h n

सरकारी दावों की पोल खोलती बनारस में सफाईकर्मियों की एक बस्ती

जब भी कभी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बनारस के दौरे पर आतें है तो बस्ती के लोग जो सफाईकर्मी हैं, उनकी ड्यूटी दोगुनी कर दी जाती है। इतना काम करने के बावजूद उन्हें अभाव में जिंदगी गुजारनी पड़ती है। सफाईकर्मी होने के कारण उन्हें एक सम्मान की जिंदगी भी नसीब नहीं होती है और अक्सर उन्हें उपेक्षित नज़र से देखा जाता है। बता रही हैं आकांक्षा आजाद

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में चौकाघाट स्थित नक्खी घाट सफाईकर्मी समुदाय के लोगों की बस्ती है। इसमें डोम, चमार व वाल्मीकि जाति के लोग है। इस बस्ती में कुल 70-75 परिवार रहतें है, जिनमें शत -प्रतिशत घरों के आय का स्रोत सफाई का काम ही है। 

अभी पिछले ही साल 29 नवंबर को बनारस के लहुराबीर इलाके में सीवर में सफाई करते हुए में एक सफाईकर्मी नवाब आरिफ की मौत हो गयी थी। वह मूलत: बंगाल के मालदा का रहनेवाला था। प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं जब वह अंदर नाले में घुसा, तब गंदे पानी का सप्लाई लाइन बन्द था। लेकिन लापरवाही की वजह से सप्लाई लाइन शुरू हो गया, जिसमें बहकर उसकी मौत हो गयी। 

बस्ती के सफाईकर्मियों के अनुसार उन्हें बेहद दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। सीवर की सफाई के दौरान भी स्थानीय प्रशासन द्वारा उन्हें किसी भी प्रकार का सुरक्षा उपकरण नहीं देते जिससे हमेशा उनकी जान जाने का खतरा रहता है। रोजगार के अन्य विकल्प नहीं होने के कारण मजबूरी में उन्हें यह काम करना पड़ता है। 

बस्ती में 15-20 परिवारों के सफाई कर्मचारी ही ऐसे हैं जिनकी सेवा राज्य सरकार के अधीन और स्थायी है। शेष सभी अलग-अलग एजेंसियों के कर्मी हैं। स्थायी कर्मियों की संख्या धीरे-धीरे कम की जा रही है। प्राइवेट एजेंसियां ठेकेदारों के माध्यम से काम कराती हैं। अगर कोई सफाई कर्मी किसी भी तरह की शिकायत करता है तो उसे काम से बाहर निकाल दिया जाता है। अगर सीवर की सफाई के दौरान किसी की मौत हो जाती है तब भी कोई खास मुआवजा नहीं दिया जाता है। 

बनारस में विषमतम परिस्थितियों में काम करता एक सफाईकर्मी

सफाईकर्मियों की इस बस्ती की बात करें तो यहां की हालत दयनीय है। यह बस्ती रेलवे की जमीन पर बसी है, जिसपर यह सभी तीन-चार पीढ़ियों से अपने टूटे-फूटे अस्थाई घरों में रहते हैं। उनके घरों से 10 मीटर के दूरी पर ही रेलवे ट्रैक है, जिसपर दिन-रात ट्रेनें दौड़ती रहती हैं। रेलवे की जमीन होने के कारण लगातार बस्ती को हटाया जाता रहता है। अभी तो कई लोगों को रेलवे प्रशासन की ओर से जमीन खाली करने की नोटिस मिली हुई है।

45 वर्षीय महिला रानी बताती हैं कि, “हमें हमेशा डर के साये में जीना पड़ता है। हमेशा डर लगा रहता है कि पता नहीं कब हमें यहां से हटा दिया जाएगा। पहले भी कई लोगों को हटाया गया है। सरकार की तरफ से भी कोई मदद नहीं मिलती है। हम गरीब हैं, इसलिए हमारी किसी को फिक्र नहीं है। पहले हटाये गए लोग कहां गए, हमें यह भी पता नहीं। अगर हमें हटाया गया तो हमारे पास भी जाने के लिए कोई जगह नहीं है।”

