दलित-राजनीति को नई परिभाषा देने वाले कांशीराम ने जब अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू की तो कोई नहीं जानता था कि यह राजनीतिक महानायक पंजाब के एक छोटे से शहर रोपड़ के रामलीला मैदान में अप्रैल, 1996 में लोकसभा चुनाव के मद्देनजर आयोजित विशाल जनसभा में एक अकाली नेता शिरोमणि गुरुद्वारा कमेटी के अध्यक्ष गुरुचरण सिंह टोहड़ा को यह कहने पर विवश कर देगा कि देश का अगला प्रधानमंत्री बाबू कांशीराम होगा। एक स्थानीय अकाली नेता टिक्का सिंह नांगल ने यह कहा था कि पंजाब ने यहां ज्ञानी जैल सिंह जैसा एक राष्ट्रपति प्रदान किया है। वही पंजाब अब भारत को प्रधानमंत्री भी देगा। यहां यह कहना आवश्यक होगा कि अकाली नेता गुरचरण सिंह टोहड़ा उन दिनों पंजाब की सिख राजनीति के एक सशक्त हस्ताक्षर थे, जिनकी कही गई बात अपना प्रभाव रखती थी। उनके इस कथन से कांशीराम की राजनीति के दबदबों का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।
आप सहज ही यह अनुमान लगा सकते हैं कि जिस प्रदेश की दलित-राजनीति एक तरह से हाशिए पर हो, वहां एक दलित राजनेता का इस प्रकार उभर कर आना दर्शाता है कि उसका संघर्ष व सांगठनिक प्रतिभा कितनी तीक्ष्ण रही होगी। इसी प्रतिभा तथा सांगठनिक योग्यता के बल पर ग्यारहवीं लोकसभा के लिए हुए 1996 के चुनावों की सांख्यकीय रपट कांशीराम के एक महानायक होने का दम भरती दिखाई देती है। कांशीराम की सांगठनिक सूझबूझ के दम पर देश के छह राज्यों में बसपा ने चार प्रतिशत से ज्यादा वोट प्राप्त किए तथा बसपा ने एक राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता प्राप्त की। तब उत्तर प्रदेश में बसपा ने 20.6 प्रतिशत मत प्राप्त किए। इसके अलावा उसे मध्य प्रदेश में 8.18 प्रतिशत, पंजाब में 9.35 प्रतिशत, हरियाणा में 6.59 प्रतिशत, जम्मू-कश्मीर में 5.95 तथा चण्डीगढ़ में 4.10 प्रतिशत मिले। इन प्रदेशों के अतिरिक्त राजस्थान, बिहार, आंध्रप्रदेश व कर्नाटक में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई।
यदि कांशीराम ने अपने सिद्धांतों का गला घोंट कर अवसरवाद की राजनीति न की होती, भाजपा जैसे संगठनों से संबंध न रखा होता, तो उनकी छवि वो न होती जो कि आज हम चर्चा का विषय बना रहे हैं। उनके ईजाद किए गए कटखने नारों ने उन्हें एक राष्ट्रीय नायक बनने से रोका है, तो बाद में मायावती ने इन्हीं नारों के विरुद्ध अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकी, उन्हें एक समय का सबसे विवादास्पद नायक भी बना दिया।
यहां यह बताना आवश्यक होगा कि इस राजनीतिक-दंगल में अपना दबदबा कायम करने के लिए कांशीराम ने तमाम स्थापित राजनीतिक मूल्यों तथा किसी भी वैचारिक-नैतिकता की कभी कोई परवाह नहीं की। उन्होंने अपनी इस नीति को कभी छुपाया नहीं, बल्कि इस नीति को अपना मुख्य औजार बताते हुए एक खलनायकत्व का निर्वाह किया, उन राजनीतिज्ञों के लिए, जिन्होंने दलितों के मतों द्वारा सत्ता का स्वाद चखा था। उन्होंने हर तरह की राजनीतिक ताकतों के साथ राजनीतिक समझौते किए तथा तोड़े। सरकारें बनाई और उन्हें तोड़ा भी। इससे भी एक कदम आगे बढक़र उन्होंने ऐसे हालात खड़े करने में मदद की, जिसमें किसी की भी सरकार न बने।
