उत्तर प्रदेश में 18वीं विधानसभा का स्वरूप अब सामने आ चुका है। भाजपा ने फिर से वापसी की है और सवाल उठाया जा रहा है कि दलितों ने बसपा को वोट नहीं दिया? इस सवाल के पीछे वजह यह बताया जा रहा है कि बसपा प्रमुख मायावती ने ही अपने उम्मीदवारों को भाजपा का सहयोग करने के लिए कहा था। लेकिन वास्तुस्थिति समझने के लिए यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि दलित बहुल सीटों पर भी बसपा को जीत क्यों नहीं मिली?
बताते चलें कि विधानसभा में कुल 403 सीटें हैं। इनमें 86 सीटें आरक्षित हैं। दलितों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 84 है तथा दो सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। बीते 10 मार्च को आये चुनाव परिणाम के मुताबिक दलितों की पार्टी कही जानेवाली बसपा इस बार एक भी आरक्षित सीट नहीं जीत सकी। उसके हिस्से केवल एक रसरा की सीट आयी है, और वहां से एक ऊंची जाति के उम्मीदवार उमाशंकर सिंह जीते हैं। हालांकि पिछली बार यानी 2017 में बसपा को 2 आरक्षित सीटें मिली थीं। ये सीटें थीं– बारा और लालगंज। इस बार बारा विधानसभा क्षेत्र से अपना दल (सोनेलाल) और लालगंज सीट पर सपा उम्मीदवार ने जीत हासिल की है।
वहीं इस बार भी सबसे अधिक 65 सीटें भाजपा गठबंधन के हिस्से में आरक्षित सीटें आयी हैं। इनमें चार सीटें अपना दल (सोनेलाल) को मिली हैं। जबकि सपा गठबंधन ने इसबार अपने पूर्व के प्रदर्शन में मामूली सुधार करते हुए 20 सीटें जीती हैं। जबकि एक सीट जनसत्ता दल लोकतांत्रिक को मिली है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बसपा चुनाव-दर-चुनाव दलितों से दूर होती जा रही है। सनद रहे कि वर्ष 2007 में जब बसपा की सरकार बनी थी तब उसने 62 आरक्षित सीटों पर कब्जा किया था।
उत्तर प्रदेश में आरक्षित सीटों का हाल
2017 | 2022 | |
---|---|---|
भाजपा गठबंधन | 70 | 65 |
सपा गठबंधन | 14 | 20 |
बसपा | 2 | 0 |
अन्य | 0 | 1 |
अब इस सवाल का जवाब कि दलित बहुल सीटों पर भाजपा के पक्ष में किस तरह के आंकड़े रहे और बसपा कितने दलित मतदाताओं को आकर्षित कर सकी। मसलन, आगरा कैंट सीट दलितों के लिए आरक्षित है और यहां दलितों की आबादी 25 फीसदी है। यहां से भाजपा के डॉ. जी.एस. धर्मेश विजयी हुए हैं। उन्हें कुल 1,17,796 वोट मिले हैं। जबकि दूसरे नंबर पर समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी कुंवर चांद रहे, जिन्हें 69,099 मत मिले। तीसरे स्थान पर बसपा के उम्मीदवार डॉ. भारतेंद्र कुमार अरुण को 54,409 मत प्राप्त हुए। प्रतिशत के हिसाब से तीनों को क्रमश: 46.78 प्रतिशत, 27.44 प्रतिशत और 21.61 प्रतिशत। अब इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि यहां बसपा को दलितों का वोट तो मिला।

