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आंबेडकर और राहुल सांकृत्यायन की दृष्टियों में अंतर के निहितार्थ

राहुल और आंबेडकर दोनों ने चार आर्य सत्यों पर अपने-अपने ढंग से विचार किया है। बुद्ध ने दुख सत्य की जो लौकिक-अलौकिक व्याख्या की है, उसे उसी रूप में राहुल ने भी स्वीकार नहीं किया है और आंबेडकर ने भी नहीं। बता रहे हैं कंवल भारती

लेनिन के इस सिद्धान्त को कि धर्म व्यक्ति का निजी मामला है या उसे निजी मामला होना चाहिए, हम आम आदमी पर तो लागू कर सकते हैं, पर विशिष्ट व्यक्ति पर इस सिद्धान्त को लागू नहीं किया जा सकता और लागू किया जाना चाहिए भी नहीं, क्योंकि विशिष्ट व्यक्ति या वह व्यक्ति, जिससे लाखों करोड़ों लोग प्रेरणा लेते हों, जिसके अनुयायी हों, अगर वह धर्मगुरु नहीं है और दुनिया को बदलने की शिक्षा देता है, तो वह, धर्म को अपना निजी मामला नहीं बना सकता। राहुल सांकृत्यायन (9 अप्रैल, 1893 – 14 अप्रैल, 1963) एक धर्मगुरु या धर्मप्रचारक की भूमिका त्याग कर दुनिया को बदलने की भूमिका में उतरे थे, तो धर्म को देखने की उनकी दृष्टि वही नहीं रह गयी थी, जो एक सनातनी और आर्य समाजी प्रचारक की होती है। वे लाखों दीनदुखियों के हित में धर्म के सिद्धान्तों को अलौकिक नहीं, लौकिक आधार पर परखने लगे थे। इसलिये जनता के सामाजिक और आर्थिक शोषण पर जीवित रहने वाले धर्म उनके लिये घृणास्पद थे।

डॉ. आंबेडकर (14 अप्रैल, 1891 – 6 दिसंबर, 1956) भी धर्म को अछूतों की दृष्टि से देखते थे। वे हिंदू धर्म का विरोध इसी आधार पर करते थे कि वह सामाजिक अलगाववाद का समर्थन करता है और मानवता के एक विशाल समुदाय को समस्त मानवाधिकारों से वंचित रखता है। वे दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार करने की शिक्षा देने वाले हिंदू धर्म को धर्म के नाम पर कलंक मानते थे। उन्होंने लिखा है, “अछूतों की समस्या का सीधा सम्बन्ध हिन्दुओं के सामाजिक व्यवहार से है। अस्पृश्यता तभी मिटेगी, जब हिंदू अपनी मनोवृत्ति बदलेंगे। समस्या यह है कि वह कौन सा तरीका है, जिससे हिंदू जीवनशैली को भुला दें। यह कोई छोटीमोटी समस्या नहीं है कि कोई समूचा राष्ट्र अपनी बंधीबंधाई जीवनशैली को त्याग दे। हिंदू जिस जीवनशैली के आदी हैं, वह ऐसी है, जिसे उनका धर्म प्रमाणित करता है। अतः उनकी जीवनशैली को बदलना उनके धर्म को बदलने जैसा ही है।”

यहां आंबेडकर स्पष्ट रूप से इस मत के हैं कि हिंदू धर्म को सुधारा नहीं जा सकता, उसे छोड़ा जा सकता है। उन्होंने हिंदू धर्म में सुधार के लिये लम्बे समय तक संघर्ष किया, पर उन्हें सफलता नहीं मिली और अन्ततः उन्हें हिंदू धर्म को छोड़ने की घोषणा करनी पड़ी। उन्होंने 15 अक्टूबर, 1935 को मुंबई में कहा, “हमने अभी यह तय नहीं किया है कि कौन सा धर्म हम अपनायेंगे, पर यह हमने तय कर लिया है कि हिंदू धर्म हमारे लिये अच्छा नहीं है।”

यह निर्णय आंबेडकर ने काविठा कांड के प्रतिरोध में लिया था। पूनापैक्ट के तीन साल बाद 1935 में यह कांड हुआ। बम्बई सरकार ने उस समय सार्वजनिक स्कूलों में अछूतों के बच्चों को प्रवेश देने के आदेश जारी किये थे। 8 अगस्त, 1935 को काविठा गांव के अछूत अपने चार बच्चों को स्कूल में दाखिल कराने के लिये ले गये। इसके विरोध में सभी हिन्दुओं ने अपने बच्चों को स्कूल से हटा लिया और रात में घात लगा कर अछूतों की बस्ती पर डंडों, भालों और तलवारों से हमला कर दिया। बाद में हिन्दुओं ने सभी अछूतों का सामाजिक बहिष्कार भी कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि अछूत पीने के पानी तक के लिये तरस गये। इसके विरुद्ध अछूतों ने मजिस्ट्रेट के यहां मुकदमा दायर कर दिया। इस घटना ने अछूतों में दहशत भर दी। वल्लभ भाई पटेल हिन्दुओं को यह समझाने गये कि वे अछूतों पर जुल्म न करें, पर उन्होंने उनकी एक न सुनी। गांधी जी ने अछूतों को यह सलाह दी कि वे गांव छोड़ दें। इस प्रकार, इस संघर्ष में अछूतों को ही दबाया गया। आंबेडकर लिखते हैं कि जब भी हिंदू अराजकता पर उतर आते हैं, तो अछूत हमेशा ही असहाय हो जाते हैं।

