भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से जुड़े लोग इन दिनों दावा करते हैं कि देश को दलित और पिछड़े चला रहे हैं। इस दावे की एक वजह संवैधानिक पदों पर बैठे ओबीसी की तादाद और विधायिका उनकी संख्या है। हालांकि इस बात का जवाब किसी के पास नहीं है कि दलित राष्ट्रपति और केंद्रीय मंत्रिमंडल में प्रधानमंत्री समेत तमाम ओबीसी नेता होने के बावजूद आरक्षण की वयवस्था क्योंकर ग़ैर-प्रासंगिक होती जा रही है और क्यों रिक्त पड़े आरक्षित पद भरे नहीं जा रहे हैं?
सरकारी आंकड़े कह रहे हैं कि केंद्रीय सेवाओं में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, और पिछड़ों के लिए आरक्षित कुल पदों में आधे से अधिक ख़ाली पड़े हैं और उनपर वाजिब हक़दारों की नियुक्ति नहीं की जा रही है। यही हाल केंद्रीय विश्विविद्यालयों और उन स्वायत्त संस्थानों में हैं, जो केंद्रीय भर्ती नियमों का पालन करते हैं। वर्ष 2021 के आख़िर में सरकार ने माना था कि केंद्रीय विश्वविद्यालयो में कुल आरक्षित पदों में से लगभग पचास फीसद ख़ाली पड़े हैं। तब एक लिखित प्रश्न के जवाब में सरकार ने संसद में कहा कि देश के 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अनुसूचित जाति के कुल 5737 पद स्वीकृत हैं, जिनमें से 2389 पद ख़ाली पड़े हैं। इस तरह अनुसूचित जनजाति के स्वीकृत 3097 पदों में से 1199 ख़ाली हैं। अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए स्वीकृत 7815 पदों में से 4251 पर नियुक्तियां नहीं की गई हैं। इसके अलावा इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विवि दिल्ली में अनुसूचित जाति के 380 में से 157, अनुसूचित जनजाति के 180 में से 88 और ओबीसी के कुल 346 में से 231 पद ख़ाली हैं। अगर इन आंकड़ों को देखें तो आरक्षण व्यवस्था की न सिर्फ लगातार अनदेखी की जा रही है, बल्कि इसका तक़रीबन मखौल उड़ाया जा रहा है।