वरिष्ठ लेखक अभय कुमार दुबे के शब्दों में कहें तो उन्होंने सिर्फ राजनीतिक स्थिरता बनाई नहीं, बल्कि अस्थिरता के चैंपियन बनकर सबके सामने एक राजनैतिक हौवा बन अपनी छवि को स्थिर किया। सबसे ज्यादा उन्होंने नुकसान कांग्रेस पार्टी को पहुंचाया। कांग्रेस पार्टी के इस दावे को उन्होंने खारिज कर दिया कि वह देश के दलितों की एकमात्र पार्टी है तो उनके मत पाने का अधिकार रखती है। इस तरह से इस स्थिति का वर्तमान परिस्थितियों का आकलन करें तो हम पाएंगे कि देश के कई राज्यों में कांग्रेस पार्टी को इतना निरीह बना दिया है कि इन दलितों के मत पाने को तरह-तरह की कलाबाजियां करती हुई देखी जा सकती है।
कहा जाता है कि कांग्रेस पार्टी आज के अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। इसके लिए कांग्रेस पार्टी की नीतियां भी जिम्मेवार तो होंगी ही, लेकिन उसे इस स्थिति में पहुंचाने में कांशीराम की नीति को नकारा नहीं जा सकता।
बाबा साहेब के निधन के बाद रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई), जिसे बाबा साहब ने अपने प्रयत्नों द्वारा खड़ा किया था, वह भी कुछ देर के लिए अपनी चमक दिखाकर अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के कारण खंड-खंड हो गई। इसके जाने-माने धाकड़ कहे जाने वाले नेताओं को कांग्रेस पार्टी निगल गई। कहा जाना चाहिए कि दलित-राजनीति एक तरह से लुंजपुंज अवस्था में आ गई। लगभग इसी दौर में कांशीराम का उदय होता है। आगे बढऩे से पूर्व यदि हम उन स्थितियों की चर्चा कर लेें, जिनके कारण कांशीराम को दलित राजनीति में पदार्पण करना पड़ा तो हम कांशीराम के संपूर्ण व्यक्तित्व को जान पाएंगे।
कहा जाता है कि वे 1956 में पंजाब के एक छोटे से नगर रोपड़ के एक कॉलेज में बीएससी करने के बाद 1957 में सर्वे आफ इंडिया की परीक्षा में बैठे और सफल हुए। लेकिन जब वे ट्रेनिंग के दौर से गुजर रहे थे तो उन्हें एक तय अवधि के लिए नौकरी न छोडऩे का बांड भरने को कहा गया। उन्होंने यह बांड भरने से साफ मना कर दिया। उनकी मान्यता थी कि इस बांड द्वारा हम सरकार के बंधुआ मजदूर बन कर रह जाते हैं। कांशीराम ने यह नौकरी कार्यभार संभालने से पूर्व ही छोड़ दी। इसके उपरांत उन्हें पूना में किर्की स्थिति एक्सप्लोसिव रिसर्च एंड डेवलपमेंट लेबोरेटरी (ईआरडीएल) में अनुसंधान सहायक की नौकरी मिली। इसके लिए उन्होंने फौज के डिफेंस साइंस एवं रिसर्च डवेलपमेंट आर्गनाइजेशन की परीक्षा उत्तीर्ण की। इस समय तक कांशीराम का उद्देश्य एक वैज्ञानिक बन कर जीवन बिताने तक ही सीमित था।
