वर्ग-चेतना के कवियों में एक और नाम बच्चा लाल ‘उन्मेष’ का जुड़ गया है। वह लिख तो काफी समय से रहे हैं, परंतु उनके दो कविता-संग्रह इसी वर्ष 2022 में प्रकाशित हुए हैं– (1) ‘छिछले प्रश्न : गहरे उत्तर’, और (2) ‘कौन जात हो भाई?’। उनकी जो कविता ‘कौन जात हो भाई’ सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा पढ़ी और सराही गई, वह ‘छिछले प्रश्न : गहरे उत्तर’ नाम से दोनों संग्रहों में शामिल है। इस कविता को अपने-अपने ढंग से कई विद्वानों ने विश्लेषित किया है। उनमें प्रियदर्शन मुख्य हैं, जिन्होंने इन दोनों संग्रहों की भूमिका भी लिखी है। इस कविता का एक बंद इस प्रकार है–
कौन जात हो भाई?‘
दलित हैं साब!’
नहीं, मतलब किसमें आते हो?
‘आपकी गाली में आते हैं
गन्दी नाली में आते हैं
और अलग की हुई थाली में आते हैं साब।’
मुझे लगा हिंदू में आते हो!
आता हूँ न साब! पर आपके चुनाव में।
इस कविता पर प्रियदर्शन अपनी टिप्पणी में लिखते हैं– “जब कोई जान जाता है कि वह हमारी गाली, नाली और अलग की हुई थाली में आता है और इसे बड़ी सहजता से कह देता है तो क्या होता है? हमारे भीतर हमारी सोई हुई शर्म कुछ देर के लिए जाग जाती है। अपने आपसे आंख मिलाते हुए कुछ देर के लिए असुविधा होती है। एक दलित पीड़ा जैसे सवर्ण अहंकार या विनम्रता दोनों से अपना हिसाब मांगने लगती है, दोनों को कटघरे में खड़ा कर डालती है। लेकिन जिन पंक्तियों से यह टिप्पणी शुरू हुई है, उनका इस चुनावी दौर में एक राजनीतिक आशय भी निकल आता है कि हिंदू हितों की बात करने वाले लोग दलितों को तभी हिंदू मानते हैं, जब चुनाव आते हैं।”
प्रियदर्शन का कहना बिल्कुल सही है। यह कविता सवर्ण अहंकार या विनम्रता दोनों को कटघरे में खड़ा करती है। लेकिन इससे भी बड़ी सच्चाई जो यह कविता रेखांकित करती है, वह है सवर्ण मानस की यथास्थिति, जिसे कोई कटघरा, कोई प्रहार और कोई आंदोलन नहीं बदल सका। इस इक्कीसवीं सदी में भी कवि “कौन जात हो भाई?” जैसी कविता लिख रहा है, तो मतलब साफ़ है कि दलित वर्ग न तो स्वाधीन हुआ है और ना ही आज़ाद। वरना, इसके आगे कवि यह क्यों लिखता–
क्या मिला है भाई
‘जो दलितों को मिलता है साब!’
नहीं, मतलब क्या-क्या मिला है?
‘जिल्लत भरी जिंदगी
आपकी छोड़ी हुई गंदगी
और तिस पर भी आप जैसे परजीवियों की बन्दगी साब!’
मुझे लगा वादे मिले हैं।
मिलते हैं न साब! पर आपके चुनाव में।
निस्संदेह दलितों को कभी पूरे न होने वाले वादे मिलते हैं, और विकास के रास्ते बंद कर दिए जाते हैं। अगर डॉ. आंबेडकर ने संविधान में आरक्षण की व्यवस्था न कराई होती, तो जो थोड़े से दलितों को आज शिक्षा और नौकरियों में प्रतिनिधित्व मिला है, वह भी नहीं मिलता। अगर भारत का कोई समाज इक्कीसवीं सदी में भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित है और जिल्लत-भरी जिंदगी जीने के लिए मजबूर है, तो क्या यह माना जाएगा कि वह देश का नागरिक है और तरक्की कर रहा है?
ये दर्द और जिल्लत के प्रश्न हर संवेदनशील व्यक्ति को बेचैन करते हैं। उन्मेष की संवेदना भी “कब तक” कविता में पूछती है–
जुल्म की ढलेगी शाम कब तक
ये जातिसूचक नाम कब तक?
समाज का ये बाजारूपन
लेगा इज्जत का दाम कब तक?
