हाल ही में जब सरकार ने सेना में भर्ती की अग्निपथ योजना का ऐलान किया तो इसके विरोध में तमाम जगहों पर नौजवानों ने प्रदर्शन किए। कई जगह हिंसा हुई और सरकार को इस मामले में सफाई देने के लिए सेना के आला अधिकारियों तक को उतारना पड़ा। सवाल यह है कि नौजवान किसी भर्ती योजना को लेकर इतना उद्वेलित क्यों हुए औऱ क्यों इस योजना का इतना विरोध है? सवाल यह भी है क्या बेरोज़गार युवाओं का विरोध सिर्फ अग्निपथ तक सीमित रहेगा या सरकार को अभी और मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा?
बीते 14 जून, 2022 को अग्निपथ योजना की घोषणा करते वक़्त केंद्र सरकार ने कहा कि इस योजना के तहत नौजवानों को सेना में चार साल के लिए सेवा करने का अवसर मिलेगा। इस योजना के तहत पहले साल सेना के तीनों अंग यानी थलसेना, वायुसेना और नौसेना में कुल मिलाकर 46 हजार जवानों की भर्ती की जाएगी। इसके बाद अगले 4 से 5 सालों में इसे बढ़ाकर 50 से 60 हजार और उसके बाद 90 हजार से 1 लाख 20 हज़ार तक किया जा सकता है। इसके साथ ही सरकार ने साफ कर दिया कि सेना में अब अग्निपथ के अलावा रुटीन भर्तियां नहीं होंगी। सरकार को उम्मीद रही होगी कि अग्निपथ योजना का बेरोज़गार स्वागत करेंगे, लेकिन हुआ एकदम उलट। न सिर्फ योजना का विरोध हुआ बल्कि इसके ख़िलाफ नौजवान सड़कों पर उतर आए। लेकिन क्यों?
ज़ाहिर है, आर्थिक मंदी का दौर है और हर तरफ बेरोज़गारी का बोलबाला है। पिछले कई वर्ष से सेना या सुरक्षा बलों में नियमित भर्तियां नहीं हुई हैं। कोविड काल तो चलो एक आकस्मिक दिक़्क़त हुई लेकिन सैन्य बलों में भर्तियां इससे पहले से ही तक़रीबन बंद पड़ी हैं। ऐसे में इतनी नौकरियों की घोषणा के विरोध की उम्मीद किसी को नहीं रही होगी, भले ही यह तदर्थ, या अस्थायी ही क्यों न हों। सरकार और सेना ने अग्निपथ के पक्ष में तमाम तरह की दलीलें भी दी हैं। योजना के तमाम फायदे गिनाए हैं। लेकिन सवाल यह भी है कि सरकार को ऐसा करने की ज़रूरत क्यों पड़ी?

अपनी बात दूसरे सवाल से ही आगे बढ़ाते हैं। दरअसल आर्थिक तंगी से जूझ रही सरकार न सिर्फ सेना, बल्कि तमाम विभागों में संख्याबल घटाना चाहती है। हालांकि अग्निपथ योजना की पृष्ठभूमि जाननी है तो हमें वापस 2018-19 की तरफ जाना होगा। भारतीय सेना में इस समय तक़रीबन 14 लाख जवान हैं। 2017-18 से ही कहा जा रहा है कि यह संख्या ज़्यादा है और भारतीय सेना अपनी सैन्य संख्या में कटौती करेगी। दलील दी गई कि तनख़्वाह, भत्ते, और पेंशन से जो पैसे बचेंगे उनसे सेना का आधुनिकीकरण किया जाएगा। अगस्त 2017 में भारत सरकार ने सेना के पुनर्गठन और काम करने के तौर तरीक़ों में बदलाव का ऐलान किया। इसके बाद तत्कालीन सेना सचिव जेएस संधु के नेतृत्व में एक 11 सदस्यीय पैनल ने सरकार से कहा कि अगले चार साल में सैन्य संख्या में कम से कम 1.5 लाख की कटौती की जाए।
इससे पहले एक और दिलचस्प घटना हुई। जनवरी 2018 में इज़रायल के तत्कालीन प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहु 6 दिवसीय भारत दौरे पर आए थे। उनके साथ आए 130 सदस्यीय दल में सैन्य सलाहकार और सैन्य उपकरण बनाने वाली कंपनियों के लोग भी थे। तब दिए गए एक प्रेज़ेंटेशन में इज़रायली कंपनियों के नुमाइंदो ने बताया किस तरह तकनीक, सर्विलांस, रोबोट, और ड्रोन का इस्तेमाल करके बिना किसी नुक़सान के सैन्य बलों की संख्या घटाई जा सकती है। बताया गया कि तकनीक पर ख़र्च ज़्यादा है, लेकिन लंबी अवधि में यह मानव क्षति और सैन्य ख़र्च घटाने में सहायक होगा। भारत सरकार को बात जंच गई। अब सरकार चाहती है कि सैन्य ख़र्च में वेतन, भत्ते, और मानव क्षति की वजह से दिए जाने वाले मुआवज़ों का बोझ कम हो।
ज़ाहिर है, पिछले कुछ वर्षों से बंद पड़ी सैन्य भर्तियां इस योजना का एक हिस्सा हो सकती हैं। लेकिन आगे नियमित भर्तियां न होना क्या असर डाल सकता है, इसे लेकर अभी से तमाम तरह के मतभेद हैं। हालांकि, अग्निपथ योजना के आलोचक सैन्य क्षमता और इस योजना की वजह से भारत के सैन्य हितों को लेकर अभी कोई बात नहीं कर रहे हैं। अभी जो आलोचना है, वह इस बात तक सीमित है कि सेना में चार साल काम करने के बाद जो नौजवान वापस लौट आएंगे, उनका समाज पर क्या असर पडेगा। इसे लेकर तमाम तरह की शंकाएं जताई जा रही हैं और बरोज़गारों ने जिस तरह हिंसा की है, उससे यह सवाल और तेज़ हुए हैं। आलोचकों का कहना है कि मान लीजिए, यही नौजवान अगर सैन्य ट्रेनिंग पाने के बाद हिंसा करें तो असर कितने भयावह होंगे?
ख़ैर, अब लौटते हैं पहले सवाल की तरफ। युवकों में अग्निपथ योजना को लेकर इतना ग़ुस्सा क्यों है? इसका एक जवाब तो पिछले कुछ वर्षों से बंद पड़ी सेना और केंद्रीय बलों की भर्ती में ही छिपा है। सेना में भर्ती की उम्मीद लिए हरियाणा, बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान के लाखों नौजवान सालों-साल तैयारी करते हैं। भर्ती बंद होने की वजह से उनमें से कई की आयु निकल रही है। अब जबकि भर्ती का ऐलान हुआ भी तो तक़रीबन अस्थायी नौकरी का। बात सिर्फ सेना की भर्ती तक सीमित रहती तब भी मामला कुछ संभल जाता। पिछले पांच वर्षों में केंद्रीय बलों के अलावा राज्य पुलिस, रेलवे सुरक्षा बल और दूसरे बलों में भी भर्तियां नहीं के बराबर हुई हैं। देश का सबसे बड़ा नियोक्ता रेलवे तो ख़ुद ही दम तोड़ गया है। सार्वजनिक क्षेत्र की तमाम कंपनियां बिक चुकी हैं या बिकने वाली हैं।
वर्ष 2016 के बाद से लगातार बिगड़ रहे देश के आर्थिक हालात भी इसका एक कारण हैं। नोटबंदी के बाद से असंगठित क्षेत्र बदहाल है, कृषि लगातार घाटे का सौदा बना हुआ है और निजी क्षेत्र में भी नौकरियों के अवसर 1991 से 2010 के बीच जैसे नहीं रह गए हैं। सरकार से पहली चूक निजी क्षेत्र पर दांव लगाने की ही हुई है। पिछले आठ साल में निजी क्षेत्र को तमाम तरह की आर्थिक सुविधा, पैकेज और टैक्स छूट दी गईं। सरकार को उम्मीद थी कि निजी कंपनियां जितना फले-फूलेंगी उतना आर्थिक संकट कम होगा और उतनी ही बेरोज़गारी घटेगी। लेकिन निजी क्षेत्र ने सरकार को लगातार धोखा दिय़ा। तमाम कंपनी टैक्स लाभ लेकर और लोन माफ कराकर बंद हुईं और कई उद्योगपति पैसे के साथ देश छोड़ गए।
अब हालात सरकार के क़ाबू से बाहर हैं। जिस तरह विदेशी क़र्ज़ लगातार बढ़ रहा है, और अर्थतंत्र की सांसें डूब रही हैं, ऐसे में सरकारी ख़र्च में कटौती और नौकरियों की संख्या में कमी के अलावा सरकार के पास कोई चारा नहीं है। सेना में तदर्थ भर्ती सिर्फ एक बानगी है। अभी दूसरे विभागों और पुलिस बलों में भी यही दोहराया जाना है। ऐसे में अग्निपथ से शुरु हुई आंदोलन की आग अभी दूसरी भर्तियों के दौरान भी फैलने का ख़तरा है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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