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स्वामी अछूतानंद, जिन्होंने अंग्रेजों को बताया भारतीय समाज का सच

तब अछूतानंद इतने खतरनाक हो गए कि कानपुर के गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे क्रांतिकारी माने जाने वाले पत्रकार को भी 27 अप्रैल 1925 के ‘प्रताप’ में ‘आदि हिंदू आंदोलन’ नाम से लेख लिखकर उसका विरोध करना पड़ा। स्मरण कर रहे हैं कंवल भारती

स्वामी अछूतानंदहरिहर’ (6 मई 1879 -20 जुलाई 1933) पर विशेष

अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के मुस्लिम विरोधी एजेंडे को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकारों का सहयोग नहीं मिलता, तो क्या वह सफल होता?

अगर 2002 में गुजरात में दंगाइयों को भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार का सहयोग नहीं मिला होता, तो क्या वे दो हजार मुसलमानों का कत्लेआम कर पाते?

उत्तर है, नहीं। अगर कबीर और रैदास साहेब को मुस्लिम शासकों का सहयोग नहीं मिला होता, तो क्या उनका निर्गुण आंदोलन सफल होता?

उत्तर है, नहीं।

अगर स्वामी अछूतानंद और डॉ. आंबेडकर को अंग्रेज शासकों का सहयोग नहीं मिला होता, तो क्या उनका दलित-मुक्ति का आंदोलन सफल होता?

उत्तर है, नहीं।

अब दूसरा प्रश्न लेते हैं। स्वतंत्रता के बाद सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक न्याय के आंदोलन क्यों बिखर गए?

उत्तर है, भारत के ब्राह्मण शासक उसके समर्थन में नहीं थे।

डॉ. आंबेडकर ने जिस हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्रवाद के खिलाफ दलित वर्गों को जागरूक किया, आज दलित वर्ग उस क्रांति से विमुख क्यों हो गए?

उत्तर है, भारत के ब्राह्मण शासकों ने स्वतंत्रता के बाद से ही दलित वर्गों के बीच तीव्र प्रतिक्रांति की।

इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जिन सरकारों के एजेंडे में सामाजिक न्याय या कमजोर वर्गों के पक्ष में समाज को बदलने की जरूरत नहीं होती है, वे अन्याय से पीड़ित वर्ग की हितैषी नहीं होती हैं। यह सिर्फ सरकारों का ही प्रश्न नहीं है, बल्कि यह शासक वर्गों के हितों का प्रश्न है। और भारत में यह शासक वर्ग द्विज समाज है, जो आज भी दलित जातियों को बराबर की स्वतंत्रता देना नहीं चाहता।

इसे हम स्वामी अछूतानंद के आंदोलन से साबित करते हैं।

मोतीराम कुरील (चमार) का पुत्र हीरालाल घुमक्कड़ी करते हुए आर्यसमाजी प्रचारक स्वामी सच्चिदानंद से टकरा गया। आर्यसमाज उन दिनों दलितों को मुसलमानों और ईसाईयों के चंगुल से निकालने के लिए अभियान चला रहा था। उस समय के हिंदू नेता नृसिंह चिंतामणि केलकर के अनुसार, उन दिनों दो हजार हिंदू प्रति सप्ताह ईसाई होते थे। मुसलमान भी वे धड़ाधड़ हो रहे थे।[1] मिस कैथरीन मेयो ने लिखा है कि लगभग पचास लाख दलित ईसाई बन गए थे।[2] इसलिए आर्यसमाज छुआछूत का विरोध करता था, और मूर्तिपूजा का खंडन करके दलितों को हिंदू मंदिरों में जाने से रोकने का काम भी करता था। आर्यसमाज के मूर्ति-खंडन को दलितों ने कबीर और रैदास साहेब की निर्गुण-चेतना के रूप में देखा, और वे उसके प्रभाव में आ गए। हीरालाल पर आर्यसमाजी नेता सच्चिदानंद का जबर्दस्त प्रभाव पड़ा, और वह उनके शिष्य बनकर आर्यसमाजी हो गए। नाम पड़ा हरिहरानंद। यह 1905 की बात है। आर्यसमाजी होकर उन्होंने वेदों, स्मृतियों, पुराणों, और दयानंद के ‘सत्यार्थ प्रकाश’ आदि ग्रंथों का खूब अध्ययन किया। लगभग सात साल तक वह आर्यसमाजी प्रचारक बनकर घूम-घूमकर प्रचार करते रहे।

स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ (6 मई 1879 -20 जुलाई 1933)

इस दौरान उन्हें जो अनुभव हुए, उससे आर्यसमाज से उनका मोह भंग हो गया। वेद-शास्त्रों के अध्ययन और हिंदू समाज के व्यावहारिक ज्ञान ने उनकी आंखें खोल दीं। वे दो निष्कर्ष पर पहुंचे। एक यह कि आर्यसमाज का काम दलित जातियों का उत्थान करके उन्हें बराबर के हक देना नहीं है, बल्कि हिंदुओं के राजनीतिक स्वार्थ के लिए उन्हें ईसाई और मुसलमान बनने से रोककर हिंदुओं का ही गुलाम बनाए रखना है। दूसरा, वेदों ने उन्हें इस सत्य का ज्ञान करा दिया कि अछूत और शूद्र इस देश के मूलनिवासी हैं। उनका अपना अलग धर्म था, अलग संस्कृति थी, अलग रीति-रिवाज थे और अलग सामाजिक विश्वास थे, जो हिंदुओं से पूरी तरह भिन्न थे। अब उन्हें अपना लक्ष्य मिल गया था। उन दिनों पूरे भारत में आदि द्रविड़, आदि आन्ध्र, आदि धर्म और आदि हिंदू अस्मिता के आंदोलन चल रहे थे। हरिहरानंद ने उन आंदोलनों से प्रभावित होकर आर्यसमाज छोड़ दिया, और आदि हिंदू आंदोलन की अपनी अलग राह बनाई। अब वह हरिहरानंद से अछूतानंद हो गए थे और अछूतों को जगाने का काम करने लगे थे। यह जगाना उस तरह से नहीं था, जिस तरह से आर्यसमाजी जगाया करते थे। इस जागरण का मतलब था उनमें आत्मसम्मान भरना, उन्हें शिक्षा से जोड़ना, गंदे और घृणित पेशों छोड़ने के लिए तैयार करना और अपने राष्ट्रीय हकों को प्राप्त करने के लिए संगठित होकर संघर्ष करने की चेतना पैदा करना था। ‘आदि हिंदू सभा’ बनी, जिसके बैनर तले दिल्ली में 1921 के अंत में जब ब्रिटेन के राजकुमार (प्रिंस ऑफ वेल्स) भारत आए, तो संपूर्ण देश के हिंदुओं ने उनके विरोध में भारत बंद रखा था, लेकिन दिल्ली में स्वामी अछूतानंद के नेतृत्व में, कैथरीन मेयो के अनुसार, पच्चीस हजार अछूतों ने प्रिंस का स्वागत किया था।[3] इस अवसर पर अछूतानंद ने प्रिंस को 17 सूत्रीय मांगपत्र दिया था, जिसमें उन्होंने विधायी संस्थाओं में दलितों को प्रतिनिधित्व और दलित छात्रों के लिए छात्रवृत्ति दिए जाने की मांग की थी। इस मांग पत्र में कहा गया था कि स्वराजवादी हिंदू दलितों को हिंदू नहीं समझते हैं, और उनके साथ जानवरों जैसा बर्ताव करते हैं। उन्हें अगर स्वराज मिल गया, तो वे दलितों को गुलाम बनाकर रखेंगे। इसलिए मुल्की हकों का बटवारा करके दलितों को अलग से हक दिए जाएं।[4]

अब अछूतानंद हिंदुओं के लिए अवांछनीय तत्व हो गए थे। सवाल है, क्यों?

जब तक अछूतानंद आर्यसमाजी बनकर वेदों का प्रचार करते रहे, तब तक हिंदुओं के लिए वे सम्माननीय बने रहे, पर जैसे ही उन्होंने दलितों को अपने हकों के लिए जगाने का काम करना आरंभ किया, वह हिंदुओं के लिए खतरनाक हो गए। सवाल है, क्यों?

यही वह ज्वलंत प्रश्न है, जो दलित आंदोलन और हिंदू समाज के बीच सदियों से विद्यमान है। प्रिंस ऑफ वेल्स का स्वागत करने और उन्हें मांगपत्र देने की घटना ने रातों-रात अछूतानन्द को हिंदुओं का खलनायक बना दिया। वह इतने खतरनाक हो गए कि कानपुर के गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे क्रांतिकारी माने जाने वाले पत्रकार को भी 27 अप्रैल 1925 के ‘प्रताप’ में ‘आदि हिंदू आंदोलन’ नाम से लेख लिखकर उसका विरोध करना पड़ा। ध्यान रहे कि आदि हिंदू सभा का मुख्यालय कानपुर में ही था। उन्होंने लिखा, “उत्तरी भारत में एक नए आंदोलन का जन्म हुआ है। उसे हम ‘आदि हिंदू आंदोलन’ के नाम से पुकार सकते हैं। उसका उद्देश्य यह है कि हिंदुओं में जो लोग नीच जाति के समझे जाते हैं, और इसलिए समाज के अनेक क्षेत्रों में आगे नहीं बढ़ पाते, उनके विकास और उन्नति के लिए उनका पृथक संगठन किया जाए। अभी तक उत्तरी भारत में भेद की यह रेखा नहीं खिंची थी। अब यहां भी इसका जन्म हुआ है। स्वामी हरिहरानंद, उर्फ अछूतानंद नाम के एक सज्जन इस काम के प्रधान सूत्रधार हैं। कुछ लोग कहते हैं कि स्वामी जी पहले चमार थे, फिर ईसाई हुए, और फिर शुद्ध होकर इस आंदोलन के कर्ता-धर्ता बने। लोग यह भी कहते हैं कि वे (अंग्रेज) अधिकारियों से मिले हुए हुए हैं, और उनके इशारे और सहायता पर हिंदुओं में फूट डाल रहे हैं और नीच जातियों को ऊंची जातियों से लड़ा रहे हैं।” उन्होंने आगे लिखा, “हमारी प्रार्थना उनसे यही है कि वे सोच-समझ कर काम लें, और अनीति से अनीति मिटाने का प्रयत्न न करें।” इस लेख में यह भी कहा गया है कि आदि हिंदू आंदोलन के कार्यकर्ता जिन अंग्रेजों की उदारता का बखान करते नहीं थकते, वे भी अभी हाल तक गुलामी की प्रथा को मानने वाले थे।[5] यह लंबा लेख है, जिसमें गणेश शंकर विद्यार्थी ने सिर्फ आदि हिंदू आंदोलन को उसकी गलतियां बताने का काम किया है, दलितों के राजनीतिक अधिकारों का कहीं समर्थन नहीं किया है।

यह भी पढ़ें : स्वामी अछूतानंदहरिहरका जीवनवृत

जिस तरह आज आरएसएस हिंदू-राष्ट्र की स्थापना के लिए सक्रिय है, उसी तरह उस काल में हिंदू राष्ट्र के लिए ‘हिंदू महासभा’ सक्रिय थी। उसने अप्रैल 1928 में लखनऊ में हिंदू महासम्मेलन किया। उसमें आदि हिंदू आंदोलन के खिलाफ यह प्रस्ताव पास किया गया– “यह महासभा तथाकथित आदि हिंदू (अछूत या दलित वर्ग) आंदोलन के खिलाफ, जिसे कुछ स्वार्थ-परायण लोगों ने हिंदू समुदाय के बीच विभाजन पैदा करने के विचार से आरंभ किया है, जोरदार विरोध दर्ज करती है, और तथाकथित अछूत भाइयों को इस हानिकारक दुष्प्रचार से होने वाले खतरों के प्रति चेतावनी देती है और आगाह करती है कि वे अपने पुश्तैनी हिंदू धर्म के प्रति वफादार बने रहें।”[6]

यह सच है कि प्रिंस के स्वागत के बाद, स्वामी अछूतानंद को अंग्रेजों का संरक्षण और सहयोग प्राप्त हो गया था, जिसके बल पर ही आदि हिंदू आंदोलन गति पकड़ सका था। हिंदू नेताओं ने उन्हें खामोश करने के लिए, यहां तक कि उनके सम्मेलनों में गुंडों को भेजकर उपद्रव कराने और उन्हें जान से मारने तक के प्रयास कर लिए थे, पर अंग्रेज-पुलिस और अधिकारियों की कड़ी सुरक्षा के कारण हिंदू उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाए थे। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आदि हिंदू आंदोलन ब्राह्मणवाद के लिए कितना खतरनाक था।

निष्कर्ष यह है कि हिंदू समाज आज भी नहीं चाहता कि दलित वर्गों को द्विजों के बराबर आज़ादी और अधिकार मिलें। पूछा जा सकता है कि क्यों? उत्तर है, वह नहीं चाहता कि उसकी वर्णव्यवस्था भंग हो, और शूद्र और दलित जातियां शासक बनें। कल्पना कीजिए, अगर अंग्रेजों का शासन नहीं होता, या अंग्रेज भी हिंदुओं के पक्ष में दलित वर्गों के विरुद्ध खड़े होते, तो क्या होता? क्या अछूतानंद जैसे दलित नायकों को सवर्ण हिंदू जीवित छोड़ते? क्या हिंदू समाज दलितों को आगे बढ़ने देता? सच तो यह है कि जो वर्ग आज भी दलित को घोड़े पर नहीं चढ़ने देता, वह कायदे से तो अभी मनुष्य भी नहीं बना है।

अछूतानंद की इस घटना से समझा जा सकता है कि आज इक्कीसवीं सदी में भी दलितों को अपने अधिकारों के लिए क्यों संघर्ष करना पड़ रहा है? क्यों राज्य के संरक्षण में आज भी दलितों को आतंकित करके रखा जाता है, और क्यों?

उत्तर बताने की जरूरत नहीं है।

[1] प्रताप, 20 अप्रैल 1925, देखिए सम्पादकीय लेख : ‘हिंदुओं की कूपमंडूकता’, गणेश शंकर विद्यार्थी रचनावली, खंड तीन, पृष्ठ 327

[2] मदर इंडिया, कैथरीन मेयो, फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, पृष्ठ 146

[3] वही, पृष्ठ 155

[4] देखिए, मेरी संपादित पुस्तक ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली

[5] गणेश शंकर विद्यार्थी रचनावली, खंड तीन, संपादक : सुरेश सलिल, अनामिका पब्लिशर्स, नई दिल्ली, पृष्ठ 329-332

[6] स्लैवस् ऑफ दि गोड्स, कैथरीन मेयो, हरकोर्ट, ब्रास एंड कम्पनी, न्यूयार्क, 1929, पृष्ठ 159

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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