गो हत्या के नाम पर
पिटेगा आदमी आम कब तक?
सीता, शंबूक से अन्याय कर
बचेगा तेरा राम कब तक?
ये कब तक की प्रश्न-श्रृंखला अंतहीन है। इसी श्रृंखला की एक और कविता है “सवाल”, जो एक बेहतरीन गजल भी है, और पाठकों से संवाद करती है–
सवालों के घेरे में उस रोज लाया जाएगा,
जिंदा रहते हुए जब तुम्हें मृत पाया जाएगा,
अब कोई शर्त भी नहीं कि माचिस ही जले,
अबकी बातों से ही चमन जलाया जाएगा।
अभी मंदिर बनाकर बस प्रसाद पर पलो,
गीत रोटी का फिर कभी गाया जाएगा।

इसी तरह ‘जो मरे सड़क पर’ कविता में कवि पूछता है–
जो मरे सड़क पर आम थे, जब तक जिंदा थे बदनाम थे
फिर किसके खातिर देश बनाया? बड़े बेहूदे काम थे।
लड़ के मरे या मर के लड़े, किसी को कोई फर्क नहीं,
भूल गए सत्ताधारी कि तुम भी कभी इन्सान थे।
जो मरे सड़क पर आम थे।
रगों में आंसू, आँख में खून, टपके भागे फिरते हैं,
अबकी बारी हमारी है, पुरखे तो पुराने गुलाम थे।
जो मरे सड़क पर आम थे।
लेकिन ‘भूख’ कविता में कवि का तेवर व्यंग्यात्मक है–
अब किसी की गरीबी का मजाक नहीं बनाया जाएगा,
बल्कि मजाक बनी गरीबी का जीर्णोद्धार कराया जाएगा
गरीबी को अब अमीरों के फैशन तक लाया जाएगा
या यूँ कहें कुपोषित काया को अब दूध पिलाया जाएगा,
इस फैशन में ढक दिए जायेंगे उखड़े जिस्म, चीथड़े कपड़े
पर नहीं ढकी जा सकेगी तो केवल भूख
जो दोनों तरफ बरकरार रहेगी मुसलसल
वही
एक पेट की भूख
दूसरी सेठ की भूख।
उन्मेष ने जिजीविषा को महत्व दिया है, परिस्थिति के हाथों हताश होकर आत्म के हनन पर नहीं। ‘अंकुरित होते बीज’ कविता में वह कहते हैं–
अपने अंकुरित होने का अधिकार
उस धूप को इतना ही देना बीज!
कि ले सको एक पूर्ण वृक्ष का रूप
और फल सको अनगिनत बीज
न कि भून दिए जाओ उन दानों की तरह
कि जीवन में जीवन नहीं, महज राख बचे।
पंजाब के कवि अवतारसिंह पाश की एक कविता है–
कविता तुम्हारे लिए
विपक्षी पार्टियों की बैंचों जैसी है
जो सदा आग-आग का शोर मचाते हैं
और आग से खेलने की मनाही को
हमेशा सिर झुकाते हैं
माफ करना मेरे गाँव के दोस्तों
मेरी कविता तुम्हारी समस्याएं हल नहीं कर सकतीं।
लेकिन उन्मेष इस तरह नहीं सोचते। वह ‘कविता रोटी नहीं बन सकती’ में कहते हैं कि भले ही–
कविता रोटी नहीं बन सकती, पाठकों की
मगर बन सकती हाकी संवाद, मूक नाटकों की।
जिसे अंधे बन देखे जा रहे थे
गूंगे बन फेंके जा रहे थे।
पाश ने गरीबी, भूख, पुलिस की गोलियां, गुलामी की जंजीरें, दबंगों के जुल्म सब देखे थे, पर उस जाति के दंश का अनुभव उन्होंने भी नहीं किया था, जिससे गरीबी और अन्याय की फसल पैदा होती है। उन्मेष की भी यही स्थिति है।
उन्मेष के दोनों कविता-संग्रहों में ‘छिछले प्रश्न : गहरे उत्तर’ कविता को छोडकर, जिसमें ‘कौन जात हो भाई’ के अंतर्गत चुनाव के बहाने दलित-व्यथा की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है, दूसरी कोई कविता जातीय दंश की नहीं है, जो उन्हें ओमप्रकाश वाल्मीकि और मलखान सिंह जैसे सशक्त दलित कवियों की परंपरा से जोड़ सके। इसका मुख्य कारण यही है कि वह दलित पृष्ठभूमि से नहीं आते हैं, जो जाति का उत्पीड़न झेलता है।
उन्मेष की कविता ‘समाज बदल रहा है! और आप?’ एक महत्वपूर्ण यथार्थ पर है, लेकिन इसे वह साध नहीं पाए और उसे व्यंग्यात्मक बनाकर प्रभावहीन कर देते हैं। यह कविता उनके दूसरे संग्रह ‘कौन जात हो भाई’ में संकलित है। इस कविता का आरंभिक बंद इस तरह है–
धीरे-धीरे समाज बदल रहा है
जी गुरू जी।
गुरू जी आसन ग्रहण करते हुए–
क्या बात है रमेश ने प्रेम विवाह कर लिया?