आंबेडकर की घोषणा की प्रतिक्रिया में गांधी ने नासिक में कहा कि धर्म कोई मकान या वस्त्र नहीं है, जिसे बदला जा सके, धर्म आदमी का जरूरी अंग है। इसका उत्तर आंबेडकर ने इन शब्दों में दिया, “मैं गांधी जी से सहमत हूं कि धर्म जरूरी है, परन्तु मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि आदमी को अपने उस पुश्तैनी धर्म से चिपटा रहना चाहिए, जो उसके लिये घृणास्पद हो, अपमानजनक हो और उसे आगे बढ़ने की कोई प्रेरणा न देता हो।” उन्होंने आगे कहा कि कवीथा में जो हुआ, वह अनोखी घटना नहीं है, वह हिन्दुओं के पुश्तैनी धर्म में मौजूद व्यवस्था पर आधारित है। इस धर्म को दलितों को छोड़ना ही होगा।

राहुल सांकृत्यायन व डॉ. आंबेडकर की तस्वीर

राहुल के सामने उनका कोई जातीय समाज नहीं था, जिसे वे बदलना चाहते थे। वे ब्राह्मण थे, पर ब्राह्मणों को सुधारने या उनकी मुक्ति के (किसी कार्यक्रम के) दायित्व से मुक्त थे। किन्तु आंबेडकर इस दायित्व से मुक्त नहीं थे। उनके सामने उनका विशाल अछूत समाज था, जिसे हिन्दुओं और उनके धर्म ने मानवीय गरिमा और अधिकारों से वंचित करके रखा था। इसलिये, आंबेडकर आरम्भ से ही इस खोज में रहे कि धर्म का अर्थ क्या है, हिंदू धर्म से अछूत समुदाय का क्या सम्बन्ध है? और कोई दूसरा धर्म उनकी स्थिति को बदल सकता है या नहीं?

राहुल भले ही यह नहीं देख सके थे कि ब्राह्मण हिंदू धर्म और उसकी व्यवस्था को क्यों पसन्द करते थे और क्यों उसमें कोई सुधार नहीं चाहते थे? किन्तु, आंबेडकर ने यह अच्छी तरह देख लिया था कि हिन्दुओं की वर्ण व्यवस्था ब्राह्मणों के लिये स्वर्ग की व्यवस्था है, जिसमें वे सबसे श्रेष्ठ और सबसे पूज्य बने हुए हैं। वे यह भी देख रहे थे कि हिंदू अछूतों पर इसलिये अत्याचार नहीं करते हैं कि वे क्रूर हैं, बल्कि इसलिये करते हैं, क्योंकि उनका धर्म उन्हें ऐसा करने की शिक्षा देता है। एक स्थान पर आंबेडकर ने लिखा है, “हिंदू चाहे स्त्री हो या पुरुष, वह जो कुछ करता है, धर्म के अनुसार करता है। वह खाता धर्म के अनुसार है, पीता धर्म के अनुसार है, नहाता धर्म के अनुसार है, पहनता धर्म के अनुसार है, उसका जन्म धर्म के अनुसार होता है, विवाह धर्म के अनुसार होता है और धर्म के अनुसार ही उसे जलाया जाता है। उसके सारे कार्य धर्मानुसार होते हैं। धर्मनिरपेक्षता के दृष्टिकोण से ये काम गलत हो सकते हैं, पर ये इसलिये पापपूर्ण नहीं हैं, क्योंकि ये धर्म द्वारा स्वीकृत हैं। इसलिये यदि कोई हिंदू पाप का अभियुक्त होता है, तो वह गर्व से कहता है कि यदि मैं पाप करता हूँ तो पाप भी धर्म के अनुसार कर रहा हूँ।”

आंबेडकर अपने अध्ययन में इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि अछूतों के लिये हिंदू धर्म इसलिये अमानवीय है, क्योंकि अछूत हिंदू समाज के अंग नहीं हैं। दूसरे शब्दों में वे हिंदू धर्म के बाड़े से बाहर के हैं। आंबेडकर लिखते हैं, “हिन्दुओं और अछूतों के बीच क्या सम्बन्ध है, इसकी सटीक व्याख्या बम्बई के एक सम्मेलन में सनातनी हिन्दुओं के नेता ऐनापुरे शास्त्री ने की है। उन्होंने कहा कि हिन्दुओं के साथ अछूतों का सम्बन्ध वैसा ही है, जैसा किसी मनुष्य का उसके जूतों के साथ होता है। आदमी जूते पहनता है, इस दृष्टि से वह मनुष्य के साथ है और कहा जा सकता है कि वह मनुष्य के हैं। लेकिन जूते शरीर का अंग नहीं है, क्योंकि जिन दो चीजों को किसी इकाई से अलग किया जा सकता है, उन्हें उस इकाई का अंग नहीं कहा जा सकता।”