अब करीब 25 फीसदी दलित आबादी वाले पूर्वांचल के अजगरा विधानसभा सीट को देखें। यह बनारस जिले में है और दलितों के लिए आरक्षित है। यहां से भाजपा के त्रिभुवन राम विजयी हुए हैं। दूसरे नंबर पर सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के उम्मीदवार सुनील कुमार हैं। जबकि तीसरे नंबर पर बसपा के रघुनाथ चौधरी रहे। तीनों के हिस्से क्रमश: 41.25 प्रतिशत, 37.51 प्रतिशत और 17.26 प्रतिशत मत आए। वहीं बछरावां सुरक्षित विधानसभा क्षेत्र में जीत सपा के उम्मीदवार सुनील कुमार को मिली। वहां दूसरे स्थान पर कांग्रेस के सुशील कुमार पासी और तीसरे स्थान पर बसपा की उम्मीदवार लाजवंती कुरील रहीं। इन तीनों का मत प्रतिशत क्रमश: 31.38 प्रतिशत, 27.13 प्रतिशत और 6.55 प्रतिशत रहा। यहां भी दलितों की आबादी करीब 25 फीसदी है। इस प्रकार यहां देखा जा सकता है कि बसपा को दलित मतदाताओं का वोट भी कम मिला। ऐसा ही एक विधानसभा क्षेत्र है रसूलाबाद सुरक्षित विधानसभा क्षेत्र, जहां दलितों की आबादी करीब 25 फीसदी है। यहां से भाजपा की पूनम संखवार विजयी हुई हैं। दूसरे स्थान पर समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार कमलेश चंद्र दिवाकर रहे। वहीं तीसरे स्थान पर बसपा की उम्मीदवार सीमा सिंह रहीं। इन तीनों को क्रमश: 46.77 प्रतिशत, 35.8 प्रतिशत और 14.36 प्रतिशत मत प्राप्त हुए।
चुनावी आंकड़ों से इतर सामाजिक कार्यकर्ता निर्देश सिंह मानती हैं कि “इस बार बसपा ने चुनाव लड़ा ही नहीं। बसपा प्रमुख मायावती की निष्क्रियता के कारण दलित मतदाताओं के अंदर भ्रम की स्थिति रही। इस कारण उनके वोटों में बिखराव हुआ। वहीं कई जगहों पर यह बात सामने आ रही है कि बसपा के उम्मीदवारों ने ही अपने मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में मत करने को कहा।” वह आगे कहती हैं कि बसपा के सबसे बुरे प्रदर्शन के कारण दलितों में हताशा की स्थिति है।
वहीं इस संबंध में प्रसिद्ध साहित्य समालोचक कंवल भारती कहते हैं कि “एक समय था, जब कांशीराम से प्रभावित होकर बहुत से गैर-चमार जातियों के बुद्धिजीवी बसपा से जुड़े थे। इनमें पासी, खटिक, वाल्मिकी समुदाय के कई प्रदेश स्तर के महत्वपूर्ण नेता थे। कुछ को मायावती सरकार में मंत्री भी बनाया गया था। पर बसपा नेतृत्व ने उन सबको निकाल बाहर किया। ऐसा क्यों किया गया? इसके पीछे क्या कारण था? बसपा के भक्त प्रवक्ता इसका यही उत्तर देंगे कि वे पार्टी के खिलाफ काम कर रहे थे। चलो मान लिया, फिर उनकी जगह पर उन समुदायों में नया नेतृत्व क्यों नहीं तैयार किया गया? इसका वे कोई जवाब नहीं देंगे। असल में सच यह है कि गैर-चमार नेतृत्व को हटाने और आगे न उभारने का काम बसपा ने भाजपा के साथ एक पैक्ट के तहत किया था।”
वहीं रूहेलखंड विश्वविद्यालय, बरेली के अर्थशास्त्र के प्रोफेसर इसरार अहमद कहते हैं कि “जितना दलितों ने बसपा को छोड़ा है, उससे कहीं अधिक बसपा ने दलितों को और आंबेडकरवादी विचारधारा को छोड़ दिया है। इस कारण से स्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं। अब जो स्थिति सामने है, उसके हिसाब से तो यही कहा जा सकता है दलितों को अपना नया नेतृत्व खड़ा करना होगा। बसपा अब उनका प्रतिनिधित्व करने में सक्षम नहीं रह गई है। दलितों और पिछड़े वर्ग के लोगों को अपने बीच की लकीर खत्म करनी होगी और उन्हें साथ आना होगा तभी वर्चस्ववादियों का मुकाबला वे कर सकेंगे।”
(संपादन : अनिल)
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