मैं चुप।
इस कविता के अन्य सभी बंद इसी ‘मैं चुप’ पर खत्म होते हैं। अगर कोई बिम्ब है भी तो बहुत साधारण है, और अर्थ अस्पष्ट है। इस कविता को कुछ सच्ची घटनाओं और सार्थक बिम्बों से गंभीर रूप दिया जा सकता था। इसी भावभूमि की दूसरी कविता भी है ‘भूसुर तुम कब सुधरोगे?’ इसमें उन्होंने सही सवाल खड़े किए हैं। यथा–
भूसुर तुम कब सुधरोगे!
क्या हमारे साथ बजबजाते नालों में उतरोगे
गर नहीं
तो एक तरफा लूट कर हमें कब तक कुतरोगे?
तुम्हारे देव वही
अन्धन को आँख देत, कोढ़िन को काय वाले
जरा कहो उनसे
सीढ़ियों पर अंधे भिखारियों के लिए कब उतरोगे?
गर नहीं
तो एक तरफा लूटकर हमें कब तक कुतरोगे?
इस कविता पर मलखान सिंह की सुप्रसिद्ध कविता ‘सुनो ब्राह्मण’ का प्रभाव है, हालांकि कथ्य अलग है। उन्मेष की एक और कविता ‘एक गरीब परिवार था’ भी ‘सुनो ब्राह्मण’ से प्रभावित है। ‘सुनो ब्राह्मण’ की पंक्तियां हैं– ‘सुनो ब्राह्मण/हमारे पसीने से/बू आती है तुम्हें/तो फिर ऐसा करो/ एक दिन/अपनी जनानी को/हमारी जनानी के साथ/मैला कमाने भेजो।’ उन्मेष की कविता इस प्रकार है–
जब बच्चा यादव और उसके दोस्त उन्मेष पाण्डेय
मानव मल ढोते दिखें तो
चन्नू मुसहर को बुलावा भेजें कि
वे अपने एयर कंडीशन रूम से निकलें
और बच्चा यादव और उसके साथी
उन्मेष पाण्डेय को कवरेज दें।
‘तुम क्यों झुकोगे दोस्त’ कविता में भी यही अभिव्यंजना है। यथा–
तुम्हारे घर के सामने वाला सीवर बदबू दे रहा है
इसमें पनप रहे हैं कुंठित विचार और दर्प।
इन्हें हटाने के लिए सीवर में उतरना पड़ेगा।
पर तुम नहीं उतरोगे दोस्त! दलित थोड़ी न हो।
तुम्हारे इंसां बनने की प्रक्रिया में जाति आड़े आ रही है
मर रही हैं संवेदनाएं और तमाम मानवीय संभावनाएं
इन्हें जगाने के लिए जाति का दम्भ छोड़ना होगा
पर तुम नहीं छोड़ोगे दोस्त! दलित थोड़ी न हो।
उन्मेष की एक कविता शूद्रों को संबोधित है। उसका एक बंद इस प्रकार है–
तुम पूज्य नहीं हो हमारे ग्रंथों में
तब भी नहीं थे और अब भी नहीं हो
तुम शूद्र थे, शूद्र हो और शूद्र ही रहोगे।
कुछ आएंगे तुम्हारे अपने, बुनियाद उठाने तुम्हें पढ़ाने
पर तुम हरकत नहीं करोगे
क्योंकि तुम्हारा समाज
मंदिरों में जा-जाकर मूढ़ हो चुका है।
संग्रह की भूमिका-लेखिका ने इस कविता को व्यंग्यात्मक रचना कहा है, परंतु यह व्यंग्यात्मक रचना तब होती, जब इसमें ‘हमारे ग्रंथों’ की जगह ‘उनके ग्रंथों’ का उल्लेख किया गया होता
वास्तव में उन्मेष जाति-धर्म-निरपेक्ष समाज की पक्षधरता के कवि हैं। परंतु उनकी संवेदना का स्तर सतही है। इसलिए ‘मनु के मन की कुंठित स्मृति’, ‘शोषक और शोषित’, ‘वही तो मजदूर है’, मनमाफिक अपराध’ जैसी कविताएं भी प्रभाव नहीं छोड़ पाती हैं। वह ‘मनमाफिक’ कविता में लिखते हैं– राष्ट्रवादी भूखे और पीड़ित लोग होते हैं। यह पूरी तरह गलत सोच है। सच यह है कि पेट-भरे और संपन्न लोग राष्ट्रवाद का राग अलापते हैं। वास्तव में वर्णव्यवस्था की अर्थवत्ता को समझे बगैर राष्ट्रवाद को नहीं समझा जा सकता। राष्ट्रवाद क्या है, इस पर विस्तृत प्रकाश डॉ. आंबेडकर ने डाला है। उन्मेष को डॉ. आंबेडकर के साहित्य को पढ़ने की जरूरत है।
आगे बढ़ते हैं। उन्मेष ने ‘न्याय को न्याय की तलाश’ कविता में भाग्य-फल के सिद्धांत पर अच्छा प्रहार किया है–
न्याय कुछ जाना-पहचाना सा शब्द है
जो आज खुद, न्याय की तलाश में है
इसे कटघरों में उतारा गया मंदिरों के
जहाँ इसके लिए
पुनर्जन्म के कर्मों का हवाला दिया गया
और कहा गया– जो तुम भोग रहे हो
वही न्याय है
लो हो गया न्याय!
अवश्य ही हिंदुओं के कर्म-सिद्धांत में अन्याय के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन आगे कवि ने मुस्लिम फतवों, तवायफों, न्यायालयों आदि को जोड़कर ऐसा मुरब्बा बना दिया है, कि अर्थ तो छोड़िये, पूरी कविता बेस्वाद हो गई है। एक उदाहरण देखिए, तवायफ़खानों के लिए कवि कहता है–
जहाँ इसके लिए सिक्कों का हवाला दिया गया
नर्तकियाँ खूब नाचीं, मन बहला गईं इज्जतदारों का
फिर सिक्का उछाला गया
और कहा गया, यह जो सिक्का है,
वही न्याय है।
शोषितों का चिंतन हमेशा ही ईश्वर को अपने दुखों के लिए कटघरे में खड़ा करता रहा है। दलित कविता में संभवत: सबसे पहले मलखान सिंह ने ईश्वर को सवालों के घेरे में खड़ा किया था। उनकी एक बहुत ही प्रसिद्ध कविता है– ‘आखिरी जंग’। इसमें वह लिखते हैं–
ओ परमेश्वर!
कितनी पशुता से रौंदा है हमें
तेरे इतिहास ने…
गोया तू मुंसिफ नहीं
शैतान का ही वंशज है…
आज जान गए….
कल निकम्मों के साथ
होने वाली आखिरी जंग में
तू हमारा सारथी नहीं होगा।
उन्मेष ने भी ईश्वर पर तीन कविताएं लिखी हैं, जिनमें ईश्वर को कटघरे में खड़ा किया है। ‘ईश्वर की सत्ता’, ‘सत्ता का ईश्वर’ कविता में ईश्वर को कर्जा, पर्दा और गर्दा बताया गया है। यथा–
ईश्वर वो कर्जा है
जिसे गरीब आजीवन भरता है
सत्ता की तरह।
ईश्वर वो पर्दा है
जो बेबस को नंगा करता है
सत्ता की तरह।
ईश्वर वो गर्दा है
जो सपने धूमिल करता हा
सत्ता की तरह।
उनकी दूसरी कविता ‘किस काम का ईश्वर’ है, जो गजलनुमा है। इसमें केवल दो पंक्तियां ही ईश्वर पर हैं, जिसमें वह ईश्वर को धरती का बोझ मानते हैं। यथा–
कितना निर्लज्ज है ईश्वर तू,
अब तो धरती के भार उठो।
ईश्वर पर उनकी तीसरी कविता का नाम है– ‘मैं लानत भेजता हूं’। दोनों कविताओं की तरह यह कविता भी पूरी तरह ईश्वर पर केंद्रित नहीं है। इसमें वह ईश्वर को ही नहीं, उससे जुड़ी अन्य चीजों पर भी लानत भेजते हैं। यद्यपि, वह नीत्शे की तरह यह तो नहीं कहते कि ईश्वर मर गया है, बल्कि उसे लानत भेजते हुए मर जाने को जरूर कहते हैं। यथा–
लानत भेजता हूं तेरे ईश्वर को
कह दो एक अच्छा सा मुहूर्त निकालकर मर जाए।
लानत भेजता हूं तेरी सरकारों को
कह दो बाज़ारों में इज्जत नीलाम कर घर जाए।
उन्मेष की एक कविता ‘राम और राज’ भी इस आधार पर विचारणीय है। इस कविता की प्रारंभिक पंक्तियां हैं–
राम तो है, बस राज चाहिए
हमें तो गुलाम समाज चाहिए
तुम नीच बनकर सूत जुटाओ
हमें तो तैयार खाट चाहिए।
यह लम्बी कविता है, जिसकी अभिव्यंजना शायद यह है कि ब्राह्मणों ने राम को हथिया लिया है, और अब उसके सहारे राज करना चाहते हैं। लेकिन इस कविता के सौंदर्य को ‘हम और तुम’ शब्दों के प्रयोग ने नष्ट कर दिया है। अगर इसमें हम को तुम और तुम को हम में बदल दिया जाए, तो इसका सौंदर्य दमक उठेगा। जैसे–
राम तो है बस राज चाहिए
तुम्हें तो गुलाम समाज चाहिए
हम नीच बनकर सूत जुटाएं
तुम्हें तो तैयार खाट चाहिए।
असल में उन्मेष मूलत: गजलकार हैं। इसलिए, वह कविता को भी गजल की तरह लिखते हैं। यह गज़लगोई उनकी लगभग हर कविता में मिल जाएगी। जैसे ‘गुरू’ में है–
गुरू हो तो बुद्ध सा
जो अंगुलिमाल को सुधार दे
ना कि गुरू द्रोण सा
जो अंगुली ही उतार दे।
बन जाऊं मनमाफिक
कुछ मेरे भी बस में रहे
ऐ चाक इस मिटटी को
ऐसा कोई कुम्हार दे।
उनके दोनों संग्रहों में गजलों की संख्या अधिक है। वे एक अच्छे गजलकार हैं, और उनके शेर हिंदी के पहले गजलकार दुष्यन्त कुमार से किसी रूप में कमतर नहीं हैं। अगर वह गजलों की दुनिया में ही इसी कमाल के साथ बढ़ते रहे, तो वह दुष्यन्त से भी बड़े गजलकार साबित होंगे। उनके कुछ शेर इसकी गवाही देते हैं। यथा–
डोर कैसी भी हो, गांठ खुल जाती है,
खुद को इतना भी कसना तो अच्छा नहीं।
लाख रंज-ओ-गम हों, हों दुश्वारियां हजार
यूँ सांसों का रुक जाना भी तो अच्छा नहीं।
—
वो आग है या आब है? जरा जाकर देख,
संभलना क्या होता है, ठोकर खाकर देख।
—
वो क्या ही जाने, क्या होता है दस्त-ए-यार का मतलब
दिल के दरिया में एकतरफा जिसे नौका चलाना है।
—
जिसने इस दौर के इंसां किए हैं पैदा
वो मेरा भी खुदा हो, ये मुझे मंजूर नहीं।
क्या उन्मेष दलित चेतना के कवि हैं? उत्तर है, नहीं। क्या उन्मेष बहुजन चेतना के कवि हैं? उत्तर है, शायद नहीं। उन्मेष वास्तव में प्रगतिशील चेतना के कवि हैं। वह जनवादी चेतना के कवि भी हैं, जैसे दुष्यन्त कुमार थे। उनकी कविताओं में वह आग नहीं मिलेगी, जो दलित कवियों की कविताओं में दहकती है। उनकी कविताओं में इतिहास का वह पुनर्पाठ भी नहीं मिलेगा, जो बहुजन कवियों के यहां मिलता है, जैसे दिनेश कुशवाह की कविताओं में। उन्मेष का कवि-हृदय लोकतंत्र के लिए धड़कता है, मानव की गरिमा के लिए उद्वेलित होता है और वह भूख, गरीबी, जुल्म और अन्याय के खिलाफ शब्दों को हथियार बनाता है। लेकिन लोकतंत्र का हनन करने वाले शासक वर्ग के समाजशास्त्र की पहचान उन्हें अभी करनी है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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