कहा जाता है कि वहां एक ऐसी घटना घटी कि उनके जीवन का उद्देश्य ही बदल गया। उनके एक जीवनीकार आर.के. सिंह के मुताबिक, यह घटना उनके जीवन का ‘टर्निंग प्वाइंट’ साबित हुई। ईआरडीएल में बुद्ध जयंती और आंबेडकर जयंती की छुट्टियां काटकर उसकी जगह पर एक दिन की छुट्टी दीपावली-अवकाश में समायोजित कर दी गयी तथा एक दिन की आंबेडकर जयंती के अवकाश के स्थान पर तिलक जयंती अवकाश घोषित कर दिया गया। राजस्थान के एक अनुसूचित जाति के कर्मचारी ने जब इसका विरोध किया तो उसे निलंबित कर दिया गया। तब कांशीराम 31 वर्ष के थे। जिस कर्मचारी ने विरोध किया, उसका नाम दीनाभाना था और वह ईआरडीएल में कांशीराम से वरिष्ठ थे। उन्होंने दीनाभाना के निलंबन का विरोध किया तो उन्हें भी डराया-धमकाया गया। लेकिन कांशीराम दृढ़ रहे और बुद्ध जयंती तथा आंबेडकर जयंती मनाने का अपना हक प्राप्त किया। इस सारी प्रक्रिया ने कांशीराम की जीवन शैली को इतना बदल डाला और उन्हें राजनीति में धकेल दिया।

इस घटना के अतिरिक्त उन्होंने बाबा साहब की पुस्तक ‘जाति का विनाश’ पढ़ी। जिसने उन्हें बहुत गहराई तक प्रभावित किया। कहा जाता है कि हिन्दू समाज के बारे में आंबेडकर के इन विचारों ने उनमें जाति और हिन्दू धर्म के रिश्तों के बारे में एक गहरी समझ का संचार किया। उनके राजनीतिक एजंडे के सामने आंबेडकरवाद से प्रेरित उनकी विचारधारा लगभग बौनी पड़ गई। उनके नारे भी बदल गए।
अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति से पूर्व उनकी जीवटता देखने लायक रही है। वे एक बेमिसाल संगठनकर्ता बनकर दलित राजनीति में उभरे। 6 दिसम्बर, 1978 को उन्होंने अपना पहला संगठन बनाया, जिसका नाम बहुत लम्बा था– ऑल इंडिया बैकवर्ड अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग एंड माइनारिटी कम्युनिटीज एम्पलाईज फेडरेशन। इसका छोटा नाम बामसेफ रखा गया। इस संगठन की विशेषता यह थी कि यह एक गैरधार्मिक, गैर आंदोलनात्मक तथा गैरराजनीतिक संगठन था, क्योंकि इसके कार्यकर्ता सरकारी कर्मचारी थे इसलिए इसे गैर-राजनीतिक रखना आवश्यक था। कांशीराम द्वारा तैयार की गई इसकी रूपरेखा, उसकी सांगठनिक योजना का परिचय देती है। यह एक बेमिसाल सांगठनिक परियोजना थी, जिसने देशभर के दलितों व पिछड़े-वर्ग कहे जाने वाले नवयुवकों के भीतर एक नई स्फूर्ति का संचार कर दिया। ऐसा संगठन शायद देश भर में अपनी प्रकार का अनोखा संगठन था, जिसका उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता है।
आरएसएस सरीखे संगठन भी इसकी कार्यशैली के समक्ष बौने दिखाई पड़ते थे। एक अनुमान के मुताबिक 26 लाख से अधिक अनुसूचित जाति, जनजाति के कर्मचारी कार्यकर्ता सारे देश में फैल गए। इन कर्मचारियों की इस संगठन के प्रति निष्ठा ठीक वैसी ही थी जैसी कि एक अंधश्रद्धा रखने वाले ईश्वर भक्त की ईश्वर के प्रति होती है। देश में तमाम भाषाओं की सीमायें तोड़ते हुए इस संगठन के कर्मचारियों ने देश भर में लोगों को यह संदेश देना शुरू कर दिया कि इस देश के तमाम शूद्र इस देश के मूलनिवासी हैं। ब्राह्मण, जिसने इस देश की संपूर्ण प्राकृतिक संपदा पर अपना कब्जा जमा रखा है, आर्य हैं, और यह आर्य भारत के रहने वाले नहीं हैं, जिन्होंने इस देश को हथिया रखा है।