आंबेडकर की दृष्टि में यह एक अत्यन्त सटीक उपमा थी। उनके पास इसका मजबूत आधार भी है। उनके अनुसार, अछूत वर्ण व्यवस्था के अंग नहीं है। वे उसके बाहर के हैं, अर्थात् अवर्ण हैं। वे लिखते हैं, “हिंदू विधान के निर्माता मनु ने अपने नियम में कहा है कि वर्ण केवल चार हैं और पांचवाँ वर्ण नहीं होगा। मनु अछूतों को उस भवन में प्रवेश दिलाने को तैयार नहीं थे, जिसे प्राचीन हिन्दुओं ने वर्ण व्यवस्था में विस्तार कर उसे पांच वर्णों के लिये बनाना चाहा था। मनु ने अछूतों को वर्ण-बाह्य कहकर वर्ण व्यवस्था से बाहर रखा है। आदिम और जरायम पेशा जातियों के विरुद्ध हिंदू समाज में प्रवेश के लिये कोई निश्चित वर्जना नहीं है। वे कालान्तर में उसके सदस्य बन सकते हैं। फिलहाल वे हिंदू समाज से जुड़े हैं और उसके बाद वे उसमें घुलमिल सकते हैं तथा उसका अंग बन सकते हैं। लेकिन अछूतों की स्थिति अलग है। हिंदू समाज में उनके विरुद्ध निश्चित वर्जना है। उसके सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है। उन्हें अलगथलग ही रहना होगा और वे हिंदू समाज का अंग न हैं और न बन सकते हैं।” 

वे अन्यत्र कहते हैं हिंदू भी यह जानते हैं कि “अछूत उनके समाज के अंग नहीं हैं। यही कारण है कि हिन्दुओं में नैतिक दृष्टि से अछूतों के प्रति कोई चिन्ता या ममत्व नहीं होता है।”

आंबेडकर की सबसे बड़ी चिन्ता थी कि अछूत अनेक जातियोंउपजातियों में विभाजित हैं और उनके बीच मौजूद सामाजिक भेदभाव उन्हें एक नहीं होने देता। हिंदू समाज में ब्राह्मण एक वर्ग है, क्षत्रिय एक वर्ग है और वैश्य एक वर्ग है। प्रत्येक वर्ग में अनेक जातियाँ होने के बावजूद उनके बीच सामाजिक अलगाव नहीं है, वरन् रोटीबेटी का सम्बन्ध है। इनमें से प्रत्येक वर्ग में अपनी ही जाति में विवाह वर्जित है। (मिश्रामिश्रा में नहीं, शुक्ला में विवाह करेगा।) किन्तु यही वर्ण चेतना शूद्रों और अछूतों में नहीं है, जिसके कारण उनमें सामाजिक एकता का सदैव अभाव रहता है।

इसलिये आंबेडकर ऐसे धर्म की तलाश में थे, जो निम्न जातियों को एक वर्ग में संगठित कर दे और उनका सांस्कृतिक विकास करे। वे इस मत के नहीं थे, जैसा कि कुछ लोग मानते हैं कि धर्म समाज के लिये आवश्यक नहीं है। वे जीवन और सामाजिक आचरण के लिये धर्म को आवश्यक मानते थे। वे कहते थे कि धर्म अफीम नहीं है, जैसा कि कुछ लोगों द्वारा कहा जाता है। पर, वे धर्म के नाम पर पाखण्ड को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं थे। वे कहते थे कि आदमी सिर्फ रोटी खाकर जीवित नहीं रह सकता। उसके पास एक मन भी है, जिसे विचार के लिये आहार चाहिए। यह आहार उसे धर्म से ही मिलता है। धर्म ही उसे आशावादी बनाता है और आगे बढ़ने की शक्ति देता है। उनकी दृष्टि में धर्म और दासता दो परस्पर विरोधी चीजें थीं। कोई भी धर्म, जो आदमी को दास बनाता है, वह उनके लिये धर्म नहीं था।

आंबेडकर ने अपने सिद्धान्त के आधार पर सभी धर्मों पर विचार कियान केवल ईसाई और इस्लाम धर्मों पर, बल्कि आर्य समाज और सिख धर्म के बारे में भी। मई 1936 में कोलम्बो से एक इटैलियन बौद्ध भिक्षु लोकनाथ ने भारत आकर आंबेडकर से भेंट की और उन्हें इस बात पर सहमत करने की कोशिश की कि यदि अछूत लोग बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेते हैं, तो वे समाज में नैतिक, धार्मिक और सामाजिक रूप से उच्चतर स्तर प्राप्त कर लेंगे। यद्यपि आंबेडकर ने उन्हें कोई जवाब नहीं दिया था, पर बौद्ध धर्म के प्रति उनमें सम्मान का भाव पहले ही से था।

इस विषय पर आंबेडकर का अध्ययन निरन्तर चल रहा था। वे अस्पृश्यता के उद्गम के ऐतिहासिक आधार को भी देखना चाहते थे, ताकि जिस धर्म को वे स्वीकार करें, उसमें अछूतों की ऐतिहासिक संगति भी बैठ सके। शीघ्र ही उन्होंने अपना एक लम्बा साक्षात्कार ‘दि बाम्बे क्रानिकल’ को दिया, जो उसके 24 फरवरी 1940 के अंक में प्रकाशित हुआ। इस साक्षात्कार में उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि वैदिक काल में और उसके बाद शताब्दियों तक अस्पृश्यता का अस्तित्व नहीं मिलता है। इसका उद्गम बहुत बाद में हुआ और इसका सम्बन्ध बौद्ध धर्म के बाद परिवर्तनों से पैदा हुई परिस्थितियों से है। उन्होंने उस युग का उल्लेख किया, जब कुछ लोग अपने ऋषि आधारित जीवन के लिये एक जगह बस गये थे, पर बहुत से दूसरे लोग अपने पशुओं के चारे के लिये जगहजगह घूमते रहते थे। बसे हुए किसानों को अपनी भूमि, मकान और फसल की सुरक्षा घुमन्तु लोगों से करनी होती थी। इससे बचने और शान्ति पूर्ण जीवन जीने के लिये उन्होंने कुछ घुमन्तु लोगों की सेवाएं लीं। उन्हें कुछ जमीनें और घर देकर गांव के बाहर बसा दिया और उनको गांव की सुरक्षा का काम सौंप दिया। वे पीढि़यों तक इस काम को करते रहे। गांव के भीतर और गांव के बाहर किनारों पर रहने वाले इन लोगों के बीच सामान्य मानवीय सम्बन्ध थेकिसी तरह की अस्पृश्यता नहीं थी। तब, अस्पृश्यता कैसे पैदा हुई? आंबेडकर कहते हैं कि इसके लिये भारत में बौद्ध धर्म के उदय को देखना होगा।

आंबेडकर के अनुसार, भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ, जब बौद्ध धर्म ने सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत लिया था। देश की जनता और सारा व्यापारी वर्ग बौद्ध धर्म में चला गया था। ब्राह्मणवाद का पतन हो गया था, जो शताब्दियों से राज कर रहा था। बुद्ध ने तीन शिक्षाएं दींसामाजिक समानता की, वर्ण व्यवस्था के उन्मूलन की और अहिंसा के सिद्धान्त की, जिसमें धर्म के नाम पर पशु बलि वर्जित थी। आंबेडकर ने कहा कि उस समय तक ब्राह्मण शाकाहारी नहीं हुए थे, वे गौओं और अन्य पशुओं की बलि देते थे और उनका मांस खाते थे। जब बुद्ध ने बलि का निषेध किया और गाय को ऋषि और दूध के लिये उपयोगी पशु बताते हुए उसकी सुरक्षा की शिक्षा दी, तो जनता ने उसे अपना लिया। तब, ब्राह्मणों के सामने शाकाहारी बनने के सिवा कोई चारा नहीं था।

आगे आंबेडकर लिखते हैं कि ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को बौद्ध धर्म में जाने से रोकने के मकसद से उन्हें समानता का दर्जा देने की पेशकश की और दोनों ने मिलकर वैश्य और शूद्रों को रोकने के लिये उन दो पुलिस वालों की तरह काम किया, जो कैदी के दोनों तरफ खड़े होकर उसे भागने से रोकते हैं। अब गाय पवित्र हो गयी थी और उसकी बलि देने की प्रथा समाप्त हो गयी थी। बहुत सारी बुद्ध शिक्षाएं हिंदू धर्म में समाहित कर लीं गयी थीं। जो जनता बौद्ध धर्म में चली गयी थी, वह भी धीरेधीरे वापिस आने लगी थी। बुद्ध की जो सबसे बड़ी शिक्षा ब्राह्मणों ने स्वीकार नहीं की, वह थी समानता और वर्ण व्यवस्था का उन्मूलन। पर, उन्होंने यह जरूर किया कि कुछ समय के लिये क्षत्रियों को अपने समान दर्जा दिया और ब्राह्मण देवताओं को हटा कर उनके स्थान पर क्षत्रिय देवताओं को स्थापित कर उनके साथ अन्य समयानुकूल समझौते कर लिये।

आगे आंबेडकर कहते हैं, न तो बुद्ध ने और न ब्राह्मणों ने मृतक पशु के मांस को खाने पर रोक लगायी थी। रोक सिर्फ जीवित गाय का वध करने पर थी। पर, आज के अछूतों का एक बड़ा अपराध यह है कि वे गरीबों में सबसे गरीब और सामाजिक रूप से सबसे निचले स्तर के होने के कारण बौद्ध धर्म में लम्बे समय तक बने रहे और मृतक पशु का मांस खाते रहे। उनको सुधारने के लिये एक बड़ी शक्ति की जरूरत थी, जो उनके लिये लम्बे समय तक काम करती। पर ऐसा कोई काम तो नहीं हुआ, उलटे, सामाजिक बहिष्कार और अस्पृश्यता उन पर लागू कर दी गयी।

आंबेडकर का निष्कर्ष था कि उनकी मृतक गाय का मांस खाने की आदत ही उनके शोषण का कारण बनी। यही वह चीज थी, जिससे स्वाभाविक रूप से हिन्दुओं को उनसे घृणा हुई। इसी वजह से उस पूरे वर्ग पर अस्पृश्यता थोप दी गयी। यह वास्तव में वह दण्ड था, जो ब्राह्मणों ने उन्हें बौद्ध धर्म में बने रहने के लिये दिया था, जबकि अन्य लोगों ने बौद्ध धर्म छोड़ दिया था। आंबेडकर कहते हैं कि इसलिये शिक्षा और स्वतन्त्रता तथा सामाजिक समानता के सभी आधुनिक विचारों के बावजूद आज तक अस्पृश्यता बनी हुई है।

आंबेडकर ने अपने इस शोध को ‘दि अनटचेबिल्स’ नाम से प्रकाशित कराया, जो अछूतपन के ऐतिहासिक आधार को रेखांकित करने वाली एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। यह सिद्ध करने के बाद कि आज के अछूत किसी समय बौद्ध थे, उनका बौद्ध धर्म में जाने का रास्ता आसान हो गया था। अतः आंबेडकर ने 2 मई 1950 को नयी दिल्ली में, बुद्ध जयन्ती के अवसर पर भारत के अछूतों से बौद्ध धर्म ग्रहण करने की अपील की। इस अपील पर दूसरे दिन 15 अछूतों ने दिल्ली में बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इस अवसर पर, डॉ. आंबेडकर ने हिन्दी में तीस मिनट का संक्षिप्त व्याख्यान दिया, जिसमें उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत में पुनः बौद्ध धर्म का उदय होगा। उन्होंने आगे कहा कि न राम और न ही कृष्ण बुद्ध का मुकाबला करते हैं, बुद्ध के बराबर कोई भगवान नहीं है और न आगे ऐसा कोई महान धर्मगुरु और शास्ता पैदा होगा। 6 जून, 1950 को उन्होंने कोलम्बो में कहा, “यह आम धारणा बन गयी है कि बौद्ध धर्म भारत से लुप्त हो गया है। मैं मानता हूँ कि यह भौतिक रूप में लुप्त हुआ है, पर एक अमूर्त (बौद्धिक) शक्ति के रूप में यह अभी भी अस्तित्व में है।”

आंबेडकर ने देश के बहुत से भागों में जाकर अछूतों की सभाएं कीं और उन्हें बौद्ध धर्म के विषय में जानकारी दी। उन्होंने स्वयं को पूरी तरह बौद्ध धर्म के विस्तार के लिये समर्पित कर दिया था। अन्ततः उन्होंने 14 अक्टूबर 1956 को विजया दशमी के दिन नागपुर में अपने लाखों अनुयायियों के साथ पूज्य महास्थविर चन्द्रमणि जी के नेतृत्व में बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और भारत में बौद्ध धर्म के पुनरुद्धार का झण्डा गाड़ दिया। बाद में, उन्होंने बाइबिल और कुरान की तरह बौद्धों के लिये भी एक धर्मग्रन्थ की रचना की, जो ‘बुद्ध और उनका धम्म’ नाम से प्रसिद्ध है।

हमने देखा कि राहुल सांकृत्यायन और डॉ. आंबेडकर दोनों बौद्ध धर्म तक पहुंचे, पर अलगअलग रास्तों से और अलगअलग कारणों से। राहुल भारत में बौद्ध समाज नहीं बना पाये। पर, आंबेडकर ने इसी कमी को पूरा किया। लेकिन इस बात को लेकर दोनों एक मत थे कि बौद्ध धर्म हिंदू धर्म का अंग नहीं है। राहुल की दृष्टि में बौद्ध हिंदू नहीं थे। किन्तु, बुद्ध के जीवन, सिद्धान्तों और दर्शन के सम्बन्ध में दोनों विद्वानों के विचार समान नहीं हैं। उदाहरण के लिये आंबेडकर ने बुद्ध के जीवन और दर्शन को उसी रूप में स्वीकार नहीं किया, जिस रूप में वह परम्परा में मौजूद था। किन्तु, राहुल काफी हद तक परम्परा में प्रचलित बुद्ध के जीवनदर्शन को ही स्वीकार करते हैं। बुद्ध के जन्म की इस कहानी पर राहुल और आंबेडकर एक मत हैं कि बुद्ध ने अपने जन्म के बारे में सोच कर यह तय किया कि कपिलवस्तु में राजा शुद्धोधन मेरे पिता होंगे और मेरी माता महामाया नामक देवी होंगी। तब उन्होंने महामाया को स्वप्न में आकर बताया कि क्या तुम मेरी माता बनना स्वीकार करोगी? उसका उत्तर था, बड़ी प्रसन्नता से। और उसी समय बोधिसत्त्व ने महामाया के गर्भ में प्रवेश किया।

लेकिन बुद्ध के गृहत्याग की कहानी पर राहुल के विचार परम्परागत हैं, जबकि आंबेडकर उसको तर्क की कसौटी पर कसते हैं और उसके मूल में राजनैतिक कारण मानते हैं। राहुल का वही (परम्परागत) मत है– “वृद्ध, रोगी, मृत और प्रव्रजित (संन्यासी) के चार दृश्यों को देखकर उनकी (सिद्धार्थ की) संसार से विरक्ति पक्की हो गयी और एक रात वह चुपके से घर से भाग निकले।” राहुल सांकृत्यायन भी घर छोड़कर भागे थे, अपने पिता, माँ और ब्याहता किसी का भी मोह उन्होंने नहीं पाला था। पर, आंबेडकर को बुद्ध का इस तरह पलायन करना ठीक नहीं लगा था। यह उनके गले भी नहीं उतरा था। वे लिखते हैं“जिस समय सिद्धार्थ (बुद्ध) ने प्रव्रज्या (गृहत्याग) ग्रहण की, उस समय उनकी आयु 29 वर्ष की थी। यदि सिद्धार्थ ने इन्हीं तीन दृश्यों (वृद्ध, रोगी और मृतक) को देखकर प्रव्रज्या ग्रहण की, तो यह कैसे हो सकता है कि 29 वर्ष की आयु तक सिद्धार्थ ने कभी किसी बूढ़े, रोगी तथा मृत व्यक्ति को देखा ही न हो? ये जीवन की ऐसी घटनाएं हैं, जो रोज ही सैकड़ों, हजारों की संख्या में घटती रही हैं और सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की आयु होने से पहले भी इन्हें देखा ही होगा। इस परम्परागत मान्यता को स्वीकार करना असम्भव है कि 29 वर्ष की आयु होने तक सिद्धार्थ ने एक बूढ़े, रोगी और मृत व्यक्ति को देखा ही नहीं था और 29 वर्ष की आयु होने पर ही प्रथम बार देखा। यह व्याख्या तर्क की कसौटी पर कसने पर खरी उतरती प्रतीत नहीं होती।”

डॉ. भदन्त आनन्द कौसात्यायन का मत है कि वृद्ध, रोगी और मृत व्यक्ति को देखकर गृहत्याग की मान्यता के संबंध में “वे अट्टकथाएँ हैं, जिन्हें बुद्धघोष तथा अन्य आचार्यों ने भगवान बुद्ध के एक हजार वर्ष बाद परम्परागत सिंहल अट्टकथाओं का आश्रय ग्रहण कर पाली भाषा में लिखा।” उनके अनुसार त्रिपिटक के किसी भी ग्रन्थ में गृहत्याग के इस कथानक का कहीं उल्लेख नहीं है।

आंबेडकर ने परम्परागत मान्यता के विरुद्ध ‘खुद्दक निकाय’ के ‘सुत्तनिपात’ के अट्ठकवग्ग में अत्तदण्डसुत्त की इन गाथाओं को बुद्ध के गृहत्याग का आधार बनाया“शस्त्र धारण भयावह लगा। मुझमें वैराग्य उत्पन्न हुआ, यह मैं बताता हूँ। अपर्याप्त पानी मैं जैसे मछलियां छटपटाती हैं, वैसे एकदूसरे से विरोध करके छटपटाने वाली प्रजा को देखकर मेरे मन में भय उत्पन्न हुआ। चारों ओर का जगत असार दिखायी देने लगा, सब दिशाएं काँप रही हैं, ऐसा लगा और उसमें आश्रय का स्थान खोजने पर निर्भय स्थान नहीं मिला, क्योंकि अन्त तक सारी जनता को परस्पर विरुद्ध हुए देखकर मेरा जी ऊब गया।”

आंबेडकर का मत है कि शाक्यों और कोलियों में रोहिणी नदी के पानी को लेकर झगड़े होते थे। शाक्य संघ ने कोलियों के विरुद्ध युद्ध का प्रस्ताव पारित किया, जिसका सिद्धार्थ गौतम ने विरोध किया। शाक्य संघ के नियम के अनुसार बहुमत के विरुद्ध जाने पर दण्ड का प्राविधान था। संघ ने तीन विकल्प रखे– (1) सिद्धार्थ सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लें, (2) फांसी पर लटक कर मरने या देश छोड़कर जाने का दण्ड स्वीकार करें या (3) अपने परिवार के लोगों का सामाजिक बहिष्कार और उनके खेतों की जब्ती के लिये राजी हों। संघ का बहुमत सिद्धार्थ के विरुद्ध था। सिद्धार्थ के लिये सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लेने की बात को स्वीकार करना असम्भव था। अपने परिवार के सामाजिक बहिष्कार पर भी वह विचार नहीं कर सकते थे। अतः उन्होंने दूसरे विकल्प को स्वीकार किया और वे स्वेच्छा से देश त्याग कर जाने के लिये तैयार हो गये।

राहुल सांकृत्यायन ने इसी परम्परागत मान्यता के साथ लिखा कि सिद्धार्थ गौतम ने अपनी पत्नी और बच्चे को सोता हुआ छोड़कर चुपके से गृहत्याग किया था। किन्तु, आंबेडकर इस मान्यता से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार, उन्होंने पूरी तरह अपने पिता शुद्धोधन, अपनी माता प्रजापति गौतमी और पत्नी यशोधरा से सहमति और अनुमति लेकर घर से अभिनिष्क्रमण किया था। राहुल ने सिद्धार्थ की परिवारविमुखता को गम्भीरता से नहीं लिया, शायद इसलिये कि वे स्वयं भी परिवारविमुख थे। पर, आंबेडकर ने इसे बहुत गम्भीर प्रश्न माना था। उनकी दृष्टि में कोई भी व्यक्ति, जो परिवारविमुख है, समाजविमुख भी होगा, वह समाजउन्मुख नहीं हो सकता। इसलिये आंबेडकर ने इस बात को रेखांकित करना ज्यादा जरूरी समझा कि सिद्धार्थ जैसा जनवादी और जागरूक व्यक्ति परिवारविमुख कैसे हो सकता है? वह परिवार के सदस्यों को धोखा देकर घर छोड़ ही नहीं सकते थे। इस तरह के विश्वासघात की अपेक्षा उनसे नहीं की जा सकती थी। आंबेडकर ने लिखा है कि जब सिद्धार्थ ने कपिलवस्तु छोड़ा, तो अनोमा नदी तक जनता उनके पीछेपीछे आयी थी, जिसमें उनके पिता शुद्धोधन और उनकी माता प्रजापति गौतमी भी उपस्थित थे।

वाराणसी के ऋषिपतन मृगदाव (सारनाथ) में पंच वर्गीय ब्राह्मण भिक्षुओं को दिया गया बुद्ध का पहला धर्मोपदेश ‘धर्मचक्र प्रवर्तन सूत्र’ के नाम से विख्यात है। इसमें बुद्ध ने चार आर्य सत्यों की शिक्षा दी है। पहला आर्य सत्य ‘दुख है’, दूसरा आर्य सत्य ‘दुख का कारण है’, तीसरा आर्य सत्य ‘दुख का निरोध है’, और चौथा आर्य सत्य ‘दुख निरोध का उपाय है।’ दुख सत्य की व्याख्या करते हुए बुद्ध ने कहा है– “जन्म भी दुख है, बुढ़ापा भी दुख है, मरण, शोक, रूदन, मन की खिन्नता, हैरानगी दुख है। अप्रिय से संयोग भी, प्रिय से वियोग भी दुख है, इच्छा करके जिसे नहीं पाता, वह भी दुख है। संक्षेप में पांचों उपादान स्कन्ध (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान) दुख हैं।” बुद्ध ने दुख का कारण तृष्णा को माना है और तृष्णा के निरोध (विनाश) को दुख का निरोध कहा है। तृष्णा से उपादान (वासना) पैदा होती है, उपादान से जन्म, जन्म से बुढ़ापा, मृत्यु, शोक आदि पैदा होते हैं। दुखनिरोध का मार्ग है, आर्य आष्टांगिक मार्ग, जो ये हैंसम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वचन, सम्यक कर्म, सम्यक जीविका, सम्यक प्रयत्न, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि।

राहुल और आंबेडकर दोनों ने चार आर्य सत्यों पर अपनेअपने ढंग से विचार किया है। बुद्ध ने दुख सत्य की जो लौकिकअलौकिक व्याख्या की है, उसे उसी रूप में राहुल ने भी स्वीकार नहीं किया है और आंबेडकर ने भी नहीं। राहुल लिखते हैं, “यहां उन्होंने [बुद्ध ने] दुख और उसकी जड़ को समाज में न ख्याल कर व्यक्ति में देखने की कोशिश की। भोग की तृष्णा के लिये राजाओं, क्षत्रियों, ब्राह्मणों, वैश्यों सारी दुनिया को झगड़ते, मरतेमारते देख कर भी उस तृष्णा को व्यक्ति से हटाने की कोशिश की। उनके मतानुसार मानो, काँटों से बचने के लिये सारी पृथ्वी को तो नहीं ढका जा सकता है, हाँ अपने पैरों को चमड़े से ढाँक कर काँटों से बचा जा सकता है। वह समय भी ऐसा नहीं था कि बुद्ध जैसे प्रयोगवादी दार्शनिक सामाजिक पापों को सामाजिक चिकित्सा से दूर करने की कोशिश करते। तो भी, वैयक्तिक सम्पत्ति की बुराइयों को वह जानते थे, इसीलिये जहाँ तक उनके अपने भिक्षुसंघ का सम्बन्ध था, उन्होंने उसे हटा कर भोग में पूर्ण साम्यवाद स्थापित करना चाहा।”

राहुल ने बुद्ध के दुखविनाश के मार्ग की भौतिकवादी व्याख्या की है। उनके अनुसार, “बुद्ध तत्कालीन आर्थिक व्यवस्था के खिलाफ इसलिये नहीं गये, क्योंकि बुद्ध के धर्म को फैलाने में राजाओं से भी अधिक व्यापारियों ने उनकी सहायता की थी।”

किन्तु डॉ. आंबेडकर ने इस तरह की भौतिक व्याख्या नहीं की है। उनका मत है कि बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद बुद्ध वचनों में ब्राह्मणों ने भारी हेरफेर की है। उन्होंने बुद्ध और उनके वचनों को अपने अनुकूल बनाने का काम इसलिये किया, ताकि आम जनता के लिये वे दुष्कर हो जायें। उन्होंने बुद्ध के वचनों को ही अलौकिक नहीं बनाया, वरन् बुद्ध को भी लोकोत्तर सत्ता का रूप दिया। जैसा कि भदन्त आनन्द कौसात्यायन का मत है, “भगवान बुद्ध के बारे में एक बात बड़े ही विश्वास के साथ कही जा सकती है कि वे कुछ नहीं थे, यदि उनका कथन बुद्धिसंगत, तर्कसंगत नहीं होता।” आंबेडकर ने इसी आधार पर बुद्ध के वचनों को स्वीकार किया। उन्होंने स्वयं लिखा है कि जब हम पाली ग्रन्थों के आधार पर बुद्ध का जीवन चरित्र लिखने का प्रयास करते हैं, तो हमें यह कार्य सहज प्रतीत नहीं होता और उनकी शिक्षाओं की सुसंगत अभिव्यक्ति तो और भी कठिन हो जाती है। वे लिखते हैं कि बुद्ध की चर्या का लेखाजोखा हमारे सामने कई ऐसी समस्याएं पैदा करता है, जिनका निराकरण यदि असम्भव नहीं, तो कठिन अवश्य है। इसलिये, उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है कि उन समस्याओं पर खुल कर विचार किया जाय। ऐसी उन्होंने चार समस्याओं को रेखांकित किया, जिनमें हम पहली समस्या बुद्ध के गृहत्याग पर ऊपर चर्चा कर चुके हैं। दूसरी समस्या चार आर्य सत्यों से उत्पन्न होती है। इस समस्या पर विचार करते हुए आंबेडकर लिखते हैं, “जीवन स्वभावतः दुख है, यह सिद्धान्त जैसे बौद्ध धर्म की जड़ पर ही कुठाराघात करता प्रतीत होता है। यदि जीवन भी दुख है, मरण भी दुख है, पुनरुत्पत्ति भी दुख है, तब तो सभी कुछ समाप्त है। न धर्म ही किसी आदमी को इस संसार में सुखी बना सकता है और न दर्शन ही। यदि दुख से मुक्ति ही नहीं है तो फिर धर्म भी क्या कर सकता है और बुद्ध भी किसी आदमी को दुख से मुक्ति दिलाने के लिये क्या कर सकते हैं, क्योंकि जन्म ही स्वभावतः दुखमय है? ये चारों आर्यसत्य, जिनमें प्रथम आर्यसत्य ही दुखसत्य है, अबौद्धों द्वारा बौद्ध धर्म ग्रहण किये जाने के मार्ग में बड़ी बाधा है। ये उनके गले आसानी से नहीं उतरते। ये सत्य मनुष्य को निराशावाद के गढ़े में ढकेल देते हैं। ये सत्य बुद्ध के धम्म को एक निराशावादी धर्म के रूप में उपस्थित करते हैं।” आंबेडकर चार आर्यसत्यों को बुद्ध की मूल शिक्षा के विपरीत और परवर्ती भिक्षुओं द्वारा किया गया प्रक्षिप्तांश मानकर पूरी तरह अस्वीकार कर देते हैं।

(इस लेख का विस्तृत रूप हिंदी समय के वेब पर पूर्व में प्रकाशित है। यहां लेखक की अनुमति से प्रकाशित )

(संपादन : नवल/अनिल)


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कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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