गरीबी और विषमतम स्थितियों के बावजूद यहां के लोगों में नशा करना आम बात है। पढ़ाई का स्तर भी लगभग नहीं के बराबर है। सोलह वर्षीय गुंजा कहती हैं कि “हमारी बस्ती के आसपास कोई अच्छा सरकारी स्कूल भी नहीं है। प्राइवेट स्कूल का खर्चा माँ-पिताजी नहीं उठा सकतें, इसलिए हमें अपनी पढ़ाई भी छोड़नी पड़ी। इसी तरह लगभग सभी ने आठवीं-दसवीं तक पढ़ कर पढ़ाई अधूरी ही छोड़ दी।”

पूरी बस्ती में एक व्यक्ति भी ऐसा नहीं है, जिसने 12वीं से अधिक पढ़ाई की हो। इसका एक और कारण यह है कि कम आय होने के कारण वयस्क होते ही सभी को इसी काम में लगना पड़ता है। लड़कियों को। खाना-बर्तन करने और छोटे-बूढों की देखरेख करने के लिए बेहद कम उम्र से ही घर संभालने की पूरी जिम्मेदारी उठानी पड़ती है।

सफाईकर्मियों की बस्ती के प्रति बनारस जिला प्रशासन का रवैया भी दोयम दर्जे का हैं। बस्ती में लोगों को किसी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिला है। 

बस्ती में बिजली के खम्भे, तार इस तरह से लगाये गए हैं कि कभी भी कोई व्यक्ति इसकी चपेट में आकर मर सकता है। स्थानीय बताते हैं कि चुनाव के पहले श्रम कार्ड बनवाया गया, लेकिन उसमें कोई पैसा नहीं आया है। 

जब भी कभी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बनारस के दौरे पर आतें है तो बस्ती के लोग जो सफाईकर्मी हैं, उनकी ड्यूटी दोगुनी कर दी जाती है। इतना काम करने के बावजूद उन्हें अभाव में जिंदगी गुजारनी पड़ती है। सफाईकर्मी होने के कारण उन्हें एक सम्मान की जिंदगी भी नसीब नहीं होती है और अक्सर उन्हें उपेक्षित नज़र से देखा जाता है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

आकांक्षा आजाद

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, बनारस से राजनीति शास्त्र में एमए आकांक्षा आजाद स्वतंत्र लेखिका हैं तथा विश्वविद्यालय में छात्र संगठन भगत सिंह छात्र मोर्चा की अध्यक्ष हैं

संबंधित आलेख

स्मृतिशेष : केरल में मानवीय गरिमा की पुनर्स्थापना के लिए संघर्ष करनेवाले के.के. कोचू
केरल के अग्रणी दलित बुद्धिजीवियों-विचारकों में से एक 76 वर्षीय के.के. कोचू का निधन गत 13 मार्च, 2025 को हुआ। मलयाली समाज में उनके...
बिहार : क्या दलित नेतृत्व से सुधरेंगे कांग्रेस के हालात?
सूबे में विधानसभा चुनाव के सात-आठ महीने रह गए हैं। ऐसे में राजेश कुमार राम के हाथ में नेतृत्व और कन्हैया को बिहार में...
फ्रैंक हुजूर के साथ मेरी अंतिम मुलाकात
हम 2018 में एक साथ मिलकर ‘21वीं सदी में कोरेगांव’ जैसी किताब लाए। आगे चलकर हम सामाजिक अन्याय मुक्त भारत निर्माण के लिए एक...
पसमांदा मुसलमानों को ओबीसी में गिनने से तेलंगाना में छिड़ी सियासी जंग के मायने
अगर केंद्र की भाजपा सरकार किसी भी मुसलमान जाति को ओबीसी में नहीं रखती है तब ऐसा करना पसमांदा मुसलमानों को लेकर भाजपा के...
क्या महाकुंभ न जाकर राहुल गांधी ने सामाजिक न्याय के प्रति अपनी पक्षधरता दर्शाई है?
गंगा में डुबकी न लगाकार आखिरकार राहुल गांधी ने ज़माने को खुल कर यह बताने की हिम्मत जुटा ही ली कि वे किस पाले...