वास्तव में ऐसा प्रचारित करना डॉ. आंबेडकर की उस अवधारणा को साफ नकारना था, जिसमें उन्होंने आर्य की अवधारणा को साफ नकारा था। इसके बावजूद भी इस संगठन ने देश भर के दलितों व पिछड़ों को यह बताने में सफलता प्राप्त की कि उनका ब्राह्मण के चंगुल से बाहर निकलना बहुत आवश्यक है। यदि इस संगठन का कुछ शब्दों में निष्कर्ष निकाला जाए तो कहना होगा कि यह संगठन लासानी (बेमिसाल) था, जिन अवधारणाओं को मान कर यह संगठन आगे बढ़ा था, वे इतनी ठोस व ऐतिहासिक नहीं थीं कि उनको इस देश का बुद्धिजीवी वर्ग अपनी मान्यता देता। लेकिन यह संगठन कांशीराम की कार्यप्रणाली का एक अद्भुत उदाहरण था। स्वयं कांशीराम के शब्दों में बामसेफ की व्याख्या को हम देखते हैं–
“बामसेफ के पीछे धारणा है– ‘समाज को लौटाना’। अतएव यह बसपा के लिए दिमाग, प्रतिभा और कोष जुटाता है। लेकिन 1985 में मैंने इसे छाया संगठन में बदल दिया। देश के करीब चार सौ सर्वोच्च सिविल सर्वेट बसपा के ब्रेन बैंक हैं। इसके 26 लाख अनुसूचित जाति, जनजाति के कर्मचारी कार्यकर्ता सारे देश में फैले हुए हैं, जिनकी शुद्ध आय दस हजार करोड़ सालाना है। वे बसपा को कोष सप्लाई करते हैं। बसपा का मासिक खर्चा एक करोड़ रुपए हैं।”
कहना न होगा कि वर्ष 1984 में जब बसपा का निर्माण हुआ तो यह तय हो गया कि बामसेफ जैसे संगठन की अंतिम परिणति राजनैतिक संस्था द्वारा हुई, जो कि कांशीराम की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की ही परिचायक थी। बहुत से राजनीतिक विश्लेषकों की मान्यता है कि बसपा के निर्माण के बाद कांशीराम ने बामसेफ को पृष्ठभूमि में धकेल दिया। वास्तव में ऐसा नहीं था। कहना यह होगा कि कांशीराम की राजनीतिक महत्वाकांक्षा ही इसकी परिचायक थी। बामसेफ के अधिकतर कार्यकर्ता तथा पदाधिकारी यह नहीं चाहते थे कि बसपा जैसे संगठन की रचना की जाए, वे इसके लिए अभी और समय चाहते थे। इसी प्रक्रिया में बामसेफ जैसी विराट संस्था कई भागों में बंटकर छितरा गई। इसका प्रभाव डॉ. आंबेडकर के नामलेवाओं पर भी पड़ा। परिणामस्वरूप बामसेफ के साथ-साथ डॉ. आंबेडकर के नामलेवा भी बंट गए। बामसेफ बसपा जैसे उभरते हुए राजनैतिक दल का इंजन था, जिसके बल से बसपा को आगे धकेला जाता था। धीरे धीरे बसपा उत्तर प्रदेश में पांव जमाने में सफल रही, लेकिन बामसेफ के पांव पूरे देश में उखड़ते चले गए। इसका एक और कारण यह था कि कांशीराम बामसेफ व बसपा के सर्वोसर्वा बने रहे। बामसेफ के उद्देश्य तो स्पष्ट थे, लेकिन बसपा के उद्देश्य इससे अधिक और नहीं थे कि येन-केन-प्रकारेण सत्ता को हथियाया जाए। इसका न कोई घोषणापत्र था और न ही कोई आर्थिक कार्यक्रम देखे-सुने गए।
बामसेफ की भांति बसपा में भी कांशीराम प्रत्येक मंडल को एक मंडलीय संयोजक के अधीन रखते थे। दोनों संगठनों में वे अपनी पसंद के बुद्धिजीवी रखते थे। अपने विरोधियों को वे ठिकाने लगाने में देरी नहीं करते थे। अपनी सुरक्षा के लिए उन्होंने सुरक्षा गार्ड रखे हुए थे। सम्मेलनों में इन सुरक्षा गार्डों से सुरक्षा करवाई जाती थी। पंडाल में यदि कोई सरकारी पुलिस के सुरक्षाकर्मी मौजूद होते तो उन्हें बाहर जाने को कह दिया जाता।
