा– अपनी कविता फिर से सुनाओ’

बिहार विधान परिषद के सदस्य रहे बाबूलाल मधुकर अपने मगही उपन्यास ‘रमरतिया’ और ‘अलगंठवा’ चर्चित रहे। मगही में उनका एकांकी संकलन ‘नयका भोर’ और मगही महाकाव्य ‘रुक्मिणी की पांती’ प्रकाशित है। हिन्दी में उनके दो काव्य संग्रह ‘अंगुरी के दाग’ और ‘मसीहा मुस्कुराता है’ नाम से प्रकाशित है। उनसे विशेष बातचीत की है युवा साहित्यकार व समालोचक अरुण नारायण ने

मगही-हिंदी के रचनाकार व राजनेता बाबूलाल मधुकर से साक्षात्कार

बिहार के नालंदा जिले के ढेकवाहा गांव में 31 दिसंबर, 1941 को जन्मे बाबूलाल मधुकर की पहचान मगही और हिन्दी के उपन्यासकार एवं कवि के रूप में मकबूल रही है। उन्होंने 1958 में नेताजी सुभाष हाईस्कूल, इस्लामपुर (नालंदा) से मैट्रिक किया और पटना काॅलेज, पटना से इतिहास में स्नातक। विशारद, साहित्य रत्न एवं साहित्य अलंकार की भी शिक्षा पाई। बिहार विधान परिषद के सदस्य भी रहे। उनके मगही उपन्यास ‘रमरतिया’ और ‘अलगंठवा’ चर्चित रहे। मगही में उनका एकांकी संकलन ‘नयका भोर’ और मगही महाकाव्य ‘रुक्मिणी की पांती’ प्रकाशित है। हिन्दी में उनके दो काव्य संग्रह ‘अंगुरी के दाग’ और ‘मसीहा मुस्कुराता है’ नाम से प्रकाशित है। हिन्दी में अभी तीन खंडों में उनकी आत्मकथात्मक कृति– ‘नंदलाल की औपन्यासिक जीवनी’ प्रकाशित हुई है। संप्रति वे मक्खलि गोसाल पर एक उपन्यास लिखने में लगे हैं। उनसे विस्तृत बातचीत की है युवा साहित्यकार व समालोचक अरुण नारायण ने।

आप अपने आरंभिक जीवन परिवेश के बारे में बताइए?

एक अति साधारण परिवार में मेरा जन्म हुआ। पिताजी चटकल में बोरा बिनते थे। मां घर पर रहती थीं। वह कैथी (लिपि) जानती थीं। मुझे उन्होंने ही कैथी सिखाई थी। हमारी कुछ पुश्तैनी जमीन थी जिसे बाबूजी ने कुछ पासी, माली के कुछेक लोगों और एक गरीबन गोप को दे दिया। उनका मकान नहीं था, बाढ़ मे दह जाता था। मेरा संघर्ष जन्मजात था। मैं बचपन से नास्तिक प्रवृति का था। मेरे मां-पिता आस्तिक थे। भैया 1939 में मिडिल स्कूल में प्रथम आये थे। पिताजी जब कलकत्ता से आये तो मुझसे कहा– चलो कलकत्ता, अच्छी नौकरी दिलवा देते हैं। उस समय मैं आठ-नौ वर्ष का था। मां ने कहा कि मेरा बेटा गुलामी नहीं करेगा। पिताजी मां से लड़ झगड़कर कलकत्ता चले गए। भैया सुभाष बाबू के आंदोलन में सम्मिलित हो गए और मैं पाठशाला में जाने लगा। लेकिन पाठशाला जाना एक बहाना था। गांव में बहुत-सी लड़किया बकरी चराती थीं, मैं भी उन्हीं के साथ सम्मिलित होता। चाचा से बकरी भी खरीदवा ली थी। इसी बीच पिताजी आये कलकत्ता से। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या पढ़ रहे हो। हमको तो कुछ आता नहीं था। भैया ने कहा कि गंगा गुरुजी के पास जाता है। उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा कि यह तो कभी स्कूल आता ही नहीं, झूठ बोलता है। पिता ने मुझे समझाया। भैया शाम को स्वयं पढ़ाने बैठे और मैं छह माह में तीसरी पास कर गया।

यह कैसे हुआ?

उस समय के स्कूल इंस्पेक्टर घोड़ा पर चढ़कर स्कूल निरीक्षण करने आये थे। उन्होंने मुझसे फुुटहारा पूछा। मुझे वह कंठस्थ था, उन्हें सुना दिया। उन्होंने पिता, दादा परदादा तक का नाम पूछा। हम दादा तक का नाम जानते थे, लेकिन आत्मविश्वास इतना तगड़ा था कि उससे आगे तक की पीढ़ी का नाम बेझिझक बतला दिया। दरअसल, मुझे गांव के जिन लोगों के नाम याद आये, उन्हें ही गिना दिया। स्कूल इंस्पेक्टर ने हमारे प्रिंसिपल को गुड़ेड़ते हुए कहा इस लड़के को पहली कक्षा में ही क्यों रखे हुए हो, इसे तीसरी पास का सर्टिफिकेट बनाओ।

कैसा रहा स्कूली जीवन का अनुभव? 

मेरा स्कूली जीवन काफी रोचक और दिलचस्प रहा। मिडिल स्कूल में लक्ष्मी नारायण यादव हमारे हेडमास्टर थे। वह बहुत बिगड़ैल थे। लड़कों को खूब पीटते थे। हमारी काव्य प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्होंने मुझे माॅनिटर बना दिया। चौथी से सातवीं तक हम प्रथम आये। 1954 में मैं उसी सुभाष हाईस्कूल, इस्लामपुर से मैट्रिक किया। बाद में पटना कालेज में नामांकन हुआ। मैट्रिक का जो प्रश्नपत्र आये उसमें हाइड्रोजन की जगह हमने हाइड्रोसील पढ़ लिया और उसी पर उतर पुस्तिका में लिखा। हालांकि हम प्रथम डिविजन में उत्तीर्ण हो गए। पटना कालेज, पटना में 1958 में नामांकन हुआ। इतिहास ऑनर्स में बीए किया। मां ने सिखाया था कि नौकरी करनी नहीं है, क्योंकि वह गुलामी है, इसलिए आगे की शिक्षा के लिए इलाहाबाद चला गया। वहीं से विशारद और साहित्य रत्न की पढ़ाई की फिर देवघर से विद्यालंकार की शिक्षा पाई।

बाबूलाल मधुकर की तस्वीर

लिखने-पढ़ने की अभिरुचि कैसे पैदा हुई?

हमारा जीवन संघर्षमय रहा। बचपन से ही कुछ-न-कुछ लिखते ही थे। मिडिल स्कूल की कक्षाओं में मैं अव्वल आता तो अपने साथियों से जातिगत ताने सुनने को मिलते। इसी द्वंद्व में हमने एक कविता लिखी– “घमंड न करना सिखो, ऐसा जो करते हैं/हरदम पढ़ने-लिखने में पिछड़ते हैं।” उस समय के हमारे हेडमास्टर बंगाली बाबू मेरी इस कविता से बहुत प्रसन्न हुए। इस तरह से लिखते रहे। सुभाष हाईस्कूल में भी लिखने का सिलसिला जारी रहा। नौवीं कक्षा में थे तो सरस्वती जी पर एक कविता लिखी। इसकी प्रेरणा निराला की एक कविता से मिली। उसका संशोधन डाॅ. श्यामनंदन शास्त्री ने किया। उन दिनों की चर्चित पत्रिका ‘किशोर’ में वह कविता बाबूलाल के नाम से छपी। कविता का शीर्षक था– ‘शारदे वर दे’। पत्रिका स्कूल में साधोलाल हेडमास्टर के टेबुल पर गई। उसपर 5 रुपया का पारिश्रमिक भी आया। उन्होंने मुझे बुलाया और सारे इस्लामपुर में इसकी चर्चा हो गई। उसी समय से मैं कविजी के नाम से चर्चित हो गया। हमारे स्कूल की प्रार्थना में वही कविता का रोज पाठ आरंभ हो गया। 

नियमित रूप से छपने का सिलसिला कब से शुरू हुआ?

उन दिनों ‘जनशक्ति’ में मगही हिन्दी दोनों भाषाओं में लिखता था। नागार्जुन और राजकमल चौधरी की रचनाएं तब ‘जनशक्ति’ में नियमित रूप से छपती थीं। उन्हीं दिनों उस अखबार में मेरी एक मगही कविता “हम रोव ही ओकरे तु गीत कह हअ/मैदान से भागल के गीत कह हअ” छपी। इसके पहले इन दोनों लेखकों से मेरा प्रत्यक्ष परिचय नहीं था। उन्होंने इस कविता को पढ़कर मुझसे मिलने की इच्छा जाहिर की। उन दिनों मैं पटना काॅलेेज का विद्याार्थी था। मुझे बुलाया गया। देखा तो कहा कि यही है बाबूलाल। एक ओर नागार्जुन थे और दूसरी ओर राजकमल। दोनों ने मुझे छाती से लगा लिया। फिर मुझे बोल्गा होटल ले गए और भरपेट कचैड़ी-जलेबी खिलाई। अंसारी हाॅस्टल में रहता था तब। टयूशन करवाता था। अंसारी, लाॅ और हथुआ हाॅस्टल के पास ही था। एक समय ऐसा आया जब लगा पटना रहना संभव नहीं होगा। हाॅस्टल के पास धोबी बहुत थे। उनसे ही संपर्क किया। वहां 20 कपड़ों के सेट को एक कौड़ी कहा जाता था। 4 बजे भोर में काम करने की शर्त पर उनके यहां मुझे काम मिल गया। मैं हर रोज भोर में ही कपड़ा धो देता। इससे डेढ़ रुपये रोजाना मिल जाते थे। एक दिन भोर में कपड़ा धो रहे थे। धोबी की पत्नी खाना लेकर आयी। उस धोबी ने गर्म खिचड़ी खाई और इसी क्रम में उसका मुंह पूरी तरह जल गया और हाॅस्पिटल जाते-जाते उसका निधन हो गया। इस घटना के बाद धोबी घाट भी छूट गया। उन दिनों पटना कालेज के हेड शिवनंदन बाबू थे, लेकिन अब नलिन विलोचन शर्मा हो गए थे। उन दिनों उनके संपादन में काॅलेज से एक मैगजीन निकलती थी। उसमें मेरी एक कविता छपी ‘हंसो मत गगन के सितारों’। उन्होंने कहा कि बड़ा तेवर का लड़का लगता है। हम अपने मित्र राव रणविजय और बढहि़या के विजय के साथ नलिन जी से मिले। नलिनी जी ने कहा कि जो कविता आपने लिखी है, बहुत अच्छी है। क्या करते हैं? हमने अपनी सच्चाई उन्हें बतला दी। उनसे कहा कि किसी तरह टयूशन करके गुजारा होता है। उन्होंने सिगरेट की पन्नी पर शिवपूजन सहाय को लिखा। तब वे राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक थे। उन्होंने उनसे मिलने को कहा। मैं उछल पड़ा। शिवपूजन सहाय की कहानी पढ़ चुका था। उन दिनों राष्ट्रभाषा परिषद का दफ्तर मुसल्लहपुर में था। वहां पहुंचा तो शिवजी को देखकर लगा कि यह तो काई पटवारी है। डेस्क सामने रखकर टोपी पहनकर लिख रहे थे। गांव के पटवारी लग रहे थे। उनका पांव छुआ। उन्होंने कहा, ‘रउआ कउन बा, कहां से आइल बा।’ 

‘नलिन जी भेजलें बा।’ कहा- रउआ गांव जाइला। जाइला लिखत बानी। सुनाई न बबुआ। ‘हम रोबही ओकरे तू गीत कह हअ’। हर स्टेंजा दो-तीन बार सुनाया। उनके पास ही चादर ताने एक व्यक्ति लेटे हुए थे। राजेंद्र नगर स्टेडियम उस समय बन रहा था। अचानक उठ गये। फिर से सुनाने को कहा। वह राहुल सांकृत्यायन थे।

नागार्जुन और राजकमल चौधरी के बाद पटना का साहित्यिक परिदृश्य कैसा रहा?

हमारी पीढ़ी आई नकेन के बाद। इसके पहले निराला ने यह घोषित कर दिया था कि छंद में ही कविता बंधी नहीं रह सकती। वह धारा उन्हीं की घोषणा के बाद फुट चुकी जो अभी तक विद्यमान है और मेरे जैसा आदमी उसी में घुलता मिलता रहा। फिर आया राजकमल का दौर। उन दिनों राजकमल ‘मुक्ति प्रसंग’ के कारण चर्चाओं में थे। वे हास्पिटल में भर्ती थे। लगभग मरणासन्न। उन्हें देखने के लिए अज्ञेय आये थे। उन्होंने कहा कि तुम्हें बचना चाहिए। तू अपने को क्यों मार रहे हो। राजकमल ने माथे के पास से ‘मुक्ति प्रसंग’ निकाला और अज्ञेय को दिया। उसकी एक प्रति मुझे भी दी। कहा तुम छोटे भाई हो। राजकमल के मरने के बाद उनपर बहुत सारे अंक निकले। उनका जुड़ाव हंगरी पीढ़ी से था, जो व्यवस्था को नहीं मानते थे। उनके साथ मैं भी कलकता गया। एकबार दरभंगा गया था राजकमल के साथ। उनके पिता नवादा में हेडमास्टर थे। 

उनके बाद रामवचन राय के संपादन में एक पत्रिका निकली। उनके साथ पटना में उनके क्लासफेलो रहे राव रणविजय सिंह भी शामिल थे।पत्रिका का नाम था ‘टटकी कविता’। इसमें राजकमल चौधरी, डाॅ. कुमार विमल, हमारी और राव रणविजय सिंह की भी कविता निकली। हमारी कविता ‘बेगुनाहों के गीत’ की दक्षिण भारत में बहुत चर्चा हुई। हालांकि दो-तीन अंक के बाद उसका प्रकाशन बंद हो गया। तब तक वे पटना काॅलेज छोड़ चुके थे।

बिहार विधान परिषद का अनुभव कैसा रहा, जनता पार्टी में तब और कौन-कौन से लोग उच्च सदन में आये?

हमारे साथ सियाराम तिवारी, पोद्दार रामावतार अरुण और उपेंद्र महारथी भी आये। छूट गये बाबूलाल मधुकर। तब कर्पूरी जी से जेपी और चंद्रशेखर ने कहा कि बाबूलाल मधुकर को असेम्बली कोटा से लड़ाईए। हमको 25 वोट आ गया और 1978 में मैं एमएलसी बन गया। जिस उद्वेश्य से जनता पार्टी का निर्माण हुआ था, वह कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा था। यहां भी कांग्रेस की तरह ही वही जातिवाद और गुटवाद खुलकर सामने आ गया। बल्कि यह पहले से और ज्यादा बढ़ा हुआ दिखलाई पड़ने लगा। लोगों ने सेवा के बदले रिश्वत लेना शुरू किया। कपिलदेव सिंह ने सदन में बोला था कि कलक्टरी में उन्हें पांच रुपया घूस देना पड़ा, तब उनका काम हुआ, जबकि वह मंत्री थे।

कमिटियों में पहले यह परम्परा थी कि जिनको कार रहता था, गांव से मुख्यालय तक की दूरी का पांच रुपया किलोमीटर की दर से मिटिंग अटेंड करने का भाड़ा मिलता था। अब सदस्यों ने इस पैसे को भुनाने के लिए दूसरे के कार का नंबर देकर नेपाल के बाॅर्डर से ट्रेवलकार्ड पेश कर पैसा वसूलने लगे। मुंशीलाल राय ओरिजनल समाजवादी लीडर थे। उन्होंन इस सवाल को बहुत प्रमुखता के साथ उठाया। कर्पूरी जी से लड़े भी।

कर्पूरी जी को आपने पहली बार कब और कहां देखा?

एक बार गांधी मैदान में लोहिया जी का भाषण था। उनको सुनने के लिए राव रणविजय सिंह, दूधनाथ राम और विजय कुमार सिंह के साथ मैं भी उपस्थित हुआ। लोहिया के भाषण से हम मोहित हो गए। यह चीन से भारत की पराजय के बाद का समय था। लोहिया ने कहा कि हम हिन्दुस्तान के पीएम नेहरू को कहते हैं कि अरुणाचल प्रदेश पर चीन धावा बोल रहा है, और वह कहता है कि पथरीली है, पहाड़ी एरिया है उसपर इतना परेशान क्यों हों? मैं पूछना चाहता हूं बेहूदे प्रधानमंत्री से कि तुम्हारे माथे पर केस नहीं है, फिर भी वह तुम्हारा माथा है कि नहीं? बोलो, अरुणाचल तुम्हारी भारत माता है कि नहीं। उनका भाषण सुनकर मैं मंच पर चढ़ गया। उनसे हाथ मिलाया। उन्होंने सुबह सर्किट हाउस में बुलाया। मैं राव रणविजय सिंह के साथ सुबह सर्किट हाउस पहुंचा। वहां कर्पूरी ठाकुर और भोला सिंह पहले से विराजमान थे। लोहिया जी का पैर छुना चाहा तो बिगड़ गए। लोहिया जी ने कर्पूरी ठाकुर के बारे में कहा कि इसपर बहुत उम्मीद है, यह जात का नाई है। लेकिन यह व्यक्ति निडर नहीं है। यह आज भी उच्च वर्ग के लोगों का सहयोगी बना हुआ है। पता नहीं यह क्या कर सकेगा। फिर उन्होंने भोला सिंह की ओर मुखातिब होते हुए कहा कि यह कुर्मी बन रहा है इसकी मां कहारिन है। तो बिहार में यह स्थिति है। जातिवाद कैसे टूटेगा, जमींदारी कैसे टूटेगी? कर्पूरी जी से हमारी यह पहली भेंट थी। लोहिया जी ने हमसे कविता सुनी। उसके बाद कर्पूरी जी से परिचय का सूत्र गहराता ही चला गया। एकबार की घटना है तब वह मुख्यमंत्री थे। बेली रोड में उनका बड़ा-सा क्वार्टर था, नौकर चाकर थे। एक सुबह हमारे दरवाजे पर किवाड़ पर दस्तक हुई। खोला तो देखा कर्पूरी जी खड़े हैं। मैंने कहा, ‘इतनी सुबह?’ तो कहने लगे कि, ‘इधर ही आये थे तो सोचा आपसे मिलता चलूं।’ हमने डेढ़ किलो पेड़ा उनके सामने प्रस्तुत कर दिया। उन्होंने सब हजम कर लिया। उन्होंने कहा, ‘चलिये चलते हैं रामलखन सिंह यादव के पास।’ उन्होंने देखते ही कहा, ‘कवि जी इतनी सुबह?’ फिर कर्पूूरी जी पर उनकी नजर पड़ी। उन्होने शीशे के दो लंबे गिलास में गर्म-गर्म दूध मंगवाया। हमने यह कहते हुए हाथ जो़ड़ लिया कि अभी मुंह-कान नहीं धोये हैं जबकि कर्पूरी जी दोनों गिलास दूध तान गये।

एक और घटना की याद हमें आ रही है। हम ‘अंग्रेजी हटाओ’ के अध्यक्ष चुने गए थे। इसका पूरे देश में शोर हुआ। इसके लिए कर्पूरी जी ने भी हमें बधाई दी। एक और घटना की याद आ रही है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से केसरी कुमार के साथ ही हम भी अंग्रेजी में लगे नेम प्लेट को काला कर रहे थे। यह करते हुए जुलूस विधानसभा पहुंची। अंग्रेजी हटाने का मेमोरेंडम दिया और उसी दिन कर्पूरी ठाकुर कैबिनेट की ओर से यह निर्णय जारी कर दिया गया कि जो अंग्रेजी में फेल करेगा तो भी पास माना जाएगा। इसके लिए हमलोेगों ने उन्हें बधाई दी। एक और प्रसंग की याद है। विधान परिषद की मेरी सदस्यता अवधि पूरी होने ही वाली थी। हम राव रणविजय सिंह के साथ घुमते हुए उनके आवास पर पहुंचे तो देखा कि वे पावरोटी धसोड़ रहे हैं बिना मक्खन के ही। उन्होंने पूछा, ‘क्या मधुकर जी?’ हमने कहा कि, ‘सर आपने छह वर्ष तक खिलाया पिलाया। हमारा टर्म पूरा हो रहा है। एक बार और मौका दीजिए।’ उन्होंने इसपर अपनी असमर्थता प्रकट की और कहा कि हमने मंजयलाल को ओके कर दिया है। वह स्वतंत्रता सेनानी रहा है और जब हमने उसे कह दिया तो अब अपने वचन से पीछे कैसे हट सकते हैं।

आगे और क्या सब लिखने-पढ़ने की योजना है?

आगे भी लिखने पढ़ने का ही काम करना है। मेरे लिए इसके सिवा कोई और काम है भी नहीं। फिलहाल एक-दो महाकाव्य लिखने का इरादा है जिसमें से एक मक्खलि गोसाल पर फोकस होगा।

(संपादन : नवल / अनिल)

(आलेख परिवर्द्धित : 4 मार्च, 2022 05:05 PM)


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लेखक के बारे में

अरुण नारायण

हिंदी आलोचक अरुण नारायण ने बिहार की आधुनिक पत्रकारिता पर शोध किया है। इनकी प्रकाशित कृतियों में 'नेपथ्य के नायक' (संपादन, प्रकाशक प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, रांची) है।

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