फिर 15 अगस्त, 1988 से 15 अगस्त, 1989 के बीच कांशीराम ने पांच सूत्रीय सामाजिक रूपांतरण आंदोलन चलाया। ये पांच सूत्र थे– आत्म-सम्मान के लिए संघर्ष, मुक्ति के लिए संघर्ष, समाज के लिए संघर्ष, जाति उन्मूलन के लिए संघर्ष और विभाजित समाज को भाईचारे से जोडऩे के लिए संघर्ष एवं 85 प्रतिशत भारतीय जनता के ऊपर छुआछूत, अन्याय और आतंक थोपने के विरुद्ध संघर्ष। इस आंदोलन के लिए कांशीराम ने साइकिल यात्राओं की अनूठी विधि निकाली और देश के पांच क्षेत्रों से पांच साइकिल यात्राएं निकालीं। 17 सितंबर 1988 को ईवी रामास्वामी नायकर पेरियर के जन्मदिन पर कन्याकुमारी से प्रथम यात्रा शुरू हुई। दूसरी यात्रा कोहिमा, तीसरी कारगिल, चौथी पुरी तथा पांचवीं पोरबंदर से चली। ये सभी यात्राएं, 27 मार्च, 1989 को दिल्ली पहुंचकर आपस में जुड़ गईं। फिर उसी साल 10 सितम्बर को मुरादाबाद में प्रथम सम्मेलन आयोजित किया गया। 8 अक्तूबर को लुधियाना में सिक्खों का सम्मेलन हुआ। स्पष्ट है कि इसका उद्देश्य मुसलमान, दलित, सिक्ख, पिछड़े व ईसाइयों को बसपा से जोडऩा था।
राजनीति के दंगल में कांशीराम अब इतने पारंगत हो चुके थे कि अब वे राजनीति के नये-नये प्रयोग कर रहे थे। अमेठी निर्वाचन क्षेत्र से वे राजीव गांधी के खिलाफ खड़े हो गए। विपक्ष में राजीव का मुकाबला करने के लिए महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी को मैदान में उतारा। एक बड़े समाचार पत्र समूह के मालिक ने राजमोहन गांधी के चुनाव अभियान को चलाने में विशेष योगदान किया। इलाहाबाद उपचुनाव के बाद यह दूसरा मौका था जब कांशीराम अपनी विशिष्ट ताकत को राष्ट्रीय राजनीतिक मंच पर दिखा सकते थे। विपक्ष ने इस चुनाव में बहुत दम लगाया और मीडिया के माध्यम से जो छवि प्रस्तुत की, उससे लगा कि राजीव गांधी के हारने की संभावना भी है। इस बिंदु पर पहुंच कर कांशीराम ने महसूस किया कि यदि राजीव गांधी हार गये, तो विपक्ष को इसका ज्यादा लाभ होगा और देश में राजसत्ता का शक्ति संतुलन गड़बड़ा जायेगा, जिसकी हानि भविष्य में बसपा जैसी ताकतों को हो सकती है।
कांशीराम का मानना था कि कांग्रेस और विपक्ष में जितनी नजदीकी संघर्ष होगा उतना ही बसपा को लाभ होगा। कांशीराम ने अपना राजनीतिक कदम उठाते हुए अमेठी में अपनी उम्मीदवारी पर जोर डालना बंद कर दिया। इस प्रकार उन्होंने राजीव गांधी को जीतने में परोक्ष रूप में मदद की। कांशीराम पर कांग्रेस से सांठ-गांठ का आरोप लगा। अपनी रणनीति का खुलासा करते हुए कांशीराम ने सफाई दी– “मैंने अपना पक्ष उभारने के लिए राजीव गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा, लेकिन मैं उन्हें चुनाव में हराना नहीं चाहता था, क्योंकि इससे विपक्ष को बहुत लाभ हो जाता।”
इस प्रकार के आश्चर्यचनक फैसले वे अक्सर लेते और अपने कार्यकर्ताओं तथा मतदाताओं को हैरानी के गर्त में डूबो देते। पंजाब जैसे प्रदेश में भी इस प्रकार के करतब करते हुए वे यहां के मतदाताओं को हतप्रभ करते रहे थे। कांशीराम की रणनीति में इस प्रकार के निर्णय अकसर लोगों को चकित तो करते ही थे, उनके नादिरशाही व्यवहार का पता भी देते थे। यह उनकी प्रकृति का एक अंग ही था कि वे अपना समकक्ष उभरने वाला किसी भी व्यक्तित्व को अपने प्रभाव से कुचल डालने में भी परहेज नहीं करते थे और उनका यही व्यवहार मायावती के व्यक्तित्व का हिस्सा भी बनकर उभरा।
उनके कठोर श्रम में उन्हें अम्बेडकर के बाद एक प्रभावशाली व्यक्तित्व का दर्जा दे दिया। कभी-कभार तो वे स्वयं को बाबा साहेब से भी आगे निकला हुआ व्यक्तित्व घोषित करते रहे। उन्होंने कहा कि जो काम बाबा साहब नहीं कर सके, मैंने कर दिखाया। लेकिन यह तय है कि बाबा साहब जैसा गंभीर्य उनमें कहीं भी नहीं था, लेकिन एक राजनीतिक नेता के तौर पर वे बाबा साहेब से कहीं कम नहीं थे। उन्होंने दलित वर्ग की मूकता को नये राजनीतिक स्वर दिये और उन्हें सत्ता का स्वाद चखने तक पहुंचाया। भारत की राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस, जिसे कि दलित अपनी घर की राजनैतिक पार्टी समझते थे, के चंगुल से बाहर निकालने में कांशीराम की एक अहम भूमिका रही। कांशीराम की इस भूमिका ने कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय राजनैतिक दल को घुटनों के बल ला दिया, जिसका फल कांग्रेस आज तक भुगतने को विवश है।
अपने आंदोलन के दौरान कांशीराम ने घोषणा की थी कि वे करोड़ों अनुयाइयों के साथ बौद्ध धर्म में धर्मांतरण करेंगे। उनकी यह घोषणा राजनीतिक मंचों तक ही सीमित रही, कभी भी एक व्यवहारिक रूप धारण नहीं कर सकी। कहना न होगा कि उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने उनकी इस घोषणा को कहीं दूर खिसका दिया।
बाबा साहब और कांशीराम के व्यक्तित्व की किसी भी प्रकार तुलना नहीं की जा सकी, लेकिन यह कहना असंगत नहीं होगा कि कांशीराम का जीवन यदि एक राजनीतिक दंगल में ही चर्चित रहा है, तो बाबा साहब का जीवन दलितों के सर्वांगीण विकास को समर्पित था। अपने जीवन के अंतिम क्षणों में कांशीराम ने कई आत्मघाती कदम उठाये। यदि कांशीराम ने अपने सिद्धांतों का गला घोंट कर अवसरवाद की राजनीति न की होती, भाजपा जैसे संगठनों से संबंध न रखा होता, तो उनकी छवि वो न होती जो कि आज हम चर्चा का विषय बना रहे हैं। उनके ईजाद किए गए कटखने नारों ने उन्हें एक राष्ट्रीय नायक बनने से रोका है, तो बाद में मायावती ने इन्हीं नारों के विरुद्ध अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकी, उन्हें एक समय का सबसे विवादास्पद नायक भी बना दिया।
कुल मिला कर कहना होगा कि दलित-आंदोलन में उनकी भूमिका सचमुच ही ऐतिहासिक है, लेकिन डॉ. आंबेडकर के द्वारा छेड़े गये आंदोलन का वे एक हिस्सा थे, न कि डॉ. अम्बेडकर की भांति एक संपूर्ण नेता, क्योंकि वे सिर्फ राजनीति के एक घाघ आन्दोलनकर्ता थे।
(संपादन : नवल/